कश्मीर में पथराव करने वालों से सहानुभूति क्यों?

2018-10-05 0

पत्थर फ़ेंकने को धार्म या उदारवादी चश्मे से नहीं, बल्कि निर्दाेष लोगों पर हमले के रूप में देखना चाहिए।

 

कल्पना कीजिए: गुजरात में दंगाइयों का एक समूह मुस्लिम इलाके में लोगों की पिटाई करता है, जिससे वे गंभीर घायल हो जाते हैं। या यह कि भीड़ बेकाबू हो जाती है और उत्तर प्रदेश के गांव में दलितों पर ईंटें फेंकती है, जिससे कई मौतें हो जाती हैं। क्या आप चाहेंगे कि दंगाई या उग्र भीड़ के साथ अपराधियों जैसा व्यवहार कर उन्हें कड़ी सजा दी जाए? हां।

अब यह खबर पढ़ेंः  कुछ लोग कश्मीर में सीआरपीएफ की जीप पर पत्थर फेंकते हैं, जिससे ड्राइवर का नियंत्रण छूट जाता है और दो सैनिक मारे जाते हैं। या कश्मीरी पुरुषों का एक समूह पत्थर फेंकता है, जिससे तमिलनाडु के पर्यटक की मौत हो जाती है। आप इन पत्थर फेंकने वालों के साथ क्या करना चाहेंगे? उन्हें सजा देंगे या उनसे अलग तरह से व्यवहार करेंगे? यहां अलग व्यवहार होता हुआ दिखता है। 2017 के उत्तरार्ध में पीडीपी-भाजपा सरकार ने कश्मीर में पत्थर फेंकने वालों के खिलाफ कोई 9 हजार मामले वापस ले लिए। तर्क दिया गया कि राह भटके युवाओं के साथ संवाद और काउंसलिंग इसका जवाब है, जेल नहीं। बहुत उदारवादी धारणा लगती है, नहीं? सोचें कि ऐसा ही तर्क देश के अन्य किसी भाग के दंगाई पर क्यों नहीं लगाया जाता। या हम यही तर्क किसी भी अन्य अपराधी पर क्यों नहीं लागू करते? क्योंकि मुस्लिम या दलितों को चोट पहुंचा रहा व्यत्तिफ़ भी तो ‘पथभ्रष्ट’ है? क्यों नहीं हम छेड़छाड़ करने वालों की भी काउंसलिंग करें? वे भी तो पथभ्रष्ट हैं, नहीं?


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उस आम माफी के बाद भी पत्थर फेंकने की घटनाएं जारी हैं। हमले अब हमारे सैनिकों के अलावा बसों में स्कूली बच्चों, पर्यटकों (कश्मीर की आर्थिक जीवन-रेखा ) पर होने लगें हैं। हर बार सरकार को पता ही नहीं होता कि क्या करें सिवाय यह आम बयान देने के कि हिंसा जवाब नहीं है। अब स्थानीय कश्मीरी भी पथराव में घायल हो रहे हैं। कश्मीर घाटी में बार-बार होने वाली पथराव की हिंसक घटनाओं के सामने हम इतने असहाय क्यों हो जाते हैं? इसके बारे में क्या किया जा सकता? पथराव के मूल को समझना महत्वपूर्ण है। यह  फिलिस्तीनियों में लोकप्रिय हुआ था, जब वे इजरायली कब्जे केखिलाफ इन्तिफादा (यानी हिला डालना) विरोध प्रदर्शन करते थे। इजरायली रक्षा बलों और फिलिस्तीनियों के बीच ताकत के विशाल फर्क को देखते हुए पत्थर फेंकने को बहादुरी भरा प्रतिरोध माना गया। पश्चिमी मीडिया ने फिलिस्तीनियों का समर्थन किया। उनका अल्पसंख्यक होना और ताकत के अभाव के कारण वे सहानुभूति पाने की आदर्श स्थिति में थे।

हेलिकॉप्टर, टैंक और मशीनगन से लैस इजरायली सुरक्षा बलों के खिलाफ  खड़े होने का साहस दिखा ने की मुद्रा थी यह। यहां तक तो ठीक है पर अपवाद यही है कि पथराव से गंभीर चोट भी पहुंच सकती है। हम यहां कंकड़ फेंकने की बात नहीं कर रहें हैं। पथराव करने वाले ईंटें, चट्टानों के बड़े टुकड़े और जो भी हाथ लग जाए वह फेंकते हैं। दो किलो का पत्थर तेज गति से आकर सिर पर लगे तो मौत हो सकती है। ठीक वैसे जैसे कोई फेंका हुआ चाकू प्राण ले सकता है। किसी निर्दाेष व्यत्तिफ़ को चाकू घोंपने वाले व्यत्तिफ़ को आप अपराधी  कहेंगे? फिर बात तब क्यों अलग हो जाती है जब कोई आपके ऊपर गोल पत्थर फेंकता है? पथराव को रुमानी बनाने से फिलिस्तीन के पत्थर फेंकने वालों के लिए स्थिति बदतर हो गई। सड़कों पर शांतिपूर्ण प्रदर्शनों के विपरीत, पथराव घातक हो सकता है और उससे वास्तव में मौत भी हो सकती है। आखिरकार इजरायली सुरक्षा बलों को जरूरत पड़ने पर पथराव करने वालों को गोली मारने के अधिकार दिए गए। इससे हिंसा और बढ़ गई, क्योंकि इजरायली सुरक्षा बल कई बार संदेह में गोली चलाने लगे (इसलिए ऐसी कठोर प्रतिक्रिया घाटी में देने की सिफारिश नहीं की जा सकती, क्योंकि इससे तो तबाही आ जाएगी।) फिर फिलिस्तीनी अधिक पत्थरों और घातक मोलतोव कॉकटेल से हमले करने लगे। अधिक हिंसा और चारों तरफ नफरत फैलने लगी। इसे शायद ही समस्या के समाधान का तरीका कहा जा सकता है, नहीं?

कश्मीर में भी समस्या से निपटना कठिन है। घाटी के कई वाम रुझान वाले, उदारवादी पत्रकारों के लिए पथराव अब भी रुमानी, साहसी अथवा असहायता से उपजा कृत्य है, जो सहानुभूति का हकदार है। कहा जा रहा है कि यह तो सिर्फ थोड़े से विचलित बच्चे हैं, उन्हें हमें शांत करना चाहिए। हर अपराधी किसी न किसी बात से विचलित रहता है। किन्हें हमें पुचकारना चाहिए और किन्हें सजा देनी चाहिए? हम कहां पर विभाजन रेखा  खीचें? पथराव करने वालों के मुस्लिम होने से राजनीति और कठिन हो जाती है। कांग्रेस सरकार मुस्लिम समर्थक दिखना चाहती है। पथराव करने वालों पर कड़ी कार्रवाई उसे नहीं सुहाती। भाजपा सरकार भी मुस्लिमों के खिलाफ बदला लेने वालों की तरह नहीं दिखना चाहती। दोनों सख्ती नहीं बरतना चाहते।

हालांकि, हमेें इस मुद्दे को धर्म के या उदारवादी चश्मे से नहीं देखना चाहिए। हमें तो इसे उसी तरह लेना चाहिए, जो यह है- निर्दाेष नागरिकों और हमारे सुरक्षा बलों पर हिंसक हमला (जो आतंकवाद की परिभाषा भी है)। अन्यथा हम इस समस्या के समाधान को लेकर कहीं नहीं पहुंच पाएंगे। हमारे सामने हजारों घायल होंगे, सैकड़ों मौतें होंगी, कश्मीर का पर्यटन खत्म हो जाएगा। हाल की घटनाएं पथराव करने वालों के खिलाफ कहीं अधिक सख्त नीति की जरूरत बताती हैं। यह सही है कि इस तरह की नीति में भी दुरुपयोग का ख़तरा है (यहां कोई विकल्प आसान नहीं है)। हम उनके साथ संवेदना दिखा  सकते हैं कि जिंदगी उनके प्रति कितनी निष्ठुर है। वे जिससे गुजर रहे हैं उस पर हम किताबें, गीत, लेख  लिख  सकते हैं, फिल्में बना सकते हैं। लेकिन, जैसे ही वे पत्थर उठाकर फेंकते हैं, वे आपराधिक कृत्य में लिप्त हो जाते हैं। कानून के राज वाले देश की तरह हमें अपराधियों को सजा देनी चाहिए।

पथराव -ऐसा घातक प्रतिरोध जो निर्दाेेष पर्यटकों, सैनिकों की जान ले सकता है और अर्थव्यवस्था को नष्ट कर सकता है- एक गंभीर अपराध है। जहां उनका पक्ष सुनने के प्रयास कभी बंद नहीं होने चाहिए लेकिन, जिस क्षण युवा हिंसा का चुनाव करते हैं सारी सहानुभूति खत्म हो जानी चाहिए। आप देश का कानून अपने हाथ में नहीं ले सकते फिर चाहे बंदूक के रूप में हो, चाकू के या पत्थर के रूप में।  


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