भारत-पाक शांति प्रयास

वाजपेयी-शरीफ़ सुलह की कोशिश फ़ौज ने नाकाम की थी, 20 साल बाद फि़र वही चुनौती
जिस दिन इमरान खान ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री पद की शपथ ली,
पाकिस्तान
में जनरल जिया उल हक की 30वीं बरसी मनाई जा रही थी। मेरे
लिए दोनों देशों के निर्वाचित नेताओं के
बीच शांति बहाली की नाटकीय कोशिश की अनकही कहानी कहने का यही सही समय है। 1997 में नवाज शरीफ दूसरी बार पाकिस्तान के
प्रधानमंत्री बने थे। कुछ ही समय बाद भारत में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की सरकार बनी। पोकरण-2 और बदले में
चगाई में परमाणु परीक्षण के बाद दोनों देशों के रिश्ते ठंडे बस्ते में थे। 1998 की
अंतिम तिमाही में दोनों नेता बातचीत चाहते थे लेकिन, दोनों देशों में
गहरा अविश्वास था। दिल्ली-लाहौर बस सेवा का सुझाव भी उलझनों का शिकार था।
जाड़ों के उन शुरुआती दिनों में मेरे पास पाकिस्तान से एक डाक आई।
लिफाफे पर लिखा था ‘पाकिस्तान के प्रधानमंत्री की ओर से’। मैंने कुछ महीने पहले
पाकिस्तानी प्रधानमंत्री से इंटरव्यू का निवेदन किया था, यह उसी का जवाब
था। मैंने उन्हें फोन करके पूछा कि अगर दोनों प्रधानमंत्री कोई पहल ही नहीं करते
हैं तो बातचीत किस विषय पर होगी? आप लोग तो एक बस तक नहीं चला पा रहे
हैं। नवाज शरीफ ने धीमी आवाज में अधिकारियों से अपनी शिकायत दर्शाई। मैंने कहा कि
वे इंटरव्यू के दौरान ही बस की घोषणा कर पहली बस में हमारे प्रधानमंत्री को
आमंत्रित क्यों नहीं करते?
शरीफ को बात पसंद आई। उन्होंने मुझसे पूछा कि अगर भारतीय
प्रधानमंत्री पेशकश ठुकरा दें तो यह बहुत खराब लगेगा। मैंने उनसे कहा कि मैं देखता
हूं। वाजपेयी को भी यह विचार पसंद आया। उन्होंने कहा कि मैं वापस आने के बाद उनसे
मिलूं और तब तक इसे प्रकाशित न करूं। इंटरव्यू लाहौर में शरीफ के घर पर हुआ। शरीफ
ने वादा निभाया। उन्होंने कहा कि बस सेवा शुरू हो और वाजपेयी उसी बस से पाकिस्तान
आएं। वाजपेयी ने मुझसे कहा कि इंटरव्यू को
एक दिन रोककर रखूँ । वे चाहते थे कि जिस दिन सुबह वे लखनऊ पहुंचें, साक्षात्कार
उस दिन प्रकाशित हो। वे चाहते थे कि एक पत्रकार उनसे शरीफ के इस आमंत्रण के बारे
में सवाल करे और इससे पहले कि विदेश मंत्रलय अपने संदेह सामने लाए, वे
इसे सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर लें। बाकी बातें इतिहास में दर्ज हैं। भारी
नाटकीयता के साथ यात्र संपन्न हुई। कुछ असहज स्थितियां भी बनीं जब पाकिस्तानी फौज
के तब के प्रमुख जनरल परवेज मुशर्रफ ने वाजपेयी को स्वागत में सलामी देने से मना
कर दिया। वाजपेयी ने मीनार-ए-पाकिस्तान की सीढ़ियां चढ़ीं और कहा कि एक स्थिर और
समृद्ध पाकिस्तान भारत के हित में है। ऐसा लगा कि इतिहास बन रहा है।
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किस्सा यहीं खत्म नहीं हुआ। दोनों प्रधानमंत्री जहां शांति स्थापना
में लगे थे वहीं उन्हें गाफिल रखकर पाकिस्तानी फौज करगिल में मीलों भीतर घुस आई
थी। मई के मध्य में पहली झड़प हुई। भारत ने 26 मई को हवाई
शत्तिफ़ का इस्तेमाल किया। अगले दिन कंधे पर रखकर दागी गई मिसाइलों से दो मिग
विमान नष्ट हो गए। कैनबरा विमान का एक इंजन मिसाइल से क्षतिग्रस्त हुआ लेकिन,
उसे
सुरक्षित उतारने में कामयाबी मिली। मैं मुंबई के एक होटल में था। सुबह 6-30
बजे ही मेरा फोन बज उठा। सामने से कहा गया कि प्रधानमंत्री बात करना चाहते हैं।
उन्होंने पूछा, ‘ये क्या कर रहा है मित्र आपका?’ उनकी आवाज में
चिंता थी।
उन्होंने कहा कि यह सब तब हो रहा है जब पाकिस्तानी सेना प्रमुख चीन
में हैं। ‘क्या आप अपने मित्र से पूछेंगे कि यह सब क्या हो रहा है?’ मैंने
इस्लामाबाद उस नंबर पर एक संदेश दिया। उसी रात मेरे पास फोन आ गया। शरीफ भी उतने
ही उलझे हुए थे जितने कि वाजपेयी। उन्होंने मुझसे कहा, ‘मित्र आप उनसे
कह सकते हैं कि मैं उन्हें धोखा नहीं दूंगा। मुझसे कल कहा गया कि नियंत्रण रेखा पर
कुछ झड़प हुई है। आज बताया गया कि हवाई सीमा का उल्लंघन हुआ है। मैं चकित हूं।’
उन्होंने वाजपेयी से बात करने की इच्छा जताई। मेरी वापसी पर वाजपेयी और ब्रजेश
मिश्रा ने मुझे बुलाया। उन्होंने कहा, ‘हमारे लोगों’ ने जनरल मुशर्रफ और उनके
डेप्यूटी के बीच बातचीत के कुछ फोन टेप किए हैं, जिनसे पुष्टि
होती है कि करगिल पूरी तरह सैन्य ऑपरेशन है। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं पुनः
एक इंटरव्यू के बहाने पाकिस्तान जाकर नवाज शरीफ को उन टेप के बारे में बताऊंगा।
मैंने विनम्रतापूर्वक कहा कि ऐसा करना उचित नहीं होगा। उस वत्तफ़ ऑब्जर्वर रिसर्च
फाउंडेशन से जुड़े आरके मिश्रा ने इस्लामाबाद की कई यात्रएं कीं। उन्होंने शरीफ को
वे टेप भी सौंपे। वाजपेयी के नेतृत्व में भारत करगिल विजय में कामयाब रहा। उनके कद
में भारी इजाफा हुआ। अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के दबाव में शरीफ शांति
स्थापना के लिए आए लेकिन, सेना के साथ उनके रिश्ते बिगड़ गए,
कुछ
ही माह में तख्तापलट हो गया, उन्हें कैद किया गया और लंबे निर्वासन
पर भेज दिया गया। इसके साथ ही किसी पाकिस्तानी निर्वाचित नेता
द्वारा फौज से विदेश और रणनीतिक खासतौर पर भारत संबंधी नीतियां अपने
हाथ में लेने का सबसे कड़ा प्रयास खत्म हो गया। यह असंभव-सी बात है कि इमरान असली
सत्ता के लिए फौज-आईएसआई को चुनौती देने का साहस जुटा पाएंगे।
पाकिस्तान के नए प्रधानमंत्री के लिए कई सबक हैं। एक, भारत
के साथ शांति स्थापना के प्रयास जोखिम भरे हैं और फौज की अनदे जोखिम रखी करके ऐसा करना
आत्मघाती हो सकता है। दो, सैन्य प्रतिष्ठान ने पाकिस्तान के किसी
निर्वाचित प्रधानमंत्री को अपना कार्यकाल पूरा नहीं करने दिया है और तीन, हर
निर्वाचित प्रधानमंत्री का निर्वासन हुआ, जेल हुई या उसे जान गंवानी पड़ी है,
या
जैसा बेनजीर भुट्टो के साथ हुआ, तीनों भुगतना पड़ा। इमरान खान ने जीवन
में कई जोखिम उठाए हैं। क्रिकेट में, रिश्तों में, शादी और राजनीति
में भी परंतु उनके देश में सत्ता का मूल समीकरण अपरिवर्तित है। अगर वे शांति स्थापना का प्रयास करेंगे तो साफ
है कि सेना के इशारे पर। अगर कोई नई शुरुआत होती है तो मैं इसका हिस्सा कभी नहीं
बनूंगा। आज यह किस्सा बताने के चार कारण
हैंः वाजपेयी का निधन हो चुका है। नवाज शरीफ जेल में हैं। इमरान खान ने शपथ ग्रहण
कर ली है और सबसे महत्वपूर्ण अब उस बात को 20 वर्ष बीत चुके
हैं।
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