भारतीय राजनीति में मोदी ने कैसे अपनी कामयाबी का परचम लहराया
नरेंद्र मोदी ने 2019 के आम चुनावों में जोरदार जीत हासिल
कर पांच साल का दूसरा कार्यकाल हासिल कर लिया है। मोदी की इस कामयाबी से जुड़ी अहम
बातें निम्नांकित हैं-
1- शानदार जीत केवल और केवल नरेंद्र मोदी की जीत
भारत का ध्रुवीकरण करने वाले प्रधानमंत्री ने इस चुनाव को अपने
इर्द-गिर्द समेट दिया था। हालांकि उनके सामने चुनौतियां भी थीं। एंटी इनकंबैंसी का
फैक्टर था।
बेरोजगारी रिकॉर्ड स्तर तक बढ़ चुकी थी, किसानों की
आमदनी नहीं बढ़ी थी और औद्योगिक उत्पादन में गिरावट थी। कई भारतीयों को नोटबंदी से
काफी नुकसान उठाना पड़ा। नोटबंदी के बारे में सरकार का दावा कर रही थी इससे घोषित
संपत्ति को बाहर निकलवाने में कामयाबी मिलेगी। इसके अलावा जीएसटी को लेकर भी कई
शिकायतें थीं।
लेकिन चुनावी नतीजों से साफ है कि आम लोग इन सबके लिए मोदी को
जिम्मेदार नहीं मानते। नरेंद्र मोदी अपने भाषणों में लगातार कहते आए हैं कि उन्हें
60 साल की अव्यव्स्था को सुधारने के लिए पांच साल से ज्यादा का वक्त
चाहिए। आम लोगों ने उन्हें ज्यादा वक्त देने का फैसला किया।
कई लोग मोदी को उनकी समस्याओं को हल करने वाला मसीहा भी मानते हैं।
दिल्ली के थिंक टैंक सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज (सीएसडीएस) के एक
सर्वे के मुताबिक बीजेपी के हर तीसरे मतदाता का कहना है कि अगर मोदी प्रधानमंत्री
पद के उम्मीदवार नहीं होते तो वे अपना वोट किसी दूसरी पार्टी को देते।
दरअसल, इंदिरा गांधी के बाद मोदी भारत के सबसे लोकप्रिय नेता साबित हुए हैं।
वाशिंगटन के कारनेजी इंडोमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस के सीनियर फेलो मिलन वैष्णव कहते
हैं, ‘इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि यह वोट बीजेपी से ज्यादा मोदी के लिए
है। यह चुनाव सबकुछ छोड़कर मोदी के नेतृत्व के बारे में था।’
एक तरह, मोदी की लगातार दूसरी बार शानदार जीत हासिल करने वाले मोदी की तुलना 1980 के
दशक लोकप्रिय अमरीकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन से की जा सकती है, जिसे
उस वक्त के आर्थिक मुश्किलों के लिए जनता ने जिम्मेदार नहीं ठहराया था।
रीगन को हमेशा ग्रेट कम्यूनिकेटर माना जाता था और इस खासियत के चलते
ही उनकी गलतियां कभी भी उनसे चिपकीं नहीं। मोदी भी उसी राह पर नजर आते हैं।
बहुत लोगों का मानना है कि मोदी ने भारतीय चुनाव को अमरीका के
प्रेसीडेंशियल इलेक्शन जैसा बना दिया है। लेकिन मजबूत प्रधानमंत्री भी अपनी
पार्टियों से ऊपर नजर आते रहे हैं- मार्गेट थैचर, टोनी ब्लेयर और
इंदिरा गांधी का उदाहरण सामने है।
डॉक्टर वैष्णव बताते हैं, ‘इंदिरा गांधी के बाद नरेंद्र मोदी देश
के सबसे लोकप्रिय नेता हैं, इस पर कोई सवाल नहीं है। मौजूदा समय
में राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें कोई चुनौती देने की स्थिति में भी नहीं है।’
2014 में उनकी जीत की एक वजह भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी कांग्रेस
पार्टी के प्रति लोगों की नाराजगी भी थी। लेकिन अबकी बार जो जीत मिली है वह मोदी
को स्वीकार किए जाने की जीत है। वे 1971 के बाद ऐसे पहले नेता बन गए हैं
जिन्होंने लगातार दो बार अकेली पार्टी को बहुमत दिलाया है। अशोका यूनिवर्सिटी में
इतिहास के प्रोफेसर महेश रंगराजन कहते हैं, ‘यह मोदी और नए
भारत को लेकर उनके विचार की जीत है।’
2- विकास और राष्ट्रवाद का कॉकटेल
राष्ट्रवाद, धार्मिक धुव्रीकरण और जनकल्याण की कई
योजनाओं के आपसी गठजोड़ ने नरेंद्र मोदी को लगातार दूसरी बार जीत दिलाई है।
एक तरह से कटुता भरे और समाज को बांटने वाले चुनावी अभियान में मोदी
ने राष्ट्रवाद और विकास के कॉकटेल को मुद्दा बनाया। उन्होंने समाज को दो वर्गों
में पेश किया, एक वे जो उनके समर्थक हैं, वो राष्ट्रवादी हैं और जो उनके
राजनीतिक विरोधी हैं और आलोचक हैं उन्हें उन्होंने एंटी नेशनल कहा।
मोदी ने खुद को चौकीदार कहा, देश की जमीन, हवा और बाहरी
अंतरिक्ष, सबकी सुरक्षा करने वाला बताया और जबकि मुख्य विपक्षी कांग्रेस पार्टी
को भ्रष्टाचारी बताया।
इसके साथ उन्होंने विकास का वादा भी दोहराया। मोदी ने गरीबों को
ध्यान में रखकर जनकल्याण योजनाएं शुरू कीं, जिनमें गरीबों
के लिए मकान, शौचालय, क्रेडिट, और कुकिंग गैस की व्यव्स्था शामिल थीं। तकनीक के इस्तेमाल से इसे
जल्द लागू किया गया। हालांकि इन सुविधाओं की गुणवत्ता और यह गरीबी दूर करने में
कितना कामयाब रहा, इस पर बहस संभव है।
नरेंद्र मोदी ने इस चुनाव में राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति को भी
जोशोर से उछाला। हाल के चुनावों में इससे पहले ऐसा कभी नजर नहीं आया था।
भारत प्रशासित कश्मीर में हुए आत्मघाती चरमपंथी हमले में 40
पैरामिलिट्री जवानों की मौत हुई, जिसके बाद भारत ने पाकिस्तानी सीमा में
एयर स्ट्राइक किया। इसका भी चुनावी फायदा हुआ। मोदी आम लोगों को यह समझाने में
कामयाब रहे कि अगर वे सत्ता में लौटते हैं तो देश सुरक्षित हाथों में रहेगा।
आम लोगों की विदेश नीति में दिलचस्पी नहीं होती है। लेकिन चुनावी
रिपोर्टिंग करने के दौरान हमें, किसानों, व्यापारियों और
श्रमिकों ने यह माना कि मोदी के नेतृत्व में भारत का सम्मान विदेशों में बढ़ा है।
कोलकाता में एक आम मतदाता ने कहा था, ‘ठीक है कि कम
विकास हुआ है लेकिन मोदी जी देश को सुरक्षित रख रहे हैं और भारत का सिर ऊंचा किया
हुआ है।’
3- मोदी की जीत राजनीति में बड़े बदलाव का संकेत
मोदी की छवि उनकी कैडर आधारित पार्टी से बड़ी हो गई है। वे कइयों के
लिए उम्मीद और आकांक्षाओं के प्रतीक बन गए हैं। मोदी और उनके बेहद विश्वस्त सहयोगी
अमित शाह, ने मिलकर पार्टी को एक मशीन के रूप में तब्दील कर दिया है। महेश
रंगराजन कहते हैं, ‘बीजेपी का जो भौगोलिक विस्तार हुआ है, वह बेहद अहम
बदलाव है।’
परंरागत तौर पर बीजेपी को उत्तर भारत के हिंदी बोलने वाले राज्यों
में व्यापक समर्थन मिलता रहा है (2014 में पार्टी ने जो 282
सीटें जीती थीं, उनमें 193 इन्हीं राज्यों में मिली थीं)। गुजरात और महाराष्ट्र अपवाद हैं।
गुजरात मोदी का गृह प्रदेश और बीजेपी का गढ़ है। वहीं महाराष्ट्र में
बीजेपी ने स्थानीय पार्टी शिवसेना से गठबंधन किया हुआ है। जब से मोदी प्रधानमंत्री
बने हैं, तब से बीजेपी ने असम और त्रिपुरा में सरकार बनाई हैं जो प्राथमिक तौर
पर असमिया और बंगाली बोलने वाले राज्य हैं।
इस चुनाव में बीजेपी ने कांग्रेस से ज्यादा सीटों पर अपने उम्मीदवार
उतारे। इतना नहीं बीजेपी ओडिशा और पश्चिम बंगाल में भी शक्तिशाली होकर उभरी है।
हालांकि दक्षिण भारत में पार्टी की मौजूदगी भर है, लिहाजा अभी भी
बीजेपी कांग्रेस की तरह अखिल भारतीय पार्टी नहीं बनी है। लेकिन बीजेपी उसी दिशा
में आगे बढ़ रही है।
बीस साल पहले जब बीजेपी, अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में
सत्ता में आई थी तब गठबंधन की सरकार थी और बीजेपी के सामने सबसे बड़ी पार्टी के तौर
पर स्थिर सरकार चलाने की चुनौती भी थी। जबकि मोदी के नेतृत्व में बीजेपी खुद ही
बहुमत में है। कोई भी मोदी और अमित शाह की हैसियत में नहीं हैं और वे आक्रामक
अंदाज की राजनीति करते हैं। पार्टी का तंत्र केवल चुनावी मौसम में नजर आता हो,
ऐसी
बात नहीं है। पार्टी स्थायी तौर पर चुनावी अभियान में जुटी नजर आती है।
राजनीतिक वैज्ञानिक सुहास पलिष्कर का मानना है कि एक पार्टी के प्रभुत्व वाले दौर में देश तेजी से आगे बढ़ेगा, जैसे कांग्रेस के नेतृत्व में अतीत में हो चुका है। वे इसे पार्टी प्रभुत्व वाली व्यवस्था का दूसरा दौर बताते हैं, जिसमें बीजेपी का दबदबा है जबकि कांग्रेस कमजोर बनी हुई है और क्षेत्रीय दल अपना आधार खोते दिख रहे हैं।
4- राष्ट्रवाद और मजबूत नेता की चाहत की अहम भूमिका
मोदी ने अपने चुनावी अभियान में राष्ट्रवाद को सबसे अहम मुद्दा बनाए
रखा। इसके सामने मतदाता अपनी आर्थिक मुश्किलों को भी भूल गए।
कुछ विश्लेषकों का मानना है कि मोदी के नेतृत्व में भारत एक विशिष्ट
संस्कृति वाले लोकतंत्र की ओर बढ़ रहा है, इसके संरक्षण के लिए लिए देश की बहुमत
वाली आबादी को सक्रिय होने की जरूरत होगी।
समाजशास्त्री सैमी समहा के मुताबिक यह काफी हद तक इसराइल जैसा होगा,
जो
अपनी यहूदी संस्कृति की पहचान के साथ-साथ पश्चिमी यूरोप की प्रेरणा से संसदीय
व्यवस्था को लागू किए हुए है।
तो क्या हिंदू राष्ट्रवाद भारतीय राजनीति और समाज की पहचान बन जाएगी
लेकिन यह इतना आसान नहीं होगा- भारत में काफी विविधताएं हैं। हिंदुत्व भी विविधता
वाली आस्था है। सामाजिक और भाषाई स्तर पर विभिन्नताएं ने भी देश को आपस में जोड़कर
रखा है। लोकतंत्र समाज को जोड़ने वाला एक और ग्लू है।
वैसे बीजेपी हिंदुत्व और राष्ट्रवाद को मिलाकर जिस हिंदू राष्ट्रवाद
की बात करती है, वह सभी भारतीयों को प्रभावित करे, ये जरूरी नहीं
है। प्रोफेसर रंगराजन कहते हैं, ‘दुनिया में कहीं ऐसी जगह नहीं है जहां
इतनी अधिक विविधता है और एकरूपता लाना मुश्किलों से भरा है।’
भारत में दक्षिणपंथ को लेकर यह झुकाव कोई नहीं बात नहीं है- यह
अमरीका में रिपब्लिकन पार्टी के सत्ता में आने के साथ हो चुका है और फ्रांस और
जर्मनी की राजनीति भी दक्षिणपंथ की ओर बढ़ रही है।
ऐसे में भारत का दक्षिणपंथी राजनीति की ओर झुकाव, एक
विस्तृत ट्रेंड का हिस्सा है जिसमें राष्ट्रवाद भी नए सिरे से परिभाषित हो रहा है
और सांस्कृतिक पहचान को भी नए सिरे से तय किया जा रहा है। ऐसे में मोदी के नेतृत्व
में भारत बहुसंख्यक आबादी का राज बन जाएगा, यह डर कितना सही
है?
मोदी ऐसे पहले नेता नहीं हैं जिन्हें आलोचक फासीवादी और सत्तावादी कह
रहे हैं। इससे पहले इंदिरा गांधी को भी ऐसा कहा गया था। 1975 में उन्होंने
देश में आपातकाल लागू किया था जिसके दो साल बाद ही आम लोगों ने उन्हें सत्ता से
बाहर का रास्ता दिखा दिया था।
मोदी बेहद मजबूत नेता हैं और लोग उन्हें इसलिए पसंद करते हैं। 2017
में आयी सीएसडीएस की एक रिपोर्ट बताती है कि 2005 में भारत में 70
प्रतिशत लोकतंत्र को पसंद करते थे जो 2017 में 63 प्रतिशत रह गए
थे। 2017 की एक रिपोर्ट में भी 55 प्रतिशत भागीदारों ने कहा था कि ऐसी
शासन व्यवस्था होनी चाहिए जिसमें कोई भी मजबूत नेता संसद और अदालत के दखाल के बिना
फैसला ले सके।
मजबूत नेता की चाहत केवल भारत में नजर आ रही हो, ऐसा
भी नहीं है। रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन, तुर्की के
राष्ट्रपति रेचौप तैय्यप आर्दाेऑन, हंगरी के विक्टर ओर्बान, ब्राजील
के जैर बोलसोनारो और फिलिपींस के रोड्रिगो दुतेर्त भी इसी सूची में शामिल हैं।
5- भारत की सबसे पुरानी पार्टी के सामने अस्तित्व का संकट
कांग्रेस को लगातार दूसरी बार हार का सामना करना पड़ा। हालांकि
राष्ट्रीय तौर पर वह दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी हुई है। लेकिन वह बीजेपी से काफी
पिछड़ चुकी है और सबसे मुश्किल दौर से गुजर रही है। उसका भौगोलिक दायरा भी सिमटता
जा रहा है।
देश की सबसे घनी आबादी वाले राज्य बिहार, उत्तर प्रदेश और
बंगाल में कांग्रेस का अस्तित्व लगभग नहीं के बराबर है। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना
जैसे दक्षिण भारतीय राज्यों में पार्टी नजर नहीं आती। औद्योगिक तौर पर विकसित
गुजरात में कांग्रेस ने आखिरी बार 1990 में चुनाव जीता था। जबकि मोदी के
प्रधानमंत्री बनने के समय से ही पार्टी महाराष्ट्र में सत्ता से बाहर है।
लगातार दूसरे आम चुनाव में हार के बाद कई सवाल हैं, जो
पूछे जा रहे हैं। पार्टी अपने सहयोगियों के बीच ज्यादा स्वीकार्य कैसे होगी?
पार्टी
कैसे चलेगी? पार्टी गांधी परिवार पर अपनी निर्भरता को कैसे कम करेगी? पार्टी
अपने युवा नेताओं को कैसे मौका देगी? अभी भी कई राज्यों में कांग्रेस दूसरी
और तीसरी पीढ़ी के नेताओं की पार्टी बनी हुई है। बीजेपी का सामना करने के लिए
कांग्रेस जमीनी कार्यकर्ताओं का नेटवर्क कैसे तैयार करेगी?
मिलान वैष्णव कहते हैं, ‘कांग्रेस अव्यवस्थित रहेगी, जैसे
बीते कई चुनावों में देखने को मिला है। कांग्रेस की पहचान आत्म विश्लेषण करने वाली
पार्टी की नहीं रही है। लेकिन भारत में दो दलीय व्यवस्था के चलते मुश्किलों के
बावजूद कांग्रेस की जगह बची रहेगी।’
राजनीति वैज्ञानिक और इन दिनों राजनीति में सक्रिय योगेंद्र यादव का
मानना है कि कांग्रेस की उपयोगिता खत्म हो चुकी है और इसे खत्म हो जाना चाहिए।
लेकिन राजनीतिक दल खुद में बदलाव लाकर वापसी करने में सक्षम होते हैं। ऐसे में
इसका पता तो भविष्य में ही लगेगा कि क्या कांग्रेस नए सिरे से वापसी कर पाएगी या
नहीं?
6- क्षेत्रीय दलों का भविष्य क्या होगा?
उत्तर प्रदेश भारत का वो राज्य है जो किसी भी अन्य राज्य के मुकाबले
संसद में सबसे अधिक सांसद भेजता है।
बीजेपी ने यहां 2014 के अपने प्रदर्शन को दोहराया है जब
उसने 80 सीटों में से 71 सीटों पर विजय हासिल की थी। इस बार
उसे 62 और उसके सहयोगी पार्टी को दो सीटें मिली हैं। ये भारत के सबसे अधिक
सामाजिक रूप से बंटे और आर्थिक रूप से पिछड़े राज्यों में एक है।
इस बार उम्मीद की जा रही थी कि बीजेपी को समाजवादी पार्टी और बहुजन
समाज पार्टी के महागठबंधन की कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ेगा, लेकिन
ऐसा हुआ नहीं। मोदी के करिश्मे और कैमेस्ट्री के सामने दोनों राजनीतिक दलों का
सामाजिक गणित नाकाम साबित हुआ। पहले यह माना जाता था कि इन दोनों पार्टियों का
अपना कोर वोट बैंक है, लेकिन यह भरोसा टूट गया है। यह साबित भी हो गया है कि जाति आधारित
गणित को तोड़ा जा सकता है।
भारत के क्षेत्रीय दलों को अपनी रणनीति पर विचार करना होगा और उन्हें
सामाजिक और आर्थिक दृष्टिकोण पर काम करना होगा। नहीं तो उनके अपने मतदाता भी उनका
साथ छोड़ते जायेंगे |