असत्य पर सत्य की जीत का प्रतीक है विजय दशमी

2018-10-02 0

आश्विन मास के शुक्ल पक्ष को मनाये जाने वाले दशहरा पर्व को मां भगवती के विजया स्वरूप के कारण विजयादशमी भी कहा जाता है। मान्यता है कि इसी दिन भगवान श्रीराम ने रावण का वध कर लंका पर विजय प्राप्त की थी इसलिए भी इस पर्व को विजयादशमी कहा जाता है। हिन्दुओं का यह प्रमुख  त्योहार असत्य पर सत्य की जीत तथा बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में भी मनाया जाता है। कहा जाता है कि इस दिन ग्रह-नक्षत्रें की संयोग ऐसे होते हैं जिससे किये जाने वाले काम में विजय निश्चित होती है। भारतीय इतिहास में ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जब हिन्दू राजा इस दिन विजय के लिए प्रस्थान किया करते थे। मराठा रत्न शिवाजी ने भी औरंगजेब के विरुद्ध इसी दिन प्रस्थान करके हिन्दू धर्म का रक्षण किया था।

हिन्दुओं का प्रमुख  त्योहार दशहरा असत्य पर सत्य की जीत तथा बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में मनाया जाता है। इस पर्व की धूम नवरात्र के शुरू होने के साथ ही शुरू हो जाती है और इन नौ दिनों में विभिन्न जगहों पर रामलीलाओं का मंचन किया जाता है। दसवें दिन भव्य झाकियों और मेलों के आयोजन के बाद रावण के पुतले का दहन कर बुराई के खात्मे का संदेश दिया जाता है। माना जाता है कि भगवान राम ने इसी दिन रावण का वध किया था। रावण के पुतले के साथ मेघनाथ और कुम्भकरण के पुतले का भी दहन किया जाता है। उत्तर भारत में जहां भव्य मेलों के दौरान रावण का पुलना दहन कर हर्षाेल्लास मनाया जाता है वहीं दक्षिण भारत में कुछ जगहों पर रावण की पूजा भी की जाती है।

दशहरा को विजयादशमी भी कहा जाता है। यह वर्ष की तीन अत्यन्त शुभ तिथियों में से एक है। अन्य दो हैं चैत्र शुक्ल की एवं कार्तिक शुक्ल की प्रतिपदा। इसी दिन लोग नया कार्य प्रारम्भ करते हैं और शस्त्र-पूजा की जाती है। प्राचीन काल में राजा लोग इस दिन विजय की प्रार्थना कर रण-यात्र के लिए प्रस्थान करते थे। इस पर्व का सांस्कृतिक पहलू भी है। भारत कृषि प्रधान देश है। जब किसान अपने खेत में सुनहरी फसल उगाकर अनाज रूपी संपत्ति घर लाता है तो उसके उल्लास और उमंग की सीमा नहीं रहती और इस प्रसन्नता के अवसर पर वह भगवान की कृपा को मानता है और उसे प्रकट करने के लिए वह उसका पूजन करता है। दशहरा पर्व के दिन मान्यता है कि तारा उदय होने के साथ ‘विजय’ नामक काल होता है। यह काल सर्वकार्य सिद्धिदायक होता है। भगवान श्रीराम ने इसी विजय काल में लंका पर चढ़ाई करके रावण को परास्त किया था।पुराणों में कहा गया है कि दशहरा का पर्व दस प्रकार के पापों काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्-प्रेरणा प्रदान करता है।

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एक बार माता पार्वती जी ने भगवान शिवजी से दशहरे के त्योहार के फल के बारे में पूछा। शिवजी ने उत्तर दिया कि आश्विन शुक्ल दशमी को सायंकाल में तारा उदय होने के समय विजय नामक काल होता है जो सब इच्छाओं को पूर्ण करने वाला होता है। इस दिन यदि श्रवण नक्षत्र का योग हो तो और भी शुभ है। भगवान श्रीराम ने इसी विजय काल में लंका पर चढ़ाई करके रावण को परास्त किया था। इसी काल में शमी वृक्ष ने अर्जुन का गांडीव नामक धनुष धारण किया था।

एक बार युधिष्ठिर के पूछने पर भगवान श्रीकृष्णजी ने उन्हें बताया कि विजयादशमी के दिन राजा को स्वयं अलंकृत होकर अपने दासों और हाथी-घोड़ों को सजाना चाहिए। उस दिन अपने पुरोहित को साथ लेकर पूर्व दिशा में प्रस्थान करके दूसरे राजा की सीमा में प्रवेश करना चाहिए तथा वहां वास्तु पूजा करके अष्ट दिग्पालों तथा पार्थ देवता की वैदिक मंत्रें से पूजा करनी चाहिए। शत्रु की मूर्ति अथवा पुतला बनाकर उसकी छाती में बाण मारना चाहिए तथा पुरोहित वेद मंत्रें का उच्चारण करें। ब्राह्मणों की पूजा करके हाथी, घोड़ा, अस्त्र, शस्त्र का निरीक्षण करना चाहिए। जो राजा इस विधि से विजय प्राप्त करता है वह सदा अपने शत्रु पर विजय प्राप्त करता है।

विजयदशमी को रावण दहन कर हर साल हम यह दावा करते  हैं कि असत्य पर सत्य की जीत हुई, अच्छाई पर बुराई की विजय हुई। रावण दहन कर यह मान लेते हैं कि सत्य जीत चुका है और बुराई पर अच्छाई की विजय हो गई है। लेकिन क्या केवल रावण दहन से ही असत्य पर सत्य की जीत संभव है? क्या इसी से बुराई पर अच्छाई की जीत हो जाती है? राम के वचनों को हम ग्रहण नहीं करना चाहते, हम स्वयं बुराई के सागर में डूबे हुए हैं। असत्य की जय-जयकार कर रहे हैं। फिर सिर्फ प्रतीकों का इस्तेमाल कर हर साल एक कर्मकांड निभाकर सत्य को कैसे प्राप्त कर सकते हैं?

रावण रथी था, राम विरथी थे। विभीषण के मन में भी सवाल उठे कि विरथी एक रथी से कैसे जीत सकता है? लेकिन विभीषण के प्रश्न और राम के उत्तर को हम ग्रहण नहीं करना चाहते। आज हर तरफ भ्रष्टाचार का बोलबाला है, जो भ्रष्ट आचरण से धनी हो गए हैं, उन्हें ही हमने रथी मान लिया है। येन-केन-प्रकारेण अपने स्वार्थ की सिद्धि ही हमारी सफलता का मापदंड बन चुकी है। हम परमार्थ भी स्वार्थ के लिए करते हैं। लोगों के अधिकारों को दबा कर किसी तरह सफल होने को ही अंतिम लक्ष्य मान लिया गया है। परमार्थ के बारे में हम सोचना भी नहीं चाहते। जब स्वार्थ ही हमारे जीवन का प्रथम लक्ष्य हो गया है तो फिर कैसा परमार्थ, कैसी समाज सेवा!जो लोगों का धन लूट कर प्रथम पंत्तिफ़ में खड़े हो गए हैं, वही हमारे नायक हैं। अनैतिक आचरण अपना कर भी जो सफल हो गए है, वे ही प्रेरणा का स्रोत हैं। कुछ लोग धन एकत्र कर अपनी सात पीढ़ियों के लिए निश्चिंत हो जाना चाहते है। यह अलग बात है कि हमें अगले पल के बारे में ही कुछ पता नहीं। समय के रथ के पहिये के नीचे जो दब गए, उनकी ओर हम देऽना तक नहीं चाहते। जो रथी है सर्वसाधन संपन्न है, उसी की जय-जयकार हो रही है। जो लोग साल के तीन सौ चौंसठ दिन अपने इर्द-गिर्द बैठे रावणों की जय-जयकार करते हैं, वे एक दिन रावण को जला कर असत्य पर सत्य की जीत की डींगें हांकते है।

यदि हमारे आदर्श राम हैं तो वह कभी रथी नहीं हुए। उन्होंने आदिवासियों की सेवा को अपना प्रथम लक्ष्य माना। वे भीलनी शबरी से कहते है कि वह सिर्फ प्रेम का नाता मानते हैं। पिता का इशारा भर पाकर वह राहगीर की तरह राज्य को त्याग कर वन को चल देते हैं। युद्ध के मैदान में विभीषण के मन में सवाल उठा था कि रावण तो रथ पर सवार हैं फिर राम उससे कैसे जीतेंगे- ‘नाथ न रथ नहिं तन पद त्रना। केहि बिधि जितब बीर बलवाना।।’ हे प्रभु, रावण रथ पर सवार हैं और आप विरथी हैं। आपके पैरों में पादुकाएं तक नहीं हैं। साधन की दृष्टि से संपन्न इस बलवान से आप जीतेंगे तो कैसे? राम ने विभीषण को जो उत्तर दिया था, वह धर्म का सार तत्व है। वह जीवन मूल्यों व मर्यादाओं का गौरी शंकर शिखर है।

सुनहु सखा  कह कृपानिधाना। जेहि जय होइ सो स्यंदन आना।। सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका।।’ अर्थात ‘हे मित्र, धन और ऐश्वर्य के संसाधनों से बनाया गया रथ विजय नहीं दिला सकता। अजेय रथ तो नैतिक मूल्यों, मर्यादाओं, शुद्ध व सात्विक आचरण से बनता है। शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिये हैं, सत्य और सदाचार इस रथ की मजबूत ध्वजा और पताका हैं। बल, विवेक, दम और परोपकार ये चार इस अजेय रथ के घोड़े हैं। क्षमा, जीवों के प्रति दया और पूरे समाज को समान दृष्टि से देऽने की डोरी इस रथ को घोड़ों से जोड़े हुए है। ईश्वर का भजन ही इस रथ का चतुर सारथी है।

वैराग्य ढाल है, संतोष तलवार है, गरीबों को दान देना ही फरसा है, पाप रहित और स्थिर मन तरकश के समान है। बुद्धि प्रचंड शत्तिफ़ है और श्रेष्ठ विज्ञान ही धनुष है। अहिंसा और मन का वश में होना जैसे बहुत से बाण हैं। विद्वानों और गुरु की पूजा ही अभेद्य कवच है।’ ‘सखा  धर्ममर्य अस रथ जाकें। जीतन कहं न कतहुं रिपु ताकें।’ ऐसा धर्ममय रथ जिसके पास है उसे दुनिया में कोई जीत नहीं सकता।

वास्तव में इस रथ पर सवार व्यत्तिफ़ ही अजेय है। अंग्रेज तो रथी थे पर महात्मा गांधी विरथी। मगर अहिंसा और सत्याग्रह के अजेय रथ पर सवार होकर गांधी जी ने अंग्रेजों को भारत से भगा दिया था। जो आचरण और पवित्र नैतिक मूल्यों पर सवार हो गया, वह चाटुकारिता नहीं कर सकता। वह बादशाहों के सामने रिरियाता नहीं। भ्रष्टाचार के बल पर अपने महल नहीं ऽड़े करता। वह नचिकेता की तरह अपने पिता से भी यह सवाल करता है कि आपको दान में देने के लिए बूढ़ी और मरियल गाएं ही मिली थीं? कबीर की तरह सिकंदर लोदी और काशी के मठाधीशों के सामने सीना तानकर कह देता है कि ‘दुइ जगदीश कहां से आए?’ जो परमार्थ में डूबा हुआ है, स्वार्थ में नहीं, वह विरथी होकर भी रथी है।

दुनिया में सत्य और न्याय की हरेक लड़ाई उसी ने जीती है जो विरथी रहा है। जब तक शुद्ध सात्विक आचरण, नैतिक मूल्यों, निश्छल जीवन की पूजा नहीं होगी, तब तक रावण वध नहीं हो सकता। सिर्फ किसी पुतले को आग लगा देने से हम असत्य पर सत्य की जीत कैसे मान लें। जो विरथी है, अंतिम विजय उसे ही मिलती है और मिलती रहेगी।

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