वोट किसी को भी दें, जवाबदेह सबको मानें

नैतिकता से रहित भारतीय राजनीति में हम थोड़ा बेहतर विकल्प चुनकर उस पर बाज की तरह निगाह रख सकते हैं
कहा जाता है कि जरूरत पड़ने पर आदमी, आदमी को भी खा जाता है। करुणा, मूल्य, सद्व्यवहार, नैतिकता, नीतिशास्त्र आदि की बातें सिर्फ समृद्धि के दिनों के लिए ही होती हैं। दर्जनभर समृद्ध लोगों को साथ लाइए और वे दूसरों की मदद करने तथा दुनिया को बेहतर जगह बनाने की बात करेंगे। उन्हीं दर्जनभर लोगों को एक हफ्रते भूखा भूखा और फिर उनमें से दो को पर्याप्त भोजन दीजिए। ये ही लोग अपने पेट भरने के लिए आपस में मृत्यु तक लड़ेंगे।
इस तरह संकट के समय में नीति-नियम कचरे की टोकरी में चले जाते हैं।
कर्नाटक विधानसभा चुनाव के मामले में यही स्थिति होती दिखा रही है। तीन मुख्य दलों
ने कुल 222 सीटों के लिए चुनाव लड़ा। उनमें से किसी को भी, न
भाजपा (104), कांग्रेस (78) और न जद-एस (38) को बहुमत मिला।
इसमें या किसी भी त्रिशंकु विधानसभा में सारे ही दलों से उचित व्यवहार के सारे
दावे नदारद हो जाते हैं। कुछ भी करके आपको अपने समर्थन में दूसरे दल से विधायक
जुटाने हैं। ऐसी पहली पहल कांग्रेस ने की और जद (एस) को मुख्यमंत्री पद की पेशकश
की। बावजूद इसके कि राज्य में जद (एस) उसका प्रतिद्वंद्वी दल है और उसने 20
फीसदी से कम सीटें जीती हैं। दोनों दलों में ऐसे नेता हैं, जिन्होंने पूर्व
में सार्वजनिक रूप से एक-दूसरे को कोसा है। अब वे बेस्ट फ्रेंड हैं। अवैध है?
नहीं।
अनैतिक? संभव है हां।
पीछे न रह जाए इसलिए भाजपा ने भी अपना ऽेल शुरू किया। केंद्र सरकार
से नियुत्तफ़ कठपुतली राज्यपाल ने भाजपा को कर्नाटक में सरकार बनाने को कहकर उसे
बहुमत सिद्ध करने के लिए 15 दिन दे दिए। बेशक, भाजपा
जद (एस) या कांग्रेस में सेंध लगाकर ही बहुमत तक पहुंचती। यह मंत्री पद या बाद में
लोकसभा चुनाव के टिकट जैसे प्रलोभनों से होता। अवैध? नहीं। अनैतिक,
संभवतः
हां। यह आरोप भी लगे कि भाजपा पैसा देकर
भी लुभा सकती है (जो साबित नहीं हो सके लेकिन, यदि सही है तो
नितांत अवैध भी होता)।
कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट में चली गई, जिसने एक दिन
में बहुमत सिद्ध करने को कहा। भाजपा आंकड़े जुटा नहीं सकी। हाल ही में शपथ लेने
वाले मुख्यमंत्री ने इस्तीफा दे दिया। अब
कांग्रेस-जद (एस) राज्य में सरकार बनाएंगे। इसके बावजूद इस कहानी में कांग्रेस की
जीत है। उसने खेल को बेहतर ढंग से खेला। उसने जल्दी ही जद (एस) को मुख्यमंत्री पद
की पेशकश की ताकि चुनाव बाद गठबंधन बनाया जा सके। भाजपा के विपरीत, जिसे
आंकड़े जुटाने के लिए हॉर्स ट्रेडिंग करनी पड़ी, कांग्रेस पूरा
अस्तबल ही जुटाने में कामयाब रही। राज्यपाल से 15 दिन का फ्री
पास मिलने पर भाजपा भी थोड़ा खुलकर खेलने लगी। उसे अहसास नहीं था कि मामले में पूरे देश की रुचि जाग गई
है और उनकी हर गतिविधि पर निगाह है। जहां यह दौर जीतने पर कांग्रेस की पीठ थपथपानी
होगी, बड़ा मुद्दा यह है कि पूरा खेल ही अनैतिक था। किसी ने भी साफ-सुथरा
काम नहीं किया। सिर्फ कर्नाटक चुनाव की बात नहीं है, जहां भी सत्ता
में आने की राह जटिल हो जाती है, तो कोई भी दल सही व्यवहार नहीं करता।
इसलिए हम नागरिकों के लिए किसी पार्टी को प्रोत्साहन देना या निरंतर
बचाव करना या यह मानना कि एक दल दूसरे से नैतिक या नीतिशास्त्र के आधार पर बेहतर
है, एकदम मूऽर्तापूर्ण विचार है। हम ज्यादा से ज्यादा यह सुनिश्चित कर
सकते हैं कि हमारे नेता कोई अवैध काम न करें। हम यह कड़े कानूनों, जवाबदेही
बनाकर और किसी भी अवैध काम के िऽलाफ मीडिया का दबाव बनाकर कर सकते हैं। लेकिन,
राजनीति
में नैतिकता की अपेक्षा करना और वह भी संकट के समय नितांत मूढ़ता है। राजनीति की
प्रकृति कुछ ऐसी है कि यह लगभग अनैतिक होने के लिए ही बनी है। किसी की जीत के लिए
किसी को तो हारना होगा। और जब त्रिशंकु विधानसभा हो तो हर किसी को खुला खेल खेलने का मौका है। बहुमत की सरकार बनाने के लिए किसी को तो किसी अन्य को धोखा देना होगा।
ऐसे वत्तफ़ में इस बात पर बहस क्यों करें कि कौन नैतिक है और कौन नहीं है (पिछले
कुछ हफ्रतों से कर्नाटक पर केंद्रित टीवी की बहस इसी पर टिकी है)? यहां
तक कि महाभारत जैसे हमारे प्राचीन ग्रंथ में युद्ध को नीतिपरक ढंग से नहीं जीता
गया था। पांडवों के लिए यह सदाचार का युद्ध था लेकिन, महाभारत में
पर्याप्त कहानियां हैं, जो बताती हैं कि जब जरूरत पड़ी उन्होंने अनैतिक साधनों का भी प्रयोग
किया। इसलिए यह आवश्यक है कि हम नागरिक कर्नाटक में जो भी हुआ, उससे
महत्वपूर्ण सबक लें।
1- सारे दल खासतौर पर जब हताशा की स्थिति में हो तो सत्ता हासिल करने के
लिए सिद्धांत दरकिनार कर देते हैं। इसलिए दोनों पक्षों की इन मूखर्तापूर्ण दलीलों
के शिकार न बनें कि दूसरे की बजाय हमारे ज्यादा सिद्धांत हैं।
2- नागरिक के रूप में आपको चुनाव के दौरान चयन करना होता है लेकिन, चुनाव के बाद आपको, जिसे वोट दिया है उस दल को मिलाकार सभी दलों को जवाबदेह मानना चाहिए। न जाने कैसे यह सरल अवधारणा भी कुछ लोगों को समझने में कठिन लगती है। यदि आपने किसी को वोट दिया है तो आपको उस झुंड का हिस्सा समझा जाता है- एक भत्तफ़, पीढ़ी या जो भी हो और आप अपने पक्ष पर सवाल नहीं उठा सकते। याद रहें कि यहां कोई पक्ष नहीं है। यह तो केवल एक च्वॉइस है, जो आपने अनैतिक दलों के बीच में से चुनाव के वत्तफ़ इस आधार पर जाहिर की कि उस वत्तफ़ कौन बेहतर विकल्प देता दिखाई देता है। उसके बाद आपको फिर उन्हें जवाबदेह मानने का रुऽ अपना लेना चाहिए। नैतिकता व नीति-नियम जीवन और समाज के लिए जरूरी है। बात सिर्फ यह है कि भारतीय राजनीति का इससे दूर से भी वास्ता नहीं है। कर्नाटक ने बता दिया है कि हम ऐसे वत्तफ़ में रह रहे हैं जब हमारे पास न तो महान नेता है और न महान दल जो चाहे जो हो जाए, नैतिकता, सिद्धांत और मूल्यों को कायम रखेंगे । कर्नाटक नागरिकों की आंख खोलने वाला उदाहरण बने, जो अपने नेताओं को ईश्वर और विपक्ष को शैतान समझते हैं। राजनीति में कोई भी दूध का धुला नहीं है। मौजूदा दौर में आप ज्यादा से ज्यादा इतना ही कर सकते हैं कि चुनाव के वत्तफ़ थोड़ा-सा बेहतर विकल्प चुनें और बाद में उनके व्यवहार पर किसी बाज की तरह निगाह रखें ।