भारत में कृषि का संकट

2018-08-01 0

किसानों की नाराजगी का कारवां लखनऊ की सड़कों पर था। अभी चंद रोज पहले ऐसा ही एक दृश्य हमें देख की आर्थिक राजधानी मुम्बई की सड़कों पर भी दिखा था। जैसे मुम्बई में प्रदर्शन करने वाले किसानों की मांगें मान ली गईं, वैसी ही उम्मीद लखनऊ में आन्दोलन कर रहे किसानों को भी होगी। हालांकि कृषि विशेषज्ञ, आर्थिक योजनाकार और यहां तक किसान नेता भी यह स्वीकार करते हैं कि कर्ज-माफी और न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने जैसी मांगों की पूर्ति किसानों को तात्कालिक राहत भले दे दे, लेकिन वह उन मूल समस्याओं का समाधान नहीं कर पायेगी। जिनसे हमारे देश की कृषि बुरी तरह त्रस्त है। मुमकिन है कि लगभग हर प्रदेश में आन्दोलन कर रहे किसान भी यह अच्छी तर समझते हों, लेकिन उनकी कुल जमा पीड़ा इतनी घनीभूत है कि तात्कालिक राहत के लिए सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा के अलावा हो सकता है कि उन्हें और कोई विकलप नहीं दिख रहा हो। किसान जिन मांगों को लेकर सड़कों पर उतरे हैं, उनका हश्र हम पंजाब में देख सकते हैं। जहां अकाली सरकार के दस साल के शासन के दौरान किसानों के सभी कर्जे माफ कर दिये गये थे, उन्हें मुफ्त बिजली दी जा रही थी और न्यूनतम समर्थन मूल्य को लागू करने की मशीनरी नीचे तक काम कर रही थी। लेकिन किसानों की समस्याएं वहां भी खत्म नहीं हुईं। वहां भी किसानों में असंतोष है। वहां भी किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। केन्द्र सरकार ने किसानों को लागत का डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य देने का वादा किया है, मध्य प्रदेश ने किसानों के लिए भावांतर जैसी योजना लागू की है। लेकिन किसानों को इनमें अच्छे भविष्य का आश्वासन नहीं दिख रहा। 

देश भर के किसान इतने असंतुष्ट क्यों हैं? इस असंतोष के कारणों को गहराइ तक समझना आसान नहीं है। लेकिन कुछ चीजें हैं, जो स्पष्ट दिखती हैं। अगर हम पिछले एक दशक की कृषि विकास दर पर नजर डालें, तो यह आमतौर पर दो फीसदी के आसपास ही रही है, कभी दो फीसदी से ज्यादा नहीं हुई और एकाध बार तो शून्य से भी नीचे जा चुकी है। जिस समय देश की कुल जमा विकास दर छह से सात फीसदी की गति से लगातार बढ़ रही है, तब भारतीय कृषि कछुआ चाल से आगे बढ़ने के लिए अभिशप्त है। इन किसानों को चार से पांच फीसदी ब्याज दर पर रियायती कर्ज देकर सरकारें भले ही अपनी पीठ थपथपाती रही हों, लेकिन इस स्थिति में यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि किसान कर्ज की अदायगी भी कर ले और खुशहाल भी हो जाये। यहां मामला सिर्फ कृषि उत्पादकता बढ़ाने का नहीं है, क्योंकि किसानों का अनुभव यही कहता है कि जिस साल उनके खेतों में उत्पादन बढ़ता है, बाजार भाव मुंह के बल गिरता है और वे ज्यादा घाटे में रहते हैं। 

कृषि का संकट यह भारत का ही नहीं है, पूरी दुनिया किसी-न-किसी रूप में इससे दो-चार हो रही है। पश्चिम के देश में विश्व व्यापार संगठन से जूझते हुए, कृषि को सब्सिडी के बल पर चल रहे हैं, तो चीन जैसे देश कुछ अलग तरह के समाधान की तरफ बढ़ रहे हैं। तेज रफ्तार से भाग रहे उद्योगों के बीच कृषि को किस तरह आगे ले जाया जाए, यह सभी समस्या है। हमारी समस्या यह है कि देश की तकरीबन आधी आबादी इस संकटग्रस्त कारोबार से जुड़ी है। लेकिन हम दीर्घकालिक समाधान खोजने की बजाय अभी तात्कालिक राहत की राह पर ही हैं।


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