बहुजन सियासत की दिलचस्प होड़

भीम आर्मी के चंद्रशेखर से दूरी बनाकर उनके असर को निष्प्रभावी करना मायावती की रणनीति का हिस्सा हो सकता है।
बहुजन राजनीति आज एक ऐसे मोड़ पर आ खड़ी हुई है, जहां अनेक
प्रश्न उठने लगे हैं। एक तरफ उपेक्षित, अनुसूचित एवं अति पिछड़े समुदायों में
असमान विकास दिख रहा है। दूसरी ओर उनमें एक शिक्षित, प्रभावी एवं
शत्तिफ़शाली समुदाय उभर रहा है। वहीं उनका बहुलांश अभी भी उपेक्षा का शिकार है।
ऐसे में बहुजन राजनीति को अपनी भाषा से ऐसे बहुस्तरीय बहुजन मानसिकता को संबोधित
करना होगा। ऐसा नहीं होने से बहुजन राजनीति में तरह-तरह के मुद्दे, भाषा
एवं विमर्श से परिपूर्ण अनेक प्रकार के नेतृत्व के उभार भी संभावना है।
कांशीराम और मायावती के नेतृत्व में उत्तर भारत में ‘दलित-बहुजन
राजनीति ने प्रभावी सफलता हासिल की है, किंतु इसी प्रक्रिया में अनुसूचित
जातियों में भी बहुस्तरीय एवं असमान विकास हुआ है। ऐसे में पिछले दशक से ही
मायावती के समक्ष यह संकट आ खड़ा हुआ था कि कैसे इस बहुस्तरीय एवं बहुभेदी अनुसूचित
जाति को एक भाषा एवं एक प्रकार के विमर्श से जोड़कर रखा जाए। कांशीराम के समक्ष
अनेक जातियों एवं अस्मिताओं में बंटे अनुसूचित एवं बहुजन समाज को इकट्ठा करने की चुनौती थी, जिसके लिए उन्होंने अनेक बहुजन जातीय अस्मिताओं को सम्मान व स्थान
देते हुए एक राजनीतिक भाषा विकसित की, जो उत्तर भारत और खासकर उत्तर प्रदेश
की राजनीति में सफल भी हुई। फिर भी अनुसूचित समूहों में नव-आकांक्षी संस्तर
विशेषकर युवा वर्ग जो स्मार्टफोन और मोटरबाइक से लेकर शिक्षा और नौकरी की शत्तिफ़
से लबरेज हो रहा था, वह जनमत निर्माता एवं नेतृत्वकारी शत्तिफ़ के रूप में उभरने लगा।
इनमें से अधिकांश तो मायावती के नेतृत्व वाली बहुजन राजनीति से जुड़े रहे, मगर
तमाम लोगों में इस राजनीति के प्रति नाराजगी भी बढ़ी।’
बहरहाल, यह नाराजगी अपनों की नाराजगी है। लिहाजा हमें यह समझना होगा। नाराज
होकर भी अंततः उनके बहुलांश का समर्थन चुनावों में बसपा के नेतृत्व वाली बहुजन
राजनीति के ही पक्ष में जाने की संभावना बहुजन समाज के लोगों से होने वाली बातचीत
में साफ झलकती है। हालांकि अन्य सामाजिक समूहों की ही तरह अनुसूचित सामाजिक समूहों
के राजनीतिक मत में भी अनेक धुरी, ध्रुव एवं राजनीतिक पक्षधरता बनने एवं
विकसित होने की संभावना सदैव रहती है।
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पिछले दिनों बहुजन राजनीति में अनेक दमनकारी घटनाओं का विरोध करने के
क्रम में जिग्नेश मेवाणी और चंद्रशेखर जैसे युवा नेता की तरह उभरे। मूल रूप से
सिविल सोसाइटी, एनजीओ आंदोलन से निकलकर आए इन नेताओं के पास अपने समाज के प्रभावी
आधिपत्यशाली समूह, जो स्थानीय समाज में दलितों के साथ व्यवहार को लेकर सवालों में रहते
हैं, के विरुद्ध एक आक्रामक भाषा है। कांशीराम और मायावती के नेतृत्व में
उभरे बहुजन आंदोलन के शुरुआती दौर में भी बसपा के पास समाज के आधिपत्यशाली समूहों
के विरुद्ध विद्रोह की भाषा थी, जिसके आधार पर बहुजन समाज की उनके पक्ष
में गोलबंदी की शुरुआत हुई थी। इसमें ब्राह्मण, ठाकुर और बनिया
जैसे सामाजिक समूहों को अपने से अलग मनुवादी सामाजिक समूह माना गया था। मगर
जैसे-जैसे बहुजन राजनीति का विस्तार होता गया तो बसपा को ऐसी भाषा की जरूरत हुई
जिसमें अनेक संस्तरों में बंटा बहुजन समाज जगह पा सके। फिर और ज्यादा फैलाव होने
के बाद उन्हें सवर्णों और अन्य प्रभावी जातियों को भी स्वयं से जोड़ने की जरूरत
महसूस हुई। फिर बहुजन से सर्वजन की यात्र शुरू हुई। ब्राह्मण, ठाकुर,
बनिया
छोड़ की जगह ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा जैसे नारों ने ले ली।
लेकिन बसपा की इस बहुजन से सर्वजन की यात्र के क्रम में अनुसूचित
समूहों का एक बड़ा वर्ग जो आज भी राजनीति में अदृश्य सामाजिक समूह की तरह जीवित है,
छूटने
लगा। दूसरी ओर बहुजन समाज के प्रभावी समूहों को लगने लगा कि राजनीति एवं राज्य
केंद्रित परियोजनाओं का हमारा हिस्सा बसपा एवं बहनजी सवर्णों व मुस्लिमों को दे
रही हैं। कई बार सियासी आंदोलन की केंद्रीयता बढ़ने से बहुजन आंदोलन में अनुसूचित
जातियों के सामाजिक मुद्दे, उत्पीड़न के सवाल बसपा के एजेंडे में
गौण होते गए।
बहुजन आंदोलन के सामाजिक प्रोजेक्ट के इसी निर्वात में से उप्र भीम
आर्मी एवं चंद्रशेखर जैसे स्वर का उभार हुआ। ज्ञातव्य है कि बसपा सामाजिक आंदोलनों
से ही उभरकर आई और कांशीराम के नेतृत्व में अपनी शुरुआती अवस्था में सामाजिक
आंदोलन एवं सियासी सत्ता प्राप्ति की लड़ाई दोनों को साथ लेकर चल रही थी। यहां
प्रश्न है कि जिग्नेश मेवाणी एवं चंद्रशेखर जैसे युवा नेतृत्व के उभार का बसपा की
राजनीति एवं बहुजन आंदोलन पर क्या असर पड़ेगा? एक तो मायावती
को इन स्वरों को अपने में समाहित करना होगा।
चंद्रशेखर ने अपने नाम के साथ लगा ‘रावण उपनाम हटा दिया। ऐसा
उन्होंने इसलिए भी किया, क्योंकि उन्हें भान हुआ कि उपेक्षित
समूहों में तमाम लोग रामायण के रावण की प्रतीक छवि को आत्मसात नही करेगें। कबीर
पंथ, रविदास पंथ, शिवनारायणी पंथ में विश्वास करने वाली
अधिकांश बहुजन जनता राममय तो नहीं है, पर उन्हें रावण भी स्वीकार्य नहीं। यह
चंद्रशेखर की बहुजन समाज के एक बड़े हिस्से को लामबंद करने की आगामी रणनीति का
हिस्सा है। मायावती को लगता है कि चंद्रशेखर एक ओर मुझसे करीबी रिश्ता घोषित कर
रहा है, हमारा समर्थन कर रहा है, दूसरी तरफ भीम आर्मी को मजबूत करने की
बात कर रहा है। साथ ही अनुसूचित समूहों में अपने अभियान को गति भी देना चाहता है।
शायद यही पहलू मायावती के मन में स्वयं के प्रति चंद्रशेखर की सियासी ईमानदारी को
लेकर संदेह पैदा कर रहा है।
चंद्रशेखर ने आगामी
चुनावों में भाजपा को हराने एवं गठबंधन को समर्थन देने की घोषणा की है। देखना है
कि यह किस रूप में मूर्तरूप लेता है। क्या वह भीम आर्मी को मजबूत करते हुए भी गैर
भाजपाई दल से जुड़ेंगे? क्या
वह इमरान मसूद से व्यत्तिफ़गत संबंधों के कारण जिग्नेश की तरह कांग्रेस से जुड़
पाएंगे? या मायावती उन्हें बसपा
की राजनीति में जगह देंगी? या वह
आगामी चुनाव में बिना किसी सियासी दल का हिस्सा हुए अपनी राजनीतिक पक्षधरता तय
करेगें? इनके उत्तर झलक तो रहे
हैं, पर अभी स्पष्ट नही हुए
हैं।
- बद्री नारायण
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