सदी के मुशाफिर का आखिरी सफर

2018-09-01 0

गोपाल दास नीरज सदी के मुशाफिर का आखिरी सफर - राजेश बदल 

करीब सौ साल पहले का हिन्दुस्तान। उत्तर प्रदेश में अलीगढ़ और उसके आसपास अंग्रेजों! भारत छोड़ो के नारे सुनाई दे रहे थे। चार जनवरी उन्नीस सौ पच्चीस को अलीगढ़ के पड़ोसी जिले इटावा के पुरावली गांव में गोपालदास सक्सेना ने पहली बार दुनिया को देखा। छह बरस के थे तो पिता हमेशा के लिए छोड़कर चले गये। तब से छियानवे साल की उमर तक गीतों के राजकुमार को अफसोस रहा कि पिता की एक तस्वीर तक नहीं थी। उस दौर में फोटो उतरवाना अमीरों का शौक था। पिता घर चलाते या तस्वीर उतरवाते। क्या आप उस दर्द को समझ सकते हैं कि दिल, दिमाग में पिता की छवि देखना चाहता है मगर वो इतनी धुंधली है कि कुछ दिखाई नहीं देता। 

गरीबी ने बचपन की हत्या कर दी थी। इटावा के बाद एटा में स्कूली पढ़ाई। बालक गोपालदास रोज कई किलोमीटर पैदल चलता। मिट्टी के घर में कई बार लालटेन की रोशनी भी नसीब न होती। फूफा जी दया करके पांच रुपए हर महीने भेजते और पूरे परिवार का उसमें पेट भर जाता। एक-दो रुपए गोपालदास भी कमा लेता। बचपन के इस दर्द का अहसास हद पार गया तो भाव और सुर बनके जुबान से फूट पड़ा। अच्छा लिखते और मीठा गाते मास्टर जी कहते देखो सहगल गा रहा है लेकिन उन्हीं मास्टर जी ने एक फिर सिर्फ एक नम्बर से फेल कर दिया। गरीबी के कारण फीस माफ थी। फेल होने पर फीस भरनी पड़ती थी। घर से कहा गया कि पढ़ाई छोड़ दो। गोपालदास पहुंचे मास्टर जी के पास बोले नम्बर बढ़ा दो वरना मेरी पढ़ाई छूट जाएगी फिर तो मास्टर जी ने गोपाल की आंखें खोल दी वो नसीहत दी जो आज तक याद है। मास्टर जी  की झिड़की काम आई। हाईस्कूल फर्स्ट डिवीजन में पास किया। उम्र सत्रह बरस। नौकरी दिल्ली में खाद्य विभाग में टाइपिस्ट, वेतन सड़सठ रुपए महीने। चालीस रुपए मां को भेजते। बाकी में अपना खर्च। कई बार तो भूखे ही सोना पड़ता। 

वैसे नीरज और गीतों का रिश्ता दस-ग्यारह बरस की उम्र में ही बन गया था। इन गीतों की दिल को छू लेने वाली मीठी-मीठी धुनें फटाफट तैयार कर देना उनके लिए बाएं हाथ का काम था। जब वह नवीं कक्षा में पढ़ते थे तो कविताओं और गीतों से लोगों को सम्मोहित करने लगे थे। घर की हालत अच्छी नहीं थी इसलिए पढ़ाई के बाद ही नौकरी मजबूरी बन गई। लेकिन गोरी सरकार को नीरज के गीतों में बगावत की बू आने लगी। स्वाभिमानी नीरज ने नौकरी का जुआ उतार फेंका। इसके बाद सारे देश ने नीरज के गीतों की गंगा बहते देखी। हरिवंशराय बच्चन की कविताओं ने कविता के संस्कार डाले। अपने जमाने के चोटी के साहित्यकार और कवि सोहनलाल द्विवेदी एक कवि सम्मेलन की अध्यक्षता करने आये थे। उन्नीस सौ बयालीस में दिल्ली के पहाड़गंज में उन्हें दोबारा मौका मिला। पहली ही कविता पर इरशाद इरशाद के स्वर गूंजने लगे। वो कविता नीरज ने तीन बार सुनाई और इनाम मिला-पांच रुपए। कवि सम्मेलन की सदारत कर रहे थे अपने जमाने के शायर-जिगर मुरादाबादी। नीरज ने जिगर साहब के पैर छुए तो उन्होंने गले से लगा लिया। बोले-उमरदराज हो इस लड़के की। क्या पढ़ता है जैसे नगमा गूंजता है। इसके बाद तो कवि सम्मेलनों में नीरज की धूम मच गई। उन दिनों उनका नाम था भावुक इटावी। 

इसी दौर में उनका सम्पर्क क्रांतिकारियों से हुआ और वो आजादी के आन्दोलन में कूद पड़े। यमुना के बीहड़ों में क्रांतिकारियों के साथ हथियार चलाना सीखा। उन्नीस सौ बयालीस के अंग्रेजों! भारत छोड़ो के दौरान नीरज जेल में डाल दिये गये। जिला कलेक्टर ने धमकाया-माफी मांगोगे तो छोड़ दिये जाओगे। सात सौ नौजवानों में से साढ़े छह सौ ने माफी मांग ली, जिन्होंने माफी से इन्कार किया, उनमें नीरज भी थे। 

ऐसे ही एक सम्मेलन में उन्हें लोकप्रिय शायर हफीज जालंधरी ने सुना। हफीज अंग्रेजी हुकूमत की नौकरी बजा रहे थे और सरकारी नीतियों का प्रचार करते थे। उन्हें लगा, नीरज का अंदाज लोगों तक संदेश पहुंचाने का जरिया बन जाएगा। उन्होंने नीरज को नौकरी का न्यौता भेजा। पगार एक सौ बीस रुपए की तय की गई। पैसा तो अच्छा था, मगर वो नीरज की सोच नहीं खरीद पाये और नीरज ने नौकरी को लात मार दी। वो विद्रोह गा रहे थे। नीरज भागकर कानपुर आ गये। एक निजी कम्पनी में नौकरी मिली और साथ में पढ़ाई की छूट भी। इसी दरम्यान देश आजाद हो गया। नीरज को सरकारी नौकरी मिल गयी। मगर वो हैरान थे 

सरकारी महकमों में भ्रष्टाचार देखकर। आखिरकार 1956 में उन्होंने ये नौकरी भी छोड़ दी। कानपुर में बिताए दिन नीरज की जिन्दगी का शानदार दौर है। कानपुर की याद में उन्होंने लिखा-

कानपुर आह ----- आज तेरी याद आई

कुछ और मेरी रात हुई जाती है

आंख पहले भी बहुत रोई थी तेरे लिए

अब लगता है कि बरसात हुई जाती है

कानपुर आज देखे जो तू अपने बेटे को

अपने नीरज की जगह लाश उसकी पाएगा

सस्ता इतना यहां मैंने खुद को बेचा है

मुझको मुफलिस भी खरीदे तो सहम जाएगा। 

नीरज के गीत इन दिनों पूरे देश में लोगों पर जादू कर रहे थे पर उनकी आमदनी से किसी तरह परिवार का पेट पल रहा था। पैसे की तंगी से जूझते 1954 में उन्होंने अपना कोहिनूर गीत रचा। यह गीत उन्होंने रेडियो पर सुनाया था। यह गीत था-कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे----इस गीत ने धूम मचा दी। गली-गली में यह लोगों की जुबान पर था। गीत फिल्म निर्माता चंद्रशेखर को ऐसा भाया कि उन्होंने इसे केन्द्र में रखकर फिल्म नई उमर की नई फसल बना ली। फिल्म के बाकी गीत भी नीरज की कलम से ही निकले थे। 

सारे के सारे हिट और दिल को छू लेने वाले। इसी गीत ने उनकी नौकरी भी अलीगढ़ कॉलेज में लगाई। तभी से नीरज अलीगढ़ के और अलीगढ़ उनका हो गया। आलम यह था कि नीरज को फिल्मी दुनिया से बार-बार बुलावा आने लगा। नीरज मायानगरी की चकाचौंध से दूर रहना चाहते थे, लेकिन मुम्बई उनके लिए पलकें बिछाए थी। मायानगरी में करोड़ों लोग कामयाबी का सपना पालते हैं और सारी उमर संघर्ष करते रहते हैं। वास्तव में फिल्मी दुनिया के लोगों से नीरज का वास्ता तो उन्नीस सौ तिरपन में ही हो गया था। राजकपूर के पिता मुगलेआजम पृथ्वीराज कपूर अपनी नाटक कम्पनी के साथ कानपुर आये थे। नीरज के नाम से तब भी लोग कवि सम्मेलनों में उमड़ते थे। पृथ्वीराज कपूर ने तीन घंटे नीरज को सुना और फिल्मों में आने की दावत दी। नीरज ने उसे हंसी में उड़ा दिया। उन दिनों वो बुलंदियों पर थे। फिल्मों-इल्मों पर क्या ध्यान देते। मगर इन्हीं दिनों वो देवानंद से टकरा गये। दो सदाबहार हीरो एक-दूसरे के मुरीद हो गये और दोस्ती हुई तो देव साहब की दुनिया से विदायी के बाद ही टूटी। 

फिल्म निर्माता देवानंद कहते तो नीरज एक बार नहीं सौ बार मना कर देते लेकिन देवानंद को दोस्तों के दोस्त नीरज कैसे मना करते? न न करते भी देवानंद ने प्रेमपुजारी के गीत लिखवा लिए। एक के बाद एक सुपर हिट गीतों की नीरज ने झड़ी लगा दी। वो दौर बेहतरीन प्रेम कहानियों का था। गीत नायाब, फिल्में शानदार और नीरज की बहार। प्रेम गीतों का अद्भुत संसार। 

उनके कुछ गीत ---

आज की रात बड़ी शोख बड़ी नटखट है----। लिखे जो खत तुझे, वो तेरी याद मेें हजारों रंग के नजारे बन गए---। फूलों के रंग से, दिल की कलम से---। शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब---। आज मदहोश हुआ जाए रे----। खिलते हैं गुल यहां --- इत्यादि। 

दरअसल प्रेम और  शृंगार गीतों ने नीरज की पहचान एक ऐसे गीतकार की बनाई है, जिससे वो आज तक मुक्त नहीं हो पाये हैं। इस­ कारण उनके जीवन दर्शन और उनके भीतर छिपे यायावर को लोग नहीं समझ पाये। जिन्दगी की कठिन सच्चाई और नीरज के आसान शब्द। एक गीत है - बस यही अपराध मैं हर बार करता हूं, आदमी हूं आदमी से प्यार करता हूं--- और ए भाई जरा देख के चलो---

दरअसल, राजकपूर तो इस गीत को लेकर उलझन में थे-आखिर यह कैसा गीत है। इसकी धुन कैसे बनाई जाए? नीरज ने मुुश्किल आसान कर दी। लेकिन बदलते जमाने पर आखिर किसका जोर है? छह-सात साल नीरज मायानगरी में रहे, मगर दिल तो अलीगढ़ में ही छोड़ गये थे, वहीं अटका रहा। अपने शहर की तड़प और बढ़ गई, जब फिल्म निर्माता गीतों में धुन के मुताबिक तब्दीली पर जोर देने लगे। नीरज का मन कहता-छोड़ो क्या धरा है मुम्बई में। एक दिन तो राजकपूर को खरी-खरी सुना दी। उनसे कहा भाई देखो! फिल्म इंडस्ट्री को चाहिए बिना पढ़े-लिखे लोग। मैं उनके इशारों पर थोड़े ही गीत लिखने आया हूं। इसी बीच उनके साथी भी एक-एक कर साथ छोड़ने लगे। रोशन गए, एस-डी- वर्मन गए। फिर शंकर-जयकिशन की जोड़ी टूट गई तो 1973 में नीरज ने मायानगरी को अलविदा कह दिया। 

बोरिया-बिस्तर समेटा और अलीगढ़ लौट आए। आप कह सकते हैं कि नीरज वो गीतकार थे जिन्हें मायानगरी ने बड़े अदब से बुलाया था और मोह भंग हुआ तो उसे ठुकरा कर चले आये। उसके बाद देवानंद ने बहुत जिद की तो उनकी आखिरी फिल्म चार्जशीट के लिए एक खूबसूरत गीत रचा। देवानंद तो चले गये मगर नीरज के दिल में देवानंद आखिरी सांस तक धड़कता रहा। माया बहुत लोगों को लुभाती है, लेकिन नीरज वो हैं जो मायानगरी की माया से कोसों दूर रहे। 

उनके गीत बदलते दौर का दस्तावेज हैं और उनके गीत इसका सबूत। एक दौर ऐसा भी आया था जब हर शहर में महिलाएं, लड़कियां और सुन्दरियां उनके पीछे पड़ जाती थीं। नीरज के लिए उनसे पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जाता था। एक बार तो एक महिला ने उन्हें इतने प्रेमपत्र लिखे कि उन पर बाद में एक संकलन प्रकाशित हो गया।

लेकिन 75 साल के सफर में पैंसठ साल तक नीरज ने जो काव्य साधना की उसके बारे में लोग न के बराबर ही जानते हैं। दरअसल, नीरज के गीतों में व्यवस्था के प्रति विद्रोह, इंसानियत का पाठ, जीवन दर्शन, आध्यात्मिक सोच और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों का जो असर है, उसके मुकाबले प्रेम गीत तो एक फीसदी नहीं है। खुद नीरज भी यही मानते थे। 

आजादी से पहले जब अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ कोई जुबान नहीं खोल सकता था तो नीरज ने विद्रोह गीत गाकर खलबली मचा दी थी। देश आजाद हुआ तो भ्रष्टाचार के मुद्दे पर नौकरी को लात मार दी। सांस्कृतिक, राजनीतिक और सामाजिक मूल्यों में गिरावट पर उनकी कलम खूब चली। देश-सेवा के नाम पर राजनीति करने वालों की उन्होंने जमकर खबर ली। 

आखिरी दिनों में देह तो थकने लगी थी। मगर दिल और दिमाग उतना ही सक्रिय था। वक्त पर उठते थे, सूरज को सलाम करते थे। वाकर के सहारे चलकर आते। बरामदे में पहली चाय होती फिर खत पढ़ने का सिलसिला। तब तक कुछ दोस्त दीवाने आते। दुनिया जहान की बातें होतीं। अब तक के सफर से वह पूरी तरह संतुष्ट थे। 

सदी के इस मुसाफिर को अपने सफरनामे पर कोई खास अफसोस नहीं रहा। न उनको दौलत की चाह थी न शोहरत की चाह, चाह थी तो एक इंसानियत की। धूप चढ़ते ही नीरज को चिट्ठियों के उत्तर भी देने होते थे। हर खत का जवाब देना मुमकिन नहीं। फिर भी सिंगसिंग से उत्तर लिखवाते थे। कभी-कभी खुद भी लिखने बैठ जाते। 

रात देर तक वो हमसे बतियाते रहे थे। कुछ मित्र अनेक दशकों से रोज शाम को आते थे। रम और रमी की महफिल जमती थी। उस दिन भी जमी थी। रात घनी होती गई। दोस्तों की महफिल बर्खास्त हो चुकी है। मैं भी उन्हें सोने देना चाहता था। 

आवाज मद्धम पड़ती जा रही थी। गीतों का सम्राट सो चुका है। मैं लाश की तरह देह को अपने पर लादे चल पड़ता हूं। चला था - मृत्युगीत सुनने। उस दिन से रोज रात बिस्तर पर ये गीत मुझे झंझोड़ देता है-सोता हूं, जागता हूं, रोता हूं, सुबह हो जाती है। रात चली जाती है। मृत्युगीत मेरी देह से, मेरी आत्मा से चिपक गया है। मृत्युगीत अमर है। जिन्दगी का सच है। नीरज की देह आजू नहीं है, मगर नीरज हमेशा जिन्दा रहेंगे।  





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