महिलाएं कभी आजादी के लिए आवाज उठा पाएंगी ?

2018-09-01 0

भारत आजादी की 72वीं सालगिरह मना रहा है। यूं तो सृष्टि के विशाल इतिहास में 72 साल वक्त की आंऽ से छलके एक आंसू जितना छोटा अरसा है, लेकिन फिर भी बाहर गिरती बारिश में डूबते मेरे मन में एक सवाल उठा- 72 साल के इस युवा आजाद देश में आिऽर कितनी आजाद हैं हम महिलाएं?

आजाद भारत में बड़ी हुई एक भारतीय लड़की होने की वजह से इस सवाल के जवाब का एक स्वरूप मैं अपने दिल में जानती हूं और हर रोज सड़कों पर चलते हुए महसूस भी करती हूं। लेकिन फिर भी इस सवाल के ताजा आकड़ों से लेकर इतिहास के पन्नों में दर्ज जवाबों को टटोलने के लिए मैंने इंटरनेट और किताबों को ऽंगालना शुरू किया।

जानना यह था कि जिस आधी आबादी का आवाहन महात्मा गाँधी ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारत की अप्रयुत्तफ़ शत्तिफ़ के तौर पर किया था, क्या आज उस आधी आबादी को अपनी क्षमताओं का पूरा दोहन करने का अवसर मिल रहा है?

समाज और कई बार अपनी ही संविधान सभा के सदस्यों से लड़कर भारत के जिस संविधान में बाबा साहब अम्बेडकर ने हमारे आजाद और स्वावलंबी भविष्य के बीज बोये थे, आज वह कानून हमें हमारे जीवन पर कितना अधिकार दिला पाते हैं?

सिर्फ दो प्रतिशत महिलाओं के साथ शुरू हुई भारत की पहली संसद की यात्र आज कितनी आगे पहुंची है? इन सवालों के जवाब में मुझे मिला आंकड़ों का एक पुलिंदा और इस देश में स्त्री सशत्तफ़ीकरण के लिए समय-समय पर बनाए कानूनों की एक लम्बी फेहरिस्त। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण जानकारियों को मैं आपके साथ आगे साझा भी करूंगी।

हसरतों की उड़ान

कल्पना (काल्पनिक नाम) मध्यप्रदेश के बेतूल या महाराष्ट्र के बीड जिले में या कहीं और रहने वाली कोई भी लड़की हो सकती है। ठीक इसी तरह वह मुंबई और दिल्ली जैसे भारत के महानगरों में बसने वाली कोई लड़की भी हो सकती है। 

कल्पना अपनी आँऽों में सपने लिए हर रोज अपने गांव या शहर की सड़कों पर निकलना चाहती है। वह पढ़ने जाना चाहती है। कभी ऽेतों तो कभी फैक्ट्रियों में काम करने जाना चाहती है। अपने काम में वह एक पद के लिए सामान वेतन चाहती है।

वह शारीरिक पोषण और मानसिक विकास के समान अवसर चाहती है। दिल होने पर बेऽौफ होकर गहरे गले का ब्लाउज पहनना चाहती है। वह प्रेम का निवेदन पहले करना चाहती है। कल्पना की आत्मा जब उसके दिल और मर्जी की थाप पर एक साथ गुनगुनाती है, तब वह निर्भय होकर शारीरिक प्रेम करना चाहती है। उसे देवी और स्त्री की गरिमा के नाम पर अपने ऊपर थोपे गए समाज के तमाम नैतिक निर्णयों पर कभी हंसी आती है तो कभी गुस्सा।

स्त्री की गरिमा किसी दूसरे मनुष्य की मानवीय गरिमा से अलग कैसे? जाति और धर्म के सम्मान के नाम पर मारे जा रहे प्रेमियों के युग में कल्पना अपनी मर्जी से अपना साथी चुनने का अधिकार भी चाहती है। दिल चाहे तो वह बुर्का पहनना चाहती है और मन करे तो बिकनी भी। उसकी मर्जी हो तब लाल लिपस्टिक लगाने का अधिकार चाहती है और मर्जी हो तो बिना मेकअप फिरने का हक शादी करने न करने के साथ-साथ बच्चे पैदा करने और माँ न बनने में से अपने लिए ऽुद चुनने का अधिकार। किसी भी तरह की हिंसा के खिलाफ उठ ऽड़े होने का अधिकार। उसे अपने लिए चुनने का अधिकार चाहिए।

आजादी और आंकड़े

आज जहां देश के लगभग 85 प्रतिशत पुरुष शिक्षित हैं, वहीं 65 प्रतिशत लड़कियां ही साक्षर हो पाई हैं। यह बात और है कि एक अदद मौका मिलने पर लड़कियां हर तरह की राष्ट्रीय प्रतियोगी परीक्षाओं में लगातार अपना परचम लहरा कर ऽुद को साबित कर रही हैं। शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधा से वंचित होना देश की हजारों लड़कियों के लिए बहुत दुखद है। 

भारतीय रोजगार के बाजार में औरतों की सिर्फ 25 प्रतिशत हिस्सेदारी भी ऊपर लिऽे आंकड़ों का प्रतिबिम्ब जान पड़ती है। एक रिपोर्ट का दावा है कि महिलाओं की रोजगार में हिस्सेदारी सिर्फ 10 फीसदी बढ़ाने से भारत के सकल घरेलू उत्पाद या जीडीपी में 70 प्रतिशत का उछाल आ सकता है।

अपने शहर के मुख्य चौराहे पर लहरा रहे तिरंगे को देऽते हुए आज कल्पना इन्ही आकंड़ों के बारे में सोच रही है। उसे लगता है कि आजादी के 71 सालों में वह शायद इतना ही आगे बढ़ पाई है। जितना कोई और 78 दिनों या 78 महीनों में बढ़ सकता है। उसे अभी बहुत आगे जाना है। एक ऐसे भारत में अपनी आंऽें ऽोलनी हैं जहां वह निडर होकर जी सके। 




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