अगले चुनावी यूद्ध की स्पष्ट रेखाएं-

2018-10-04 0

संसद में मोदी को गले लगाने वाले राहुल गांधी ही 2019 के आम चुनाव में उनके लिए बड़ी चुनौती साबित होंगे।

संसद में विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव पर जो बहस हुई, वह कई सवालों के जवाब देती है। एक, क्या विपक्ष को 2019 का चुनाव नरेन्द्र मोदी बनाम राहुल गांधी बनने देना चाहिए या फिर वह हर प्रदेश में अलग लड़ाई लड़े, जबकि राहुल ने अब खुद इसे मोदी के साथ सीधा मुकाबला बना दिया है?

तो, क्या भाजपा को राहुल की चिंता करनी चाहिए? राहुल की ओर से की गई ‘सूटबूट’ वाली एक ही टिप्पणी ने मोदी सरकार की राजनीतिक अर्थव्यवस्था बदल दी थी। इस सत्र की शुरुआत के साथ और प्रमाण सामने आए। भाजपा चाहे जोर देकर कहे कि आरटीआई अधिनियम में संशोधन से पीछे हटने का राहुल के विरोध से लेना-देना नहीं है परंतु संभावना नहीं है कि इससे कोई सहमत होगा। इस बहस के बाद भाजपा संदेह बाकी नहीं रहने देगी कि कौन उसके निशाने पर है। भाजपा अपनी फौज यह बताने में लगा देगी कि कैसे राहुल का कोई महत्व नहीं है, जबकि इसका अर्थ एकदम उलट है। आप किसी का तिरस्कार करते हैं तो उसकी उपेक्षा करते हैं, उसके पीछे नहीं पड़ जाते।

तीन, क्या कभी राहुल गंभीर चुनौती बनने लायक प्रतिबद्धता दिखा  पाएंगे, भाजपा के लिए नहीं तो कम से कम अपने समर्थकों के लिए ही सही? उनके तेवर देऽकर तो लगता है कि वे ऐसा कर सकते हैं। राहुल उस संसद में महत्वपूर्ण विपक्षी नेता के रूप में उभरे हैं, जिसमें उनकी पार्टी इतनी छोटी है कि उन्हें औपचारिक रूप से नेता प्रतिपक्ष का पद नहीं मिल सकता। इसके साथ ही राहुल ने अगले आम चुनाव के पहले मोदी विरोधी मोर्चे के नेतृत्व का दावा पेश कर दिया है।

चार, क्या राहुल अपनी ‘पप्पू’ की छवि तोड़ने में कामयाब रहे हैं? अपने भाषण में उन्होंने कहा कि उन्हें पप्पू कहे जाने की परवाह नहीं है परंतु उनकी पार्टी यह भरोसा करना चाहेगी कि वे इससे उबर गए हैं। हमारा कहना है कि वे नहीं उबर सके हैं। आप पप्पू में से राहुल तो निकाल सकते हैं पर राहुल में से पप्पू नहीं। वरना उन्होंने युवकों

(प्रतिद्वंद्वी तो नाबालिगों जैसा कहेंगे) जैसी विजयी मुद्रा में आंख नहीं मारी होती। थोड़ा पप्पू जैसा होना भी कोई इतना बुरा नहीं है। खासतौर पर तब जब अधिकांश मतदाता युवा हैं और प्रवचनों से ऊबे हुए हैं।

बहस में कौन जीता, यह अब प्रासंगिक नहीं है, क्योंकि मोदी माहिर वत्तफ़ा हैं और आक्रामक (कभी उन्हें रक्षात्मक होते देखा  है?) मुद्रा में वे श्रेष्ठतम रूप में होते हैं। महत्वपूर्ण यह है कि अब उनके सामने स्पष्ट प्रतिद्वंद्वी और लक्ष्य है। उनके प्रतिद्वंद्वियों ने अब ‘अखाड़े’ में चुनौती उतार दी है और दंगल तय है। राहुल ने जिस स्पष्टता और आक्रामकता से अपना इरादा जताया, उसने उनकी पार्टी को भी चौंका दिया होगा। प्रधानमंत्री पर किए गए विद्वेषपूर्ण हमले के दौरान राहुल बार-बार कहते रहे कि डरो मत। उसके बाद नीचे झुककर प्रधानमंत्री को गले लगाकर उन्होंने अपने से काफी ताकतवर प्रतिद्वंद्वी की ताकत से खेलने का जोिऽम उठाया: वत्तफ़त्व कला और बेशक गले लगाने की कला। अपनी ताकत की बजाय प्रतिद्वंद्वी की ताकत इस्तेमाल करने का मार्शल आर्ट जु-जित्सू  खेलना बहुत अच्छी बात है पर राजनीति में यह आत्मघाती हो सकता है। राजनीति को आप कॉन्टेक्ट स्पोर्ट के रूप में लें तो याद रखे  कि भाजपा व मोदी उस स्कूल के डीन हैं, जहां आप सिर्फ छात्र हो सकते हैं। पर सुर्खिया बटोरने की होड़ में योद्धा ऐसे पल की शिद्दत से तलाश कर रहे हों तो जोखिम लेनी पड़ती है। राहुल ने लड़ाई को मोदी के मैदान में लाकर अपने राजनीतिक कॅरिअर में सबसे बड़ा जोखिम  लिया है।



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लेकिन, राहुल के समर्थकों को समझना होगा कि बहस में कुछ अंक जीतने से राजनीतिक वास्तविकता नहीं बदलती। मोदी के लिए असली खतरा बनने से वे अब भी कोसों दूर हैं। अब तक उनके खाते में कोई चुनावी जीत नहीं है। उनकी रैलियों के लिए रिस्पॉन्स में सुधार हुआ है पर वह मोदी तो क्या ममता से मायावती, अखिलेश से लालू/तेजस्वी और नवीन पटनायक से लेकर तेलंगाना के- के- चंद्रशेखर राव जैसे प्रादेशिक नेताओं के आसपास भी नहीं हैं। उनकी पार्टी डेढ़ राज्य में सत्ता में है, संसाधनों से वंचित है। जब तक प्रचार शुरू होगा संभव है कि उनके ज्यादातर पार्टीजन व परिजन ‘भ्रष्टाचार’ के आरोपों के जवाब देते अदालतों के चक्कर काट रहे होंगे। यहीं पर उन्हें अपने ही जुमले ‘डरो मत’ की जरूरत होगी। यह वैसा ही है कि पहली पारी में 230 रनों से पिछड़ने (44 बनाम 270) के बाद कोई टीम दूूसरी पारी शुरू करे। ‘हवा’ बदलने का सबूत भी नहीं है कि ऐसे फर्क की भरपाई हो जाएगी। राहुल को अभी लंबी दूरी तय करनी है। उनकी प्रतिबद्धता और उनके फोकस संदेह में रहे हैं। अक्सर गायब होने या छुट्टी  पर जाकर उन्होंने अजीब छवि बना ली है। उनकी पार्टी के लोग कभी उनसे यह कहने का साहस नहीं जुटा पाएंगे लेकिन वे चिंतित रहते हैं कि उनके बॉस हमेशा उनके साथ रहेंगे भी या नहीं। संसद में उन सवालों के जवाब काफी हद तक स्पष्ट हो चुके हैं लेकिन, आगे बढ़ने के लिए ऐसे और प्रमाणों की आवश्यकता होगी।

उन्होंने अपनी मां से एकदम अलग शैली उजागर की है। अब तक उन्होंने और उनकी पार्टी ने वाजपेयी के बाद की भाजपा के प्रति नफरत व शत्रुता का भाव रखा तो मोदी को अस्पृश्य माना। यह सब मोदी को रास आया, क्योंकि वे प्रवृत्ति से ही योद्धा हैं। सिर्फ दशक भर पहले सोनिया गांधी ने मोदी को मौत का सौदागर कहा था। जवाब में मोदी ने जर्सी गाय और बछड़ा जैसी बातें कहीं। अब राहुल ने उन्हें गले लगाकर कहा कि वे उन्हें प्यार करते हैं। कोई इतना नादान नहीं है कि उनकी बात पर यकीन करेगा फिर भी राजनीति में गाली गलौज या अस्पृश्यता से तो व्यंग्य कम आक्रामक माना जाता है।

कर्नाटक में जूनियर पार्टनर जद (एस) को मुख्यमंत्री पद सौंपकर वे पार्टी के मूल चरित्र के विपरीत चले गए। वे मोदी को जाकर गले लगा सकते हैं, लेकिन उनकी राजनीति स्पष्ट है: मोदी के अलावा कोई भी चलेगा। मैं भी न हुआ तो हर्ज नहीं। इस चुनावी साल में इसका कैसा प्रभाव पड़ेगा यह बताना जल्दबाजी होगी लेकिन, काफी अस्पष्टता दूर हो गई है। उम्मीद है कि जीवंतता से परिपूर्ण यह संसदीय शुरुआत अधिक उत्पादक सत्र में तब्दील होगी। राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में प्रचार शुरू होने के पहले काफी संसदीय काम बाकी है। 


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