यूपी में डूबता मुलायम का समाजवाद !

प्रभुनाथ शुक्ल
लोहिया के समाजवाद को मुलायम सिंह यादव संजो नहीं पाए। दो साल पूर्व
सत्ता को लेकर परिवारवाद की जंग की वजह से सुलगता बारुद आखिर फट पड़ा और समाजवादी
पार्टी शिवपाल सिंह यादव के बगावती तेवर के बाद दो फाड़ हो गयी। हालांकि जिस तरह
पार्टी पर अधिकारवाद को लेकर लड़ाई चल रही थी उससे यह तस्वीर साफ थी कि विभाजन तो
तय हैं। मुलायम सिंह यादव ताल ठोंक कर खुद को लोहिया के समाजवाद का असली
उत्तराधिकारी मानते थे, लेकिन परिवारवाद की जंग में वह इस तरह झुलसे की खुद के अस्तित्व को
नहीं बचा पाए। हांलाकि कहा तो यह जाता है कि इस पूरे महाभारत के पीछे असली पटकथा
मुलायम सिंह यादव के हाथों लिखी गयी। फिलहाल पर्दे की बातें जो भी हों, लेकिन
परिवाद की खोल में छुपा समाजवाद ताश के पत्तों की तरह बिखर गया। मुलायम सिंह यादव
के सियासी लक्ष्मण शिवपाल सिंह यादव समाजवादी पार्टी को अलविदा कह समाजवादी
सेक्युलर मोर्चे का गठन कर लिया। लोकसभा चुनाव 2019 के पहले
समाजवादी पार्टी में पारिवारिक जंग की वजह से बिखराव अखिलेश यादव के लिए शुभ संकेत
नहीं है। एक तरफ वह राज्य से भाजपा का सूपड़ा साफ करने के लिए धुर विरोधी बसपा
सुप्रीमो और राजनीतिक बुआ मायावती से गठबंधन करने का एलान किया है। जबकि दूसरी तरफ
अपने परिवार को ही सांगठनिक तौर पर संगठित करने में नाकाम दिखते हैं। लोकसभा चुनाव
में सपा को इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। हालांकि शिवपाल सिंह यादव को भी
मुख्यधारा से अलग होकर बहुत कुछ हासिल होने वाला नहीं है।
राजनीतिक लिहाज से सबसे खास बात यह है कि शिवपाल सिंह यादव आखिर
समाजवादी पार्टी छोड़ कहां जाएंगे। वह समाजवादी सेक्युलर मोर्चे का गठन कर अखिलेश
की साइकिल का कितना नुकसान कर पाएंगे। क्या वह यादवों के सर्वमान्य नेता बन
पाएंगे। युवा वर्ग क्या शिवपाल सिंह
यादव की जमात में शामिल होगा। क्या अखिलेश के साथ जिस तादात में समाजवादी पार्टी के लाल ब्रिगेड हैं वह चाचा शिवपाल सिंह के साथ खड़ी होगी। उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य की सत्ता की बागडोर संभालने के बाद अखिलेश यादव का व्यत्तिफ़त्व एक नए अंदाज में निखरा है। लोग अखिलेश यादव और उनकी नीतियों के काफी प्रशंसक हैं। राज्य में अपराध का ग्राफ तेजी से बढ़ा था। बलात्कार की घटनाओं में बेतहासा वृद्धि हुई थी। हालांकि एक सफल सरकार चलाने में वह कामयाब मुख्यमंत्री साबित हुए। हालांकि समाजवादी पार्टी में बिखराव का यह सिलसिला तो राज्य विधानसभा चुनावों के पूर्व 2017 में ही शुरु हो गया था जब अखिलेश यादव ने सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए पिता मुलायम सिंह यादव के साथ चाचा शिवपाल सिंह यादव को पार्टी अधिवेशन में चार प्रस्तावों के जरिए बाहर का रास्ता दिखाया। पिता मुलायम सिंह यादव से उन्होंने राष्ट्रीय अध्यक्ष की कमान छीन लिया। उन्हें मार्गदर्शक बना दिया गया। मुंह बोले चाचा अमर सिंह को भी किनारे कर दिया। आज वहीं अमर सिंह भतीजे अिऽलेश को पानी पी-पी गालियां बक रहे हैं। कई टीवी साक्षात्कारों में अमर सिंह ने आजम खां और अिऽलेश को निशाने पर रखा है। उन्होंने यह भी कहा कि शिवपाल सिंह को भाजपा में लाने के लिए बात पक्की हो गई थी, लेकिन शिवपाल ही मुकर गए।
ये भी पढ़े:
मीडिया में अफवाहें है कि शिवपाल सिंह यादव भाजपा में शामिल होने जा
रहे हैं। पार्टी में उन्हें बड़ी जिम्मेदारी के साथ पद सौंपने की बात है। मीडिया
में इस तरह की ऽबरें भी हैं कि सारी स्थिति साफ हो गयी है। हांलाकि शिवपाल सिंह
यादव ने इस तरह की अटकलों से इनकार किया है। राजनीतिक रुप से अगर उन्हें अखिलेश
यादव और रामगोपाल से अपना हिसाब-किताब पूरा करना है तो इसके लिए उन्हें घातक फैसले
निश्चित तौर पर लेने पड़ेंगे। क्योंकि सिर्फ अपने सेक्युलर मोर्चे से वह 2019
में अिऽलेश यादव को अधिक नुकसान नहीं पहुंचा सकते हैं। क्योंकि भाजपा की यह रणनीति
भी होगी वह किसी तरह शिवपाल सिंह यादव को पार्टी में शामिल करने में सफल साबित हो।
क्योंकि वह अच्छी तरह जान रही है कि दलित एक्ट संशोधन के बाद यूपी में अगड़ी
जातियां भाजपा से बेहद नाराज हैं। संसद में दलित एक्ट में मोदी सरकार की तरफ से
लाया गया संशोधन अगड़ी जातियों को रास नहीं आ रहा है। दूसरी तरह भतीजे अखिलेश यादव
और बुआ मायावती की पार्टी सपा-बसपा एक साथ मंच पर आयीं तो निश्चित तौर पर भाजपा को
भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। क्योंकि इसका प्रयोग फूलपुर, कैराना के साथ
गोरखपुर में हो चुका है। भाजपा को यूपी फतह करने के लिए 50 फीसदी वोट का
लक्ष्य हासिल करना है जो कि वर्तमान राजनीतिक हालात में बेहद मुश्किल है। भाजपा उस
स्थिति में शिवपाल सिंह यादव के कंधे का बेहतर उपयोग कर जहां अखिलेश यादव पर
सियासी बढ़त का मनोवैज्ञानिक बढ़त बनाने का दावा कर सकती है। वहीं मायावती और भतीजेअखिलेश की सियासी दोस्ती को भी वह अपनी चालों से अपदस्थ करना चाहती हैं। शिवपाल के
माध्यम से यादवों के वोट बैंक में वह सेंधमारी करना चाहती है। हांलाकि इसका बहुत
बड़ा असर फिलहाल नहीं दिखता है। लेेकिन पारिवारिक फूट समाजवादी पार्टी को मुश्किल
में डाल सकती है।
उत्तर प्रदेश की राजनीति पूरी तरह जातिवादी व्यवस्था पर आधारित है।
राज्य में सपा और बसपा जातिवादी विचारधारा के मुख्यदल हैं। सपा यादवों और दूसरे
पिछड़ों का नेतृत्व करती है। जबकि बसपा दलितों का दल है। राज्य की अगड़ी जातियां जब
इन दलों के साथ आयी तो सत्ता की बागड़ोर सपा और बसपा के हाथ गयी, लेकिन
जब नाराज हुई तो दजोनों दल सत्ता से पैदल हो गए। जिसकी वजह है बदले राजनीतिक हालात
में 2019 में दोनों दल एक साथ आने का फैसला किया है। अब शिवपाल सिंह यादव
समाजवादी पार्टी या परिवारवाद की मुख्यधारा से निकल कर अपनी सियासी शतरंज में
कितना कामयाब होंगे यह तो वत्तफ़ बताएगा।
लेकिन समाजवादी पार्टी के लिए यह बिखराव राजनीतिक लिहाज से शुभ संकेत नहीं कहा जा सकता है। जबकि अखिलेश यादव अपनी सियासी रास्ते के सभी रोड़े को साफ करना चाहते हैं। फिलहाल लोहिया की विरासत पर अंतर्कलह पार्टी को कहां ले जाएगी यह वत्तफ़ बताएगा। हांलाकि यह भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है।