गुरु पूर्णिमा क्यों होती है हमारे जीवन में एक अच्छे गुरु की आवश्यकता?

कबीर का एक पद है जिसमें उन्होंने गाया है कि अगर गुरु और ईश्वर
दोनों एक साथ सामने खड़े हों तो किसके पैर पहले छूना चाहिए। वे खुद ही सवाल करते
हैं और जवाब भी स्वयं ही देते हैं कि मैं तो गुरु के चरणों में ही प्रणाम करूंगा।
उन्हीं को महत्व दूंगा क्योंकि वे नहीं होते तो मुझे ईश्वर की पहचान कौन कराता?
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं
पांय।
बलिहारी गुरू आपने, गोविन्द दियो बताय।।
साधना के क्षेत्र में गुरु को भगवान से भी ऊंचा दर्जा दिया गया है, क्योंकि
उनके अनुग्रह के बिना ज्ञान प्राप्त नहीं होता। जीवन रहस्यों का उद्घाटन केवल गुरु
ही करने में सक्षम होते हैं। जिस प्रकार नेत्रहीन व्यत्तिफ़ को संसार का अनुपम
सौन्दर्य दिखाई नहीं दे सकता, उसी प्रकार जब तक गुरु हमें प्रकाश
नहीं देगा, उसका मार्गदर्शन हमें नहीं मिलेगा, तब तक आंखें रहते हुए भी हमें चारों ओर अंधकार ही नजर आएगा। हम सही रास्ते पर नहीं चल सकेंगे।
गुरु की महिमा के बारे में संत कबीर कहते हैं कि,
गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिलै न
मोक्ष।
गुरु बिन लखै न सत्य को, गुरु बिन मैटैं
न दोष।।
मनु (ब्रह्मा के मानस पुत्रें में से एक) ने गुरु को ही वास्तविक
अभिभावक बताया है। उनके हिसाब से विद्या माता के रूप में शिष्य को जन्म देती और
बड़ा करती है। गुरु उस विद्या से आगे शिष्य को जीने लायक और जीवन का परम लक्ष्य
प्राप्त करने लायक सामर्थ्य प्रदान करता है। लौकिक माता-पिता तो बच्चे को जन्म
देकर उसका पालन-पोषण ही करते हैं, जबकि उसके विकास में सहायता करने वाला, उसे
सन्मार्ग पर चलाने वाला गुरु ही होता है। वही मनुष्य का कल्याण कर उसके लिए
मुत्तिफ़ का द्वार खोलता है। मनु ने तो विद्या को माता तथा गुरु को पिता बताया है।
हमारे देश के तत्त्वदर्शी ऋषियों ने अपने अनुभवों तथा खोजबीन के आधार
पर यही निष्कर्ष निकाला है कि व्यत्तिफ़ केवल आर्थिक रूप से सुखी नहीं रह सकता।
उसके जीवन में श्रेष्ठ गुणों का समावेश होना अति-आवश्यक है। उसे इतना ज्ञान तो
होना ही चाहिए, जिससे वह इस बात को भलीभांति जान सके कि उसके जन्म और जीवन का
वास्तविक उद्देश्य क्या है? उसे जीवन में क्या करना है? जिस
प्रकार दीपक स्वयं जलकर दूसरों को प्रकाश देता है, उसी प्रकार
दूसरों के अन्दर के अज्ञान को दूर कर उसे ज्ञान का प्रकाश देना, उसके
सुख -दुख में भागीदारी, ‘जियो तथा जीने दो’ की भावना मनुष्य के
अंदर होनी चाहिए। यही मानवता भी है।
पशु-पक्षी आदि सभी अपने-अपने ढंग से जीवन जीते हैं, परन्तु विधाता ने मनुष्य को एक अनोऽी चीज दी है और वह है बुद्धि, सोचने-समझने की शत्तिफ़। ईश्वर ने उसे विलक्षण प्रतिभा संपन्न बनाया है। जो व्यत्तिफ़ स्वार्थ में लगे रहते हैं, उनका जीवन व्यर्थ ही समझना चाहिए। उन्हें ऊपर उठने के लिए किसी के सहारे की जरूरत होती है, जो उसका पथ प्रशस्त कर सके। यह कार्य गुरु के सिवा और कोई नहीं कर सकता। गुरु व्यास भी होता है क्योंकि वह हमें जीवन के उद्देश्य और उसकी अर्थवत्ता का बोध कराता है। इसलिए गुरु पूर्णिमा को ‘व्यास पूर्णिमा’ भी कहते हैं।
ग्रीष्म और पावस के मिले-जुले मौसम में आषाढ़ पूर्णिमा के चांद की किरणें अपने भीतर शांत और शीतल तत्वों का बोध कराती है। आदि शंकर के अनुसार इसीलिए गुरु पूर्णिमा स्तुत्य है। गुरु पूर्णिमा पर्व गुरु-शिष्य के पवित्र संबंधों को और दृढ़ करने का एक सुनहरा अवसर है। हमारी भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य के संबंध को दाता-भिखारी का न बनाकर सहयोगी-साझेदारी का बनाया है, जिसमें गुरु अपने स्नेह और तप से शिष्य के व्यत्तिफ़त्व का निर्माण कर उसे ऊँचा उठाता है। वे जिस पात्र को उपयुत्तफ़ समझते हैं, उसी को अपना शिष्य बनाते हैं। वे स्वयं तो श्रेष्ठ कार्य करते ही हैं, साथ ही साथ अपने शिष्यों को भी इसके लिए प्रेरित करते हैं, उनसे महान कार्य करवाते हैं। कबीर जी ने सत्य ही कहा है कि,
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता
जान।।
प्राचीन समय में आज की तरह स्कूल नहीं होते थे, बल्कि
गुरुकुल प्रणाली थी। उस समय बालकों के थोड़ा सीऽने-समझने लायक होने पर गुरु के
आश्रम में भेजा जाता था। शिक्षा पूरी होने तक उन्हें आश्रम में ही रहना होता था।
वहां बच्चे चिंतारहित होकर विद्याध्ययन करते थे। आश्रम का वातावरण उत्तम होने से
बच्चों के मस्तिष्क का स्वस्थ विकास होता था। गुरु शिष्यों को अपने बच्चों के समान
स्नेह देते थे। शिष्य भी गरु को पिता तथा गुरुपत्नी को माता का दर्जा देकर उनके
प्रति पूरी निष्ठा और श्रद्धा रऽते थे। विनम्रता और भावासित्तफ़ श्रद्धा उस पद्धति
का प्राण थी।
आध्यात्मिक क्षेत्र में गुरु से मिलने वाली विद्या और संस्कार का
महत्व और भी
असाधारण है। उसे एक जगह तो शिक्षक का दर्जा दिया गया है, दूसरे स्तर पर ब्रह्मा विष्णु महेश तीनों के समकक्ष बताया गया है। साधक की पात्रता और क्षमता के अनुसार गुरु का भी निर्धारण होता है। शास्त्रें के अनुसार साधक गुरु को नहीं चुनता बल्कि गुरु ही शिष्य को चुनता और उसका दायित्व उठाता है। वह सोये हुए को जगाता है, भटके हुए को राह दिऽाता है। मानवीय मूल्य का बोध भी वही कराता है। वास्तव में गुरु एक सिद्ध सत्ता है, जो अपने शिष्य को भी उसी मंजिल पर पहुंचाती है, जहां वह स्वयं स्थित है।