किसानों की आय सुनिश्चित हो

2018-09-01 0

ऐसे में जब विश्व व्यापार संगठन भारत पर दबाव बना रहा है कि खाद्यान्नों के सार्वजनिक भंडारण की एक सीमा तय की जाए, किसानों को  ऊंचे एमएसपी देने का वादा ज्यादा दिन टिकने वाला नहीं है। व्यावहारिक उपयोगिता न होने से यह वादा खोखला साबित होगा। 

बढ़े हुए एमएसपी का ऐलान एकदम सही समय पर किया गया लगता है । आम चुनाव से लगभग एक साल पहले 14 खरीफ फसलों के बढ़े हुए न्यूनतम समर्थन मूल्य का ऐलान एक किस्म का चुनावी बिगुल है। अब एक तरफ जहां यह बहस चलती रहेगी कि क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 के चुनाव प्रचार के दौरान किसानों से किया अपना वादा निभाया या नहीं, दूसरी तरफ सत्तारूढ़ बीजेपी हर मंच से इस ऐलान को भुनाने की कोशिश करती रहेगी। कुछ साल पहले इसी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के सामने स्वामीनाथन आयोग की सी2 लागत पर 50 पर्सेंट लाभ देने की सिफारिश को यह कहते हुए नामंजूर कर दिया था कि यह मुमकिन नहीं है और ऐसा करने से बाजार उथल-पुथल हो जाएगा। 

लेकिन अब सरकार को अहसास हुआ है कि एमएसपी बढ़ाने से इनकार करना एक तरह से राजनीतिक कुशी साबित होगी। सरकार के रुख में यह बदलाव किसानों के लिए फायदेमंद साबित हुआ है। यह बात और है कि सरकार ने एमएसपी में जितनी बढ़ोत्तरी का ऐलान किया है वह किसानों की मांग से काफी कम है। लेकिन फिर भी यह सही दिशा में उठाया गया कदम है। पर यह कदम सार्थक साबित हो इसके लिए जरूरी है कि सरकार सभी फसलों की सरकारी खरीद के लिए आवश्यक तंत्र की स्थापना करे। अफसोस है कि फिलहाल ऐसा होता नहीं दिखाई दे रहा है। इसके अलावा इस बढ़ोतरी में ऐतिहासिक जैसा कुछ भी नहीं है क्योंकि अतीत में कुछ  कृषि उत्पादों के एमएसपी में इससे ज्यादा वृद्धि हुई है। सरकार किसानों को लागत मूल्य पर 50 पर्सेंट मुनाफा देने का वादा पूरा करने पर अपनी ही पीठ जमकर थपथपा रही है लेकिन असलियत यह है कि सरकार ने लागत की गणना करने वाले सूत्र में ही हेरफर कर दी है। सरकार ने मूल्य 

निर्धारित करने वाले मानकों में बदलाव करके किसान की लागत में ही कमी दिखाई है। सी2 के आंकलन में पूंजी निवेश पर ब्याज और जमीन का किराया भी जोड़ा जाता है। लेकिन सरकार ने लागत के आंकलन में कमी लाने के लिए केवल ए2 और ए2$एफएल को जोड़ा है। ए2 लागत में किसानों के फसल उत्पादन में किए गए सभी तरह के नकदी खर्च शामिल होते हैं। इसमें बीज, खाद, केमिकल, मजदूर लागत, ईंधन लागत, सिंचाई आदि लागतें शामिल होती हैं। ए2$एफएल लागत में नकदी लागत के साथ ही परिवार के सदस्यों की मेहनत की अनुमानित लागत को भी जोड़ा जाता है। इसका मतलब है कि सरकार ने सी2 लागत पर 50 पर्सेंट मुनाफा न देकर केवल ए2$एफएल पर 50 पर्सेंट लाभ दिया है। दूसरे शब्दों में पुल ढांचा बनाने की जगह सरकार ने नदी का स्तर ही नीचा कर दिया। धान का उदाहरण लीजिए। सामान्य श्रेणी के धान का मूल्य पिछले साल 1,550 रुपए प्रति क्विंटल था इस साल इसे 200 रुपए बढ़ाकर 1,750 रुपए प्रति क्विंटल कर दिया गया कृषि मूल्य एवं लागत आयोग (सीएसीपी) ने ए2$एफएल की गणना 1,166 रुपए प्रति क्विंटल की थी इस लिहाज से यह बढ़ोतरी ए2$एफएल पर 50 पर्सेंट मुनाफा है। पर किसानों की मांग यह नहीं थी, वे तो स्वामिनाथन कमिशन की सिफारिशों के आधार पर सी2 लागत पर 50 पर्सेंट मुनाफे की मांग कर रहे थे। सीएसीपी ने प्रति क्विंटल सी2 लागत की गणना 1,560 रुपए की थी इस पर 50 पर्सेंट मुनाफे का मतलब है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य 2,340 रुपए प्रति क्विंटल होना चाहिए था। इसी तरह, मक्का के लिए ए2$एफएल की गणना 1,131 रुपये प्रति क्विंटल पर की गई है। इस पर 50 पर्सेंट लाभकारी एमएसपी 1,700 रुपए प्रति क्विंटल तय किया गया। लेकिन मक्के की सी2 लागत 1,480 रुपए प्रति क्विंटल है, स्वामिनाथन आयोग के हिसाब से मक्के की एमएसपी 2,240 रुपए प्रति क्विंटल होनी चाहिए थी। इसका मतलब है कि मक्का किसानों को 540 रुपए प्रति क्विंटल का नुकसान हुआ। लेकिन नीति आयोग ने लागत तय करने के नए तरीके की यह कह कर वकालत की है कि देश भर में जमीन की कीमत अलग-अलग है इसलिए इसे किसान की लागत में जोड़ना अव्यावहारिक होता। लेकिन इस तर्क को स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि खेती की लागत में शामिल दूसरे कारक भी देश भर में समान नहीं हैं जब उनकी गणना हो सकती है तो जमीन की कीमत का औसत निकाल कर उसे भी सी2 लागत में जोड़ा जा सकता था। मेरी समझ से बाहर है कि सीएसीपी ने जो सी2 लागत निकाली है उसे मानने में नीति आयोग को क्या समस्या हो सकती है। खेती को देश की अर्थव्यवस्था पर बोझ माना जाता है इसीलिए पिछले कुछ दशकों से जानबूझकर इसे इसके अधिकारों से वंचित रखा गया है। इसके पीछे यह विचार है कि किसानों को खेती से बेदखल कर उनका शहरों की ओर पलायन कराया जाए जहां सस्ते श्रम की जरूरत है। इसके अलावा, आम धारणा यह है कि किसानों को ज्यादा कीमतें देने से खाने-पीने की चीजें महंगी हो जाएंगी, इससे आर्थिक विकास दर में गिरावट आएगी और दूसरी तरफ देश का उपभोक्ता वर्ग नाराज होकर विरोध करने लगेगा। कुल मिला कर शहरी उपभोक्ताओं को खुश करने का पूरा बोझ बड़ी सुगमता से किसानों के ऊपर डाल दिया जाता है। 



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