मौजूदा शिक्षा व्यवस्था का उचित पालन नए शिक्षा अभियान से ज्यादा जरूरी

2018-10-03 0

 देश स्वतंत्रता के 71 साल पूरे कर रहा है। आजादी के बाद शिक्षा को राष्ट्र-निर्माण के महत्वपूर्ण स्तम्भ के रूप में देखा  गया और सभी बच्चों को शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए विमर्श हुए। तमाम प्रयासों के बाद भी सभी बच्चे न तो स्कूली शिक्षा के दायरे में लाए जा सके और न ही स्कूली शिक्षा पूरी कर सके।

1964 में शिक्षा के लोकव्यापीकरण और गुणवत्ता में वृद्धि के लिए गठित कोठारी आयोग ने 1966 में जारी रिपोर्ट में स्कूली शिक्षा के अवसरों में समानता पर जोर दिया था और कॉमन स्कूल सिस्टम लागू करने की अनुशंसा की थी। साथ ही शिक्षा पर जीडीपी का 6 प्रतिशत खर्च करने की आवश्यकता पर जोर दिया था। दुर्भाग्य से देश न तो कभी अपने बच्चों की शिक्षा पर 6 प्रतिशत खर्च कर पाया और न ही शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध करा सका। 1993 में सुप्रीम कोर्ट ने ‘शिक्षा के अधिकार’ को जीवन के अधिकार के समतुल्य माना और 14 वर्ष की उम्र तक के बच्चों को राज्य द्वारा अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराने कामहत्वपूर्ण आदेश दिया।

सामाजिक संगठनों ने 1990 के दशक से ही 18 वर्ष तक की उम्र के बच्चों के लिए उच्च माध्यमिक शिक्षा को संविधान में मौलिक अधिकार देने की मांग की। मगर तब संसद में पेश विधेयक में केवल 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए (कक्षा एक से आठवीं तक) शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाए जाने का प्रावधान था। इस तरह 6 वर्ष से नीचे तथा 14 वर्ष से ऊपर के करोड़ों बच्चों को मौलिक अधिकार से वंचित कर दिया गया। यह अधिकार कानून के जरिये देश भर में लागू होना था।

शिक्षा का अधिकार’ कानून सदन के पटल पर लाने में 8 वर्ष लग गए। आखिरकार संसद के दोनों सदनों ने इसे 2009 में पारित किया और 1 अप्रैल 2010 से पूरे देश में लागू किया गया। इस कानून ने नई उम्मीदें तो पैदा कीं लेकिन, 8 साल बाद भी जमीनी हकीकत इस सपने से कोसों दूर है। सरकारी आंकड़े ही बताते हैं कि देश भर के 15 लाख  स्कूलों में से महज 12 प्रतिशत स्कूलों में ही यह कानून लागू हो पाया है। पिछले लोकसभा सत्र में शिक्षा मंत्री ने स्वीकार किया था कि कानून के मानदंडों के अनुरूप 9 लाख शिक्षकों की जगह खाली है। आरटीई फोरम की रिपोर्ट के अनुसार 8 प्रतिशत स्कूल एकल शिक्षक स्कूल हैं। सरकार के मुताबिक 60-6 लाख  बच्चे स्कूलों से बाहर हैं, 8-6 करोड़ बच्चे कभी स्कूल गए ही नहीं।

मौजूदा समय में सरकार शिक्षा पर जीडीपी का महज 3-5 प्रतिशत खर्च करती है, जिसमें 65 प्रतिशत हिस्सा शिक्षा उपकर (सेस) से आता है। हाल ही में सरकार ने दो बड़े कदम उठाए हैं। पहला, सरकार ने ‘नो डिटेंशन पॉलिसी’ वापस लेने व पुरानी परीक्षा नीति (फेल-पास) बहाल करने के लिए राज्य सरकारों को अधिकृत कर दिया है। इससे बच्चों में ड्रॉपऑउट, खास तौर पर लड़कियों के बड़े पैमाने पर स्कूल छोड़ देने की आशंका पैदा हो गई है। साथ ही, गरीब बच्चे शिक्षा जारी रखने के प्रति निरुत्साहित होंगे। दूसरा, सर्व शिक्षा अभियान और माध्यमिक शिक्षा अभियान को मिलाकर सरकार ने ‘समग्र शिक्षा अभियान’ नाम से नया कार्यक्रम लाने का निर्णय लिया है



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