किसानों का आन्दोलन और कृषि संकट

भारत में ग्रामीण समुदाय कई स्तरों से गुजरा है। जैसे आदिम ग्रामीण
समुदाय, मध्यकालीन ग्रामीण समुदाय आधुनिक ग्रामीण समुदाय। आदिम समुदाय के दो
विचित्र लक्षण हैं। पहला, नातेदारी की भूमिका तथा दूसरा इसका
सामूहिक आधार। इस समुदाय में भूमि सामान्य सम्पत्ति थी और सभी सदस्य इसे संयुक्त
रूप से जोतते थे। मध्यकालीन ग्रामीण समुदाय में मौलिक अन्तर आया और भूमि अब किसी
राजा अथवा सामन्त अथवा कुलीन वर्ग के किसी सदस्य अथवा धार्मिक अध्यक्ष की सम्पत्ति
बन गई। यह मालिकों के माध्यम से जोती जाती थी बल्कि उनके किराएदारों द्वारा इसे
जोता था।
आधुनिक काल में औद्योगीकरण के विकास के कारण ग्रामीण समूह का महत्व
कम होने लगा। 2011 की जनगणना के अनुसार जनसंख्या का 68 प्रतिशत भाग
देहातों में रहता था। आधुनिक काल में शहरी जिन्दगी के प्रभाव को ग्रामीण जन्दगी पर
देखा जा सकता है। जनसंख्या की गतिशीलता व आकार में वृद्धि हो जाने से कुछ बंधन
स्वाभाविक रूप से टूटे हैं। ग्रामीण समुदाय में संयुक्त परिवार, धार्मिक
आस्था एवं विश्वास, सामुदायिक चेतना, सादगी तथा पड़ोस की भूमिका महत्वपूर्ण
होते हैं। ग्रामीण समुदाय की उन्नति भौगोलिक, आर्थिक तथा
सामाजिक तत्वों पर निर्भर करती है।
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ग्रामीण क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते
हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार लगभग 68 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्र में
रहती थी। जबकि 2001 की जनगणना के अनुसार ग्रामीण जनसंख्या का भाग 72
प्रतिशत था। देश में 6,38,596 गांव हैं और जनसंख्या के अनुसार
गांवों की संख्या निम्न तालिका से स्पष्ट है-
जनसंख्या देहातों की
संख्या %
500 से कम 2,19,063 34
500 से 999 1,45,402 22
1000-1999 1,29,977 20
2000-4999 80,413 12
5000-9999 14,799 2
10000 से अधिक 3,961 1%(नीचे)
इसका अर्थ यह है कि भारत में 1000 से अधिक
जनसंख्या वाले गांवों की संख्या 1 प्रतिशत से भी कम है।
भारत में आर्थिक नियोजन के माध्यम से आर्थिक विकास का क्रम 1951 से
पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से प्रारंभ होता है। पंचवर्षीय योजनाओं में
प्राथमिकताएं समय-समय पर बदलती रही हैं और कृषि क्षेत्र तथा उद्योग एक-दूसरे के
पूरक क्षेत्र होने के स्थान पर स्थानापन्न बन गए। कृषि क्षेत्र में प्राकृतिक तत्व
बहुत अधिक सक्रिय रहते हैं, अतः यह क्षेत्र प्राकृतिक आपदाओं का भी
शिकार रहा है। कभी बाढ़, कभी सूखा, कभी ओला वृष्टि, कभी तूफान, कभी सुनामी,
कभी
भूकम्प, कभी भूस्खलन आदि और इसके अतिरिक्त जनसंख्या का कृषि पर दबाव, जोतों
का उप-विभाजन एवं विखण्डन आदि। बहुत से कारणों से जल और वायु प्रदूषण जिसमें
उद्योग क्षेत्र का बहुत बड़ा योगदान रहा है। दूसरी ओर नगरीकरण के कारण भूमि की बहुत
बड़े पैमाने पर मांग-आवास के लिए, सेवा क्षेत्र के लिए, आधारभूत
संरचना के निर्माण के लिए। भूमि की बिक्री एक बहुत बड़ा और आकर्षक व्यवसाय बन गई।
मेहनत करके कम पैसा अर्जित करना एक प्रश्न बन गया क्योंकि लोग बिना किसी श्रम के
भू-खण्डों की क्रय और विक्रय से बहुत पैसा कमाने लगे। यह सब विकास के नाम पर हो
रहा था।
किसानों के आन्दोलन और आत्महत्या दोनों ही इस बात की ओर संकेत करते
हैं कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। गांधी जी की जयन्ती पर
देश की राजधानी के निकट छभ्-24 पर किसानों का बहुत बड़ा आन्दोलन जो
सम्पूर्ण देश की स्थिति को स्पष्ट करता है, कुछ कहना चाहता
है। वर्तमान सरकार के बारे में किसानों की समस्याओं को हल करने सम्बंधी सर्वेक्षण
के अनुसार केवल 30 प्रतिशत लोगों का यह मानना है कि सरकार ने अच्छा कार्य किया है और 64 प्रतिशत लोगों
का मत है कि सरकार ने इस दृष्टि से अच्छा कार्य नहीं किया है। हम दूसरी ओर ग्रामीण
क्षेत्र की स्थिति का आंकलन इस क्षेत्र की मजदूरी दर की वृद्धि की वृद्धि से लगा
सकते हैं- जनवरी 2015 में ग्रामीण क्षेत्र की मौद्रिक मजदूरी में वृद्धि 55
प्रतिशत थी और वास्तविक मजदूरी दर में वृद्धि 6-2 प्रतिशत
वार्षिक थी। जून 2018 में यह क्रमशः घटकर 3-5 प्रतिशत और 1-3 प्रतिशत रह गई।
एक ओर जहां सातवें वेतन आयोग के अनुसार न्यूनतम मजदूरी 18000 रु- प्रति मास
निर्धारित की गई है, वहां मजदूरी दर की ग्रामीण क्षेत्र में गिरती दर चिन्ता का विषय है।
यदि हम बाजार का सर्वेक्षण करें तब कृषि उत्पाद की कीमतें, गैर-कृषि उत्पाद
की कीमतों की अपेक्षा कम गति से बढ़ती हैं। इससे कृषि क्षेत्र का संकुचन स्वाभाविक
है क्योंकि क्षेत्र का विस्तार आर्थिक औचित्य के साथ सम्बंधित होता है।
किसान ट्टण लेता है-(1) अनौपचारिक क्षेत्र (2) औपचारिक क्षेत्र।औपचारिक क्षेत्र से सरलता से ट्टण मिल जाता है। परन्तु ब्याज की दर अधिक होती है। औपचारिक क्षेत्र में प्रमुख से व्यापारिक बैंकों से कम ब्याज दर पर कर्ज मिल जाता है। मार्च 2014 में प्रति किसान जो ट्टण की रकम 1,17,585-1 रु- थी वह घटकर दिसम्बर 2017 में 92189-7 रह गई है। अनौपचारिक क्षेत्र की स्थिति स्पष्ट नहीं है।
किसान अन्नदाता है। इसमें कोई सन्देह नहीं, परन्तु जब कोई
राजनैतिक दल इस शब्द का प्रयोग करते हैं तब इसका अर्थ बदल जाता है। हर दल किसानों
से ट्टण माफी के नाम पर वोट प्राप्त करके सरकारी खजाना देखता है और अपनी विवशता
बताकर पांच वर्ष पूरे कर लेता और फिर यही राग और किसानों का दुःख। बड़े-बड़े
औद्योगिक घराने ट्टण वापस नहीं करते। यह दुष्चक्र ईमानदार करदाता की दयनीय स्थिति
को दर्शाता है तथा ऐसा लगता है कि द्रौपदी को पांडव दांव पर लगाते रहेंगे और कौरव
उसका चीर-हरण करते रहेंगे। किसानों की बीमारी कुछ है और हम इलाज कुछ और कर रहे
हैं। राजमार्ग को रोकना चलता रहेगा-कोई मरे या जिन्दा रहे। हमें क्या लेना?
ऐसी
मनोवृत्ति सरकार व राजनैतिक नेताओं की हो गई है।
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