चीन के कर्ज जाल में फ़ंस रहे हैं उसके पड़ोसी देश

2018-10-04 0

बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) नामक इस परियोजना को शुरू हुए पांच साल हो चुके हैं। हालांकि चीन के लिए इसे मूर्त रूप देना इतना आसान भी नहीं रहा है।

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने 7 सितम्बर 2013 को कजाकिस्तान को नजरबयेव यूनिवर्सिटी में एक भाषण देते हुए इस परियोजना की घोषणा की थी।

तब से लेकर अब तक इसमें दुनिया के 70 से अधिक देश जुड़ चुके हैं। चीन के राष्ट्रपति इस परियोजना को ‘प्रोजेक्ट ऑफ दी सेंचुरी’ बता चुके है। हालांकि भारत ने खुद को चीन की इस परियोजना से अलग किया हुआ है, लेकिन भारत के अलावा उसके कई पड़ोसी देश इस परियोजना में चीन के साथ हैं।

दरअसल, एशिया-प्रशान्त क्षेत्र में बीआरआई का स्वागत उन देशों में ज्यादा किया जहां का आधारभूत ढांचा बहुत अच्छा नहीं था। इन देशों में चीन ने रेलवे, सड़क और बंदरगाहों के निर्माण की कई योजनाएं शुरू की। लेकिन अब कई देश ऐसे हैं जो इस परियोजना में शामिल होने के बाद कुछ प्रोजेक्ट के बारे में दोबारा विचार कर रहे हैं। इन देशों में मलेशिया से लेकर म्यांमार तक शामिल हैं।

चीन ने अपनी तरफ से काफी कोशिश की है कि वह परियोजना में शामिल देशों को यह समझा सके कि यह कितने फायदे का सौदा है, लेकिन फिर भी कई एशियाई देश इसकी आलोचना कर रहे हैं। इसके पीछे प्रमुख वजह चीन का इन देशों में फैलता कर्ज का जाल है।



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बीआरआई परियोजना से पीछे हटने वाला सबसे नया देश मलेशिया है। जुलाई महीने में मलेशिया ने अपने देश में इस परियोजना के तहत चल रहे कुछ कामों को रोक दिया। रोक लगाने वाली योजनाओं में 2 हजार डॉलर की ईस्ट-कोस्ट रेल लिंक और गैस पाइप लाइन की दो योजनाएं शामिल हैं। मलेशिया के प्रधानमंत्री मोहम्मद पिछले महीने चीन के दौरे पर गये थे लेकिन उस दौरे में भी इस समझौते को जारी रखने पर सहमति नहीं बन पाई।

एशिया के दूसरे देशों में चल रही इस परियोजना पर भी अब खतरे के बादल मंडराने लगे हैं। आखिर क्या वजह है कि चीन की इस महत्वाकांक्षी परियोजना पर एशिया के देश इकबाल नहीं कर पा रहे हैं

कर्ज में डूबता श्रीलंका

श्रीलंका में चीन का निवेश अब जांच के दायरे में आने लगा है। खासतौर पर पश्चिमी मीडिया और अधिकारियों ने इस पर सवाल उठाए हैं।

इनका आरोप है कि चीन अपने पड़ोसी देशों के साथ कर्ज बढ़ाने वाली कूटनीति कर रहा है। पिछले साल ही श्रीलंका ने अपना हम्बनटोटा बंदरगाह चीन की एक फर्म को 99 साल के लिए सौंप दिया था। दरअसल श्रीलंका चीन की तरफ से मिले 140 करोड़ डॉलर का कर्ज चुका पाने में नाकाम था।

इसके बाद विपक्ष के हजारों नेताओं ने श्रींलंका की राजधानी कोलंबो में सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया और सरकार पर देश की संपत्ति बेचने का आरोप लगाया।

इसी तरह श्रीलंका में चीन के एक और प्रोजेक्ट पर खतरा मंडरा रहा है, श्रीलंका के उत्तरी शहर जाफना में घर बनाने की चीन की योजना का विरोध हो रहा है। वहां लोगों ने कंक्रीट के घर की जगह ईंट के घरों की मांग की है।

पाकिस्तान का असमंजस

चीन के सबसे करीबी और भरोसेमंद एशियाई दोस्त के तौर पाकिस्तान को देखा जाता है। पाकिस्तान चीन के साथ अपनी मित्रता को ‘हर मौसम’ में चलने वाली दोस्ती’ के रूप में बयां करता है।

लेकिन बीआरआई परियोजना के सम्बंध में पाकिस्तान ने भी थोड़ा-थोड़ा नाराजगी जाहिर करना शुरू कर दिया है। दरअसल पाकिस्तान की सबसे बड़ी समस्या उसका बढ़ता कर्ज, पारदर्शिता का अभाव और सुरक्षा व्यवस्था है, बीआरआई के तहत चीन-पाकिस्तान के बीच एक आर्थिक गलियारा बनाने पर काम हो रहा है, इसके लिए कुल 6 हजार करोड़ डॉलर का खर्च सुनिश्चित हुआ है। पाकिस्तान के लिए यही रकम जी का जंजाल बन रहा है।

पाकिस्तान में नई सरकार बनाने वाली पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) के सांसद सैयद शिबली फराज ने सऊदी की एक वेबसाइट अरब न्यूज से कहा कि पिछली सरकार ने उनके साथ इस आर्थिक गलियारे से जुड़ी योजना की कोई जानकारी साझा नहीं की है।

उन्होंने साथ ही कहा कि नई सरकार इस समझौते पर दोबारा विचार-विमर्श करेगी। हालांकि फिलहाल पाकिस्तान की जैसी आर्थिक हालत चल रही है और अमरीका की तरफ से उन पर लगातार दबाव बढ़ाया जा रहा है, उस हाल में पाकिस्तान चीन के साथ किसी तरह का मनमुटाव नहीं करना चाहेगा।

म्यांमार में पैसे की कीमत

श्रीलंका की तरह म्यांमार भी अपने ऊपर बढ़ते चीनी कर्ज के चलते दबाव महसूस करने लगा है। यही वजह है कि वह बीआरआई से हटना चाह रहा है।

म्यांमार के रखाइन प्रान्त में क्योकप्यू शहर के तट पर चीन पानी के अंदर एक बंदरगाह बनाने पर काम कर रहा है। इसकी शुरुआती कीमत 730 करोड़ डॉलर आंकी गई लेकिन हाल ही में म्यांमार के उप वित्तमंत्री सेट ऑन्ग ने समाचार एजेंसी को बताया था कि यह प्रोजेक्ट लगातार छोटा होता जा रहा है।

अब इस प्रोजेक्ट को कम करके इसका खर्च 130 करोड़ डॉलर पर लाया जा चुका है। विशेषज्ञों का कहना है कि इस प्रोजेक्ट के लगातार घटते चले जाने के पीछे खर्च के साथ-चीन की अपने पड़ोसी देशों में कब्जा जमाने वाली छवि भी है। इसी डर के चलते म्यांमार चीन के साथ इस परियोजना को बहुत ज्यादा बड़ा नहीं बनाना चाहता।

साल 2011 में म्यांमार सरकार ने चीन के साथ 360 करोड़ डॉलर वाली मितसोन बांध परियोजना इसी वजह से रद्द कर दी थी क्योंकि उस समय भी म्यांमार के आम नागरिकों और विपक्षी दलों ने चीन का विरोध किया था।

हालांकि तमाम रुकावटों के बावजूद चीन लगातार म्यांमार के समर्थन में बना रहा फिर चाहे रोहिंग्या संकट पर म्यांमार की चौतरफा आलोचना का ही विषय क्यों न हो।

इंडोनेशिया की धीमी रफ्रतार

इंडोनेशिया में बन रहा जकार्ता-बांडुंग हाई-स्पीड रेलवे नेटवर्क लगातार पीछे खिसकता जा रहा है। इसकी प्रमुख वजहोें में भूमि अधिग्रहण, लाइसेंस और फंड की समस्या है।500 करोड़ डॉलर की चीन की यह परियोजना साल 2015 में शुरू हुई थी और इसकी डेडलाइन साल 2019 है। जकार्ता ग्लोब में प्रकाशित एक रिपोर्ट में इंडोनेशिया ने नेता लुहुत पंडजाइतन ने कहा कि फिलहाल तो ऐसा लगता है कि साल 2014 से पहले इस नेटवर्क पर रेल नहीं चल पाएगी। इससे पहले इंडोनेशिया के राष्ट्रपति जोको विडोडो भी इस प्रोजेक्ट पर दोबारा विचार करने की बात कह चुके हैं क्योंकि जकार्ता में बांडुंग की दूरी महज 140 किलोमीटर ही है। वहीं दूसरी तरफ चीनी मीडिया में इस प्रोजेक्ट को काफी सफल बताया जा रहा है और ऐसे रिपोर्ट की जा रही है कि इस प्रोजेक्ट के चलते इंडोनेशिया में कई स्थानीय लोगों को नौकरियां मिली हैं। इंडोनेशिया में अगले साल चुनाव होने वाले हैं, ऐसे में यहां चीन-विरोधी विचार भी लगातार उठ रहे हैं।  

सिर तक आ गई चीन की सड़क तो क्या करेगा भारत?

भारत के पड़ोसी नेपाल के नए विदेश मंत्री प्रदीप कुमार ने बीजिंग में चीन के विदेश मंत्री वांग यी से मुलाकात की। इस बैठक में दोनों देशों के बीच रेल संपर्क बेहतर बनाने समेत कई और अहम मुद्दों पर बात हुई।

बीते साल की शुरुआत में नेपाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री केपी ओली सत्ता में थे। इस दौरान इस सिलसिले में सारे फैसले लिए जा चुके थे। लेकिन इस फैसलों पर अमल नहीं हो पाया था क्योंकि नेपाल में सत्ता परिवर्तन हो गया था।

ओली के सत्ता में वापसी करने के बाद इस पर फिर से बैठक हुई और फैसलों पर अमल करने के बारे में बात हुई है।

पूरी दुनिया में अपनी पहुंच बढ़ाने के लिए चीन ने एशिया, यूरोप और अफ्रीका के 65 देशों को जोड़ने की योजना बनाई है। इस परियोजना का नाम दिया गया है ‘वन बेल्ट वन रोड’ यानी ओबीओआर परियोजना। इसे न्यू सिल्क रूट नाम से भी जाना जाता है।

भारत का साथ चाहता है चीन

बैठक के बाद साझा प्रेस वार्ता में चीन ने (वन बेल्ट वन रोड परियोजना के तहत) भारत-नेपाल-चीन आर्थिक गलियारे का प्रस्ताव देकर एक बार फिर से इस बात के संकेत दिए हैं कि वो भारत को इसमें शामिल करना चाहता है।

चीन पहले से ही चाहता था कि भारत वन बेल्ट वन रोड परियोजना का हिस्सा बने, लेकिन भारत इससे इन्कार करता रहा है। चीन इसे एक महायज्ञ के रूप में देखता है और समझता है कि मानव संसाधन विकास का एक अहम जरिया ढांचागत विकास है और इसके लिए दूसरे देशों से जुड़ना जरूरी है।

चीन मानता है कि इसके लिए सड़कें, रेल मार्ग, जल मार्ग, टेलीकम्युनिकेशन लाइनें, गैस की लाइनें, पेट्रोलियम की लाइनें बिछाई जानी चाहिए।   

भारत का विरोध समझा जा सकता है

भारत के विरोध के पीछे मुख्य उद्देश्य यह है कि बेल्ट एंड रोड परियोजना के तहत चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा बना रहा है। इसके तहत चीन से शुरू हो रही सड़क पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह तक जाती है, लेकिन इसके लिए ये सड़क गिलगित-बलूचिस्तान के इलाके से गुजरती है। ये हिस्सा फिलहाल पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में  आता है लेकिन भारत इसे अपना हिस्सा मानता है।

एक तरफ तो चीन कश्मीर पर भारत के हक को नकारती है, लेकिन वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तान का दावा कि ये हिस्सा उसका है इसे चीन स्वीकार करता है। ऐसे में भारत का चीन को अपना मित्र देश न समझना समझा जा सकता है।

ये चीन की भारत पर दबाव डालने की कोशिश है। इस परियोजना में चीन के सहयोगी मालदीव, नेपाल, पाकिस्तान, म्यांमार के पास इतना पैसा नहीं है कि वो चीन की परियोजना पर काम कर सकें, चीन की इस परियोजना में नेपाल ने अपना पैसा लगाया तो  उसका पूरा जीडीपी ही इसमें चला जाएगा।

चीन इस परियोजना में इतना घाटा उठाने के लिए इसीलिए तैयार है कि क्योंकि भारत पर दबाव पड़े और भारत के सिर तक चीन की सड़क आ जाये और भारतीय लोग उस सड़क का इस्तेमाल करने लगें।

इतना ही नहीं नेपाल में चीन का जो हजारों टन सामान आएगा नेपाल के लोग उसे खरीद नहीं पायेंगे और वो तस्करी के जरिए नेपाल सीमा से होकर भारत आएगा। भारत के सामने तो बड़ी-बड़ी समस्याएं आ सकती हैं।

आज कश्मीर मुद्दे पर चीन की बात स्वीकार करने का मतलब होगा कि कल आप अरुणाचल पर भी उनका दबाव देख सकते हैं। ये भारत के लिए गंभीर कश्मकश की स्थिति है। विदेश नीति का पूरा उद्देश्य ही खत्म हो जाएगा।

भारत में 2019 में लोकसभा चुनाव भी होने वाले हैं और इसके मद्देनजर मोदी इस समस्या का सामना कैसे करते हैं ये देखने वाली बात होगी।  


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