वाजपेयी बीजेपी के प्रतीक थे- मोदी सत्ता के प्रतीक हैं- तो देश 2019 में किस रास्ते जाएगा!

2018-11-01 0

अटल बिहारी वाजपेयी के बगैर बीजेपी कैसी होगी, ये तो 2014 में ही उभर गया, लेकिन नया सवाल नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली बीजेपी का है क्योंकि 2014 के जनादेश की पीठ पर सवार नरेंद्र मोदी ने बीजेपी कभी संभाली नहीं बल्कि सीधे सत्ता संभाली जिससे सत्ता के विचार बीजेपी से कम प्रभावित और सत्ता चलाने या बनाए रखने से ज्यादा प्रभावित ही नजर आए।

इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि जनसंघ से लेकर बीजेपी के जिस मिजाज को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से लेकर श्यामाप्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय या बलराज मधोक से होते हुए वाजपेयी - आडवाणी-जोशी ने मथा उस तरह नरेंद्र मोदी को कभी मौका ही नहीं मिला कि वह बीजेपी को मथें।

हां, नरेंद्र मोदी का मतलब सत्ता पाना हो गया और झटके में वह सवाल अतीत के गर्भ में चले गए कि संघ राजनीतिक शुद्धिकरण करता है और संघ के रास्ते राजनीति में आने वाले स्वयं सेवक अलग चाल, चरित्र और चेहरे को जीते हैं। लेकिन वाजपेयी के निधन के दिन से लेकर हरिद्वार में अस्थि विसर्जन तक जो दृश्य बार-बार उभरा उसने बीजेपी को उस दोराहे पर ही खड़ा किया, जहां एक तरफ संघ की चादर में लिपटी वाजपेयी की पारंपरिक राजनीति है तो दूसरी तरफ मोदी की हर हाल में सत्ता पाने की राह है।


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मतलब ये कि वाजपेयी की विरासत तले मोदी की सियासत जिन तस्वीरों के आसरे अभी तक परवान पर थी, वह बदल जाएगी या मोदी को भी बदलने को मजबूर कर देगी, नजरें इसी पर हर किसी की जा टिकी हैं क्योंकि अभी तक वाजपेयी की जिस राजनीति को संघ परिवार या बीजेपी याद कर रहा है और विपक्ष भी उसे मान्यता दे रहा है वह राजनीति मोदी की राजनीति से बिल्कुल जुदा है। ऐसे में तीन सवाल आपके सामने हैं।

पहला, क्या वाजपेयी की शून्यता अब बीजेपी के भीतर की उस खामोशी को पंख दे देगी जिसे 2014 में सत्ता पाने के बाद से उड़ने ही नहीं दिया गया।

दूसरा, क्या मोदी काल ही संघ परिवार का भी आखिरी  सच हो जाएगा जहां सत्ता ही विचार है और सत्ता ही हिंदुत्व का नारा है।

तीसरा, क्या वाजपेयी के दौर में बीजेपी के कांग्रेसीकरण को लेकर जो बैचेनी आरएसएस में थी, उसका नया चेहरा मोदी काल में नए तरीकों से उभरेगा जो संघ को आत्मचिंतन की दिशा में ले जाएगा।


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श्यामा प्रसाद मुखर्जी की कश्मीर वाली सोच नहीं चाहिए, अगर सत्ता में बने रहने की गांरटी हो जाए, तो कॉमन सिविल कोड का कोई मतलब नहीं है अगर सत्ता बनी रहे तो। यानी सोशल इंजीनियरिंग का जो फॉर्मूला देवरस से होते हुए गोविंदाचार्य ने अपनाया, वह मोदी-शाह काल में फिट बैठता नहीं है।

ये ठीक वैसे ही है, जैसे सावरकर का हिंदुत्व हेडगेवार के हिंदुत्व से टकराता रहा और 1966 में जब जनसंघ के अध्यक्ष की बात आई, तो लिबरल वाजपेयी की जगह कट्टर बलराज मघोक को गुरु गोलवरकर ने पंसद किया और यही दोहराव दीनदयाल उपाध्याय की मौत के बाद 1969 में ना हो जाए तो वाजपेयी ने खुद की कट्टर छवि दिखते हुए संघ के मुखपत्र ऑर्गनाइजर में हिंदुत्व की धारणा पर लेख लिखा  जिसमें कट्टर मुस्लिम विरोधी के तौर पर वाजपेयी की छवि उभरी और 1969 में वाजपेयी जनसंघ के अध्यक्ष बने। यानी संघ या उसकी राजनीतिक पार्टी के भीतर के सवाल लगातार सत्ता पाने और हिंदुत्व की विचारधारा के अंतर्द्वंद्व में जनसंघ के बनने से ही फंसे रहे। उसका जवाब ना तो 1977 में जनता पार्टी के बनने से मिला ना ही 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद मिला और एक बार फिर यही सवाल 2018 में संघ-बीजेपी के सामने आ खड़ा हुआ है। क्योंकि राजनीतिक तौर पर जनसंघ की सफलता कभी 10 फीसदी वोट को छू नहीं पाई।

गैर कांग्रेसवाद के नारे तले 1967 में जनसंघ को सबसे बड़ी सफलता 94 फीसदी वोट के साथ 35 सीटों पर जीत की मिली। लेकिन इंदिरा गांधी के खि लाफ जेपी की अगुवाई में संघ के सरसंघचालक देवरस ने 1977 में 41 फीसदी वोट के साथ 292 सीटों पर सफलता पाई। ये सफलता भी स्थायी नहीं रही क्योंकि जनता पार्टी आरएसएस की विचारधारा से नहीं बल्कि संघ के तमाम स्वयंसेवकों के संघर्ष और आपातकाल के खिलाफ तमाम राजनीतिक दलों की एकजुटता से निकली थी जिसमें मोरारजी से लेकर कांग्रेस के दलित नेता बाबू जनजीवन राम भी थे। किसान नेता चरण सिंह भी थे। संघ अपने बूते सियासी सफलता की खोज में ही अयोध्या आंदोलन की दिशा में बढ़ा। शुरुआत में अयोध्या आदोलन भी संघ के बिखरते विचारों को एक छतरी तले लाने के लिए शुरू हुआ।

लेकिन बाद में इसे सत्ता में आने के रास्ते के तौर पर जब देखा गया, तो जो वाजपेयी रामरथ यात्र से दूरी बनाए हुये थे वह भी 5 दिसबंर 1992 को अवतरित होकर अयोध्या की जमीन समतल बनाने का एलान करने से नहीं चूके।

सवाल ये नहीं है कि कि सत्ता पाने के जिस ककहरे को मौजूदा बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह पढ़ा रहे हैं और मोदी उसका चेहरा बने हुए हैं, वह सत्ता ना पाने के हालात में डगमगा जाएगा, तब क्या होगा? या फिर वाजपेयी के निधन के बाद जिस रास्ते पर मोदी निकलना चाहते हैं, उस रास्ते पर क्या बीजेपी चल पाएगी या संघ परिवार साथ खड़ा रह पाएगा।

या फिर सबकुछ किसी जुए सरीखा हो चला है कि सत्ता रहेगी तो ही संघ का विस्तार होगा। सत्ता न रहेगी तो कहीं टिक नहीं पाएंगे। दोबारा जेल जाने का भय पैदा हो जाएगा। यानी अपने हिंदुत्व के प्रयोग के अंतर्विरोध को ढोते-ढोते संघ परिवार भी सत्ता के अंतर्विरोध में फंस गया है, जहां राम मंदिर नहीं चाहिए अगर सत्ता में बने रहने की गांरटी हो तो।


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