रुपए की फि़सलन रोकने के उपाय

सरकार डॉलर की मांग घटाने हेतु चाह रही है कि गैरजरूरी आयात कम करें। लेकिन यह बीते जमाने का टोटका है। इससे बात नहीं बनेगी।
इस वित्तीय वर्ष की शुरुआत यानी अप्रैल 2018 में एक डॉलर का
मूल्य 65 रुपए से थोड़ा अधिक था। लेकिन अब अक्टूबर 2018 में एक डॉलर का
मूल्य लगभग 75 रुपए हो गया है। सभी जानना चाहते हैं कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है?
इसे
समझने के लिए एक उदाहरण तो सब्जियों और फलों के ऊपर-नीचे होते दाम हैं। प्याज कभी 20
रुपए किलो बिकता है और कभी 70-80 रुपये किलो तक भी चढ़ जाता है। प्याज 70-80
रुपए किलो तब बिकता है, जब किन्हीं वजहों से उसकी आपूर्ति घटती है, परंतु मांग बनी
रहती है। यही बात अन्य सब्जियों और फलों पर भी लागू होती है।
लगभग यही बात रुपये और डॉलर पर भी लागू होती है। जब कभी डॉलर की मांग
बढ़ जाती है, तब रुपये का मूल्य गिर जाता है। विश्व व्यापार प्रणाली डॉलर के
बलबूते पर चलती है। देश निर्यात करके डॉलर कमाते हैं और फिर उससे ही आयात करते
हैं। भारत निर्यात से ज्यादा आयात करता है। इसकी वजह से हर साल व्यापार घाटा होता
है। अप्रैल से अगस्त 2018 के दौरान भारत का व्यापार घाटा 80-5
बिलियन डॉलर रहा। इस वित्तीय वर्ष में 136 बिलियन डॉलर का कुल निर्यात हुआ,
पर
आयात हुआ 216-5 बिलियन डॉलर का। इसका मतलब यह हुआ कि निर्यात से भारत ने जितने डॉलर
कमाए, वे आयात के दाम देने के लिए पर्याप्त नहीं। अब प्रश्न उठेगा कि हमारे
पास डॉलर आ कहां से रहे हैं? एक तो विदेशी निवेशक डॉलर लाते हैं। यह
निवेश या तो प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआई के रूप में होता है या फिर विदेशी
पोर्टफोलियो निवेश के रूप में। जब विदेशी निवेशक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के रूप
में डॉलर लाते हैं, तो उस पैसे से या तो कंपनियां खरीदी जाती हैं या नई कंपनियां बनाई
जाती हैं। पोर्टफोलियो इन्वेस्टमेंट वाला पैसा शेयर बाजार और ऋण बाजार में लगाया
जाता है।
लेकिन यहां पर यह भी ध्यान रहे कि विदेशी निवेशक डॉलर बाहर भी ले
जाते हैं। इस साल अप्रैल से जुलाई के बीच विदेशी निवेशक केवल 4-2
बिलियन डॉलर देश में लाए। इसे शुद्ध निवेश कहा जा सकता है। यह 2014 से
अब तक की सबसे कम रकम है। अब विदेशी निवेशक ऋण बाजार से अपना पैसा निकाल रहे हैं।
उन्होंने यह पैसा अमेरिका और योरप से बहुत कम ब्याज दरों पर उठाकर भारत में लगाया
था। तब भारत में ब्याज दरें अधिक थीं, इसलिए कमाई की गुंजाइश थी। चूंकि अब
अमेरिका और योरप में ब्याज दरें बढ़ सकती हैं, इसलिए विदेशी
निवेशक भारत से डॉलर निकाल रहे हैं। यह सिलसिला कुछ समय तक कायम रह सकता है।
डॉलर का एक और स्रोत सेवाएं हैं। हमारी इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी
कंपनियां विदेश में अपनी सेवाओं से डॉलर कमाकर भारत लाती हैं। इसी तरह विदेशी
पर्यटक भारत आते हैं, तो डॉलर रुपए में बदल कर ऽर्च करते हैं। इस सबसे कुल 25-9
बिलियन डॉलर अप्रैल से जुलाई के बीच देश में आया। यह पिछले साल के मुकाबले 10
प्रतिशत अधिक था।
डॉलर का एक और बड़ा स्रोत रेमिटेंस भी है। जो भारतीय देश से बाहर काम
करते हैं, वे अपने घर पैसा डॉलर के रूप में भेजते हैं। इस साल अप्रैल से जून के
बीच रेमिटेंस के जरिए देश में 17 बिलियन डॉलर रकम आई। यह पिछले साल के
मुकाबले 18-4 प्रतिशत अधिक थी। इसके बावजूद ये सब डॉलर 80-5 बिलियन डॉलर के
व्यापार घाटे को पाटने के लिए काफी नहीं और इसीलिए डॉलर की मांग बढ़ रही है और उसके
मुकाबले रुपये का मूल्य गिर रहा है।
भारतीय रिजर्व बैंक ने इस गिरावट को रोकने की काफी कोशिश की। मार्च
के अंत में रिजर्व बैंक का विदेशी मुद्रा भंडार करीब 399 बिलियन डॉलर
था। अगस्त के अंत तक वह 376 बिलियन डॉलर पर आ गया। इसका मतलब यह
हुआ कि रिजर्व बैंक ने अपने मुद्रा भंडार से डॉलर बेचकर और रुपया ऽरीदकर डॉलर की
आपूर्ति बढ़ाने की जो कोशिश की, उससे रुपए का गिरना बंद तो नहीं हुआ,
लेकिन
गति थोड़ी धीमी जरूर हुई।
व्यापार घाटा बढ़ने की बड़ी वजह है अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल के
दामों का बढ़ना। भारत में तेल की जितनी खपत होती है, उसका 80
फीसदी से अधिक हिस्सा आयात होता है। चूंकि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल अमेरिकी
डॉलर में बेचा जाता है इसलिए जब भी तेल के दाम बढ़ते हैं, तो भारत में
अमेरिकी डॉलर की मांग बढ़ जाती है। इस साल अप्रैल से अगस्त के बीच कच्चे तेल का औसत
दाम करीब 72-9 डॉलर प्रति बैरल रहा, जबकि पिछले साल इसी अवधि में वह 49-6
डॉलर प्रति बैरल था। इसकी वजह से तेल आयात पर हुआ ऽर्च अप्रैल से जुलाई के बीच 59
फीसदी बढ़कर 39-1 बिलियन डॉलर हो गया।
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चूंकि भारत निर्यात से पर्याप्त डॉलर नहीं कमाता, इसलिए
विश्व बाजार में तेल का दाम जब भी बढ़ेंगे, रुपये का मूल्य गिरेगा। पिछले कई सालों
से भारत का निर्यात बढ़ नहीं रहा है। वर्ष 2011-12 में कुल
निर्यात 306 बिलियन डॉलर था और 2017-18 में यह 303 बिलियन डॉलर
रहा। कच्चे तेल के अलावा भारत का गैर तेल आयात भी बढ़ रहा है और उससे भी डॉलर की
मांग बढ़ रही है। इस वर्ष अप्रैल से अगस्त तक हमारा गैर तेल आयात 57-6
बिलियन डॉलर रहा। यह 2014-2015 के बाद सबसे अधिक रहा।
आखिर किया क्या जाए, ताकि रुपए को डॉलर के मुकाबले गिरने से
बचाया जा सके? निःसंदेह यह नहीं हो सकता कि रिजर्व बैंक डॉलर बेचता रहे और रुपए को
गिरने से बचाता रहे, क्योंकि उसके पास असीमित डॉलर नहीं हैं और यह जाहिर ही है कि अप्रैल
से अगस्त के बीच डॉलर बेचकर भी रुपए में गिरावट को रोका नहीं जा सका। सरकार डॉलर
की मांग कम करने के लिए यह चाह रही है कि गैर-जरूरी आयात कम किए जाएं। लेकिन यह 1970-80 के
दशक का टोटका है। इससे बात बनने वाली नहीं है। भारत जो तमाम वस्तुएं आयात करता है,
जैसे
कच्चा तेल, इलेक्ट्रॉनिक्स एवं रक्षा उत्पाद, सोना आदि वह
भारत में बनता ही नहीं। अगर इन चीजों का देश में आना महंगा हो जाएगा, तो
मुद्रास्फीति की दर बढ़ सकती है। इसके अलावा तस्करों की चांदी हो सकती है। यह सही
है कि भारतीय देश से बाहर घूमने-पढ़ने में बहुत अधिक पैसा खर्च कर रहे हैं और इससे
भी डॉलर की मांग बढ़ रही है। लेकिन आखिर इसे रोका कैसे जा सकता है?
मौजूदा माहौल में डॉलर की आपूर्ति बढ़ाने के लिए बेहतर होगा कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को और खोला जाए। मल्टीब्रांड फॉरेन रिटेलिंग में सौ फीसदी विदेशी निवेश की अनुमति देने पर भी विचार किया जा सकता है। इसके अलावा निर्यात बढ़ाने की भी गंभीर कोशिशें होनी चाहिए। कुछ अर्थशास्त्रियों का विचार है कि भारत सरकार को अनिवासी भारतीयों के लिए एक बांड जारी करना चाहिए। एक शॉर्टकट के रूप में यह एक अच्छा विचार है, लेकिन हमारी सरकार जब तक संरचनात्मक कारणों पर ध्यान नहीं देगी, तब तक डॉलर के मुकाबले रुपए की कमजोरी बरकरार ही रहेगी।
-विवेक कौल