जाति के समीकरण का टूटना - मनीषा प्रियम

इस बार आए चुनावी नतीजे भारतीय लोकतंत्र के लिए काफी अहम हैं।
नरेंद्र मोदी, भाजपा और उनका राष्ट्रवाद अब केंद्र में एकछत्र शासन कर सकने की
स्थिति में हैं। कांग्रेसवाद और क्षेत्रवाद, दोनों का एक साथ
पतन हुआ है। बेशक कभी इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस के लिए कहा जाता था
कि वह ‘टीना’ फैक्टर यानी ‘देअर इज नो अल्टरनेटिव टु इंदिरा गांधी’ के कारण
बार-बार जीतकर आती है, लेकिन अब ‘टीमो’ (देअर इज मोदी ओनली) फैक्टर लगभग तीन दशकों की
गठबंधन राजनीति को नकारता हुआ भारतीय राजनीति में मजबूती से स्थापित हो गया है। इन
नतीजों ने राज्यों में क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन बन सकने की संभावना को खत्म कर दिया है, क्योंकि क्षेत्रीय दलों और कांग्रेस को मिलाकर 90 के
दशक में 200 से भी अधिक सीटें आती रही हैं।
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की इस बड़ी जीत के सूत्रधार भाजपा
अध्यक्ष अमित शाह हैं। उन्होंने कई राज्यों में अहम गठजोड़ किए। असम में असम गण
परिषद् और बोडो पीपुल्स फ्रंट, बिहार में जद (यू), पंजाब
में शिरोमणि अकाली दल, महाराष्ट्र में शिव सेना, तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक और उत्तर
प्रदेश में अपना दल व निषाद पार्टी जैसे दलों को उन्होंने अपने कुनबे में शामिल
किया।
यह सही है कि आम चुनाव से ठीक पहले हुए तीन प्रमुख हिंदीभाषी राज्यों (राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़) के विधानसभा चुनावों में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा था। इससे पहले गुजरात में भी उसका प्रदर्शन अच्छा नहीं माना गया था। चर्चा यह भी थी कि जीएसटी की उलझन में व्यापारी वर्ग उलझ गया है और कृषि-संकट किसानों की मुश्किलें बढ़ा रहा है। फिर, इन राज्यों में भाजपा को सीधे कांग्रेस से भी टकराना था, जो हालिया जीत की वजह से आत्मविश्वास से भरी थी। लेकिन ये तमाम चुनौतियां मोदी सरकार के कुछ कदमों के कारण ध्वस्त हो गईं। राजनीतिक पर्यवेक्षक मानते हैं कि प्रधानमंत्री की ‘होम डिलिवरी पॉलिटिक्स’ के कारण यह संभव हो सका है। इसके तहत गरीबों के दरवाजे पर शौचालय भी पहुंचे और गैस सिलेंडर भी। किसानी में लगी आग को बुझाने के लिए मोदी सरकार ने आम बजट में किसान सम्मान निधि की घोषणा की और बिना देर किए सबके बैंक खाते में दो-दो हजार रुपये की पहली किस्त जमा की। नतीजतन, जमीन पर नरेंद्र मोदी के नाम पर कोई विशेष विरोध न रहा, जबकि कांग्रेस विधानसभाओं में अपनी जीत के बाद शिथिल पड़ गई। इसके अलावा, अशोक गहलोत व सचिन पायलट के आपसी झगड़े और कमलनाथ-माधवराव सिंधिया व दिग्विजय सिंह में सामंजस्य की कमी जैसे कारणों से भी वह मोदी की आक्रमणकारी रणनीति का काट नहीं खोज सकी।
इन नतीजों का सबसे आश्चर्यजनक पहलू है, देश के पूर्व और
पूर्वाेत्तर में पहली बार कमल का छा जाना। पूर्वाेत्तर के सभी राज्यों, खासतौर
से असम में, और पश्चिम बंगाल और ओडिशा में अच्छी मोदी लहर दिखी है। पूर्वाेत्तर
को प्रधानमंत्री पहले ही ‘हीरा’ देने का एलान कर चुके हैं। ‘हीरा’ का ‘ह’ हाई-वे,
‘आई’
इंटरनेट, ‘आर’ रेलवे और ‘ए’ एयर कनेक्टिविटी यानी हवाई सेवा है। हालांकि
राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) को लेकर पिछले वर्ष यहां केंद्र सरकार का
जमकर विरोध हुआ था, लेकिन हेमंत बिस्वा शर्मा की मेहनत और असम गण परिषद व बोडो पीपुल्स
फ्रंट के साथ गठबंधन का पूरा फायदा भाजपा को मिलता दिखा है। यहां बांग्लादेशी
घुसपैठियों का मसला भी अहम है, और कांग्रेस की पूरी राजनीति कहीं न
कहीं बदरुद्दीन अजमल की ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट के साथ तालमेल करके
चलती रही है। मगर भाजपा ने न सिर्फ इसमें सेंध लगाई, बल्कि चाय बगान
के मजदूरों के बीच भी उसने जमकर काम किया।
हेमंत बिस्वा शर्मा, सुनील देवधर और अमित शाह ने पश्चिम
बंगाल की रणनीति भी तय की। बंगाल में ममता बनर्जी का वोट शेयर जरूर कायम था,
लेकिन
सीपीएम का जनाधार घट रहा है। भाजपा को इसी का फायदा मिला है। तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ कोई मजबूत पार्टी मैदान में नहीं थी, और सीपीएम के
काडर राजनीतिक प्रश्रय के अभाव में इधर-उधर भटक रहे थे। हिंदू धर्म का भी यहां खासा प्रभाव दिखा। इसीलिए भाजपा ने यहां भी अपना कुनबा तैयार कर लिया। नतीजा बताता
है कि 1970 के दशक में सिद्धार्थ शंकर रे की अगुवाई में कांग्रेस की जीत के बाद
पहली बार यहां किसी राष्ट्रीय पार्टी ने इतना अच्छा प्रदर्शन किया है। हालांकि
यहां तृणमूल कांग्रेस से ज्यादा बड़ी हार वामपंथियों की हुई है। बंगाल क्या,
केरल
में भी वामपंथ को जबर्दस्त झटका लगा है, मानो अब उसका पूरा सफाया हो गया हो।
रही बात उत्तर प्रदेश की, तो मायावती और अखिलेश यादव के गठबंधन
के लिए यह कहा गया था कि जातिगत समीकरण के आधार पर इस जोड़ी के पास अपराजेय वोट है।
मुस्लिम-यादव और जाटव दलितों का गठजोड़ राजग पर भारी पड़ेगा। लेकिन परिणाम आते-आते
यह साफ हो गया कि महागठबंधन के हिस्से में कुछ सीटें जरूर आई हैं, लेकिन
भाजपा को बहुत बड़ा झटका नहीं लगा है। पड़ोसी राज्य बिहार में भी ऐसी मोदी लहर चली
है कि विपक्ष का सूपड़ा साफ हो गया है। नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी के दमदार
चुनावी अभियान के सामने अपेक्षाकृत कच्ची उम्र के तेजस्वी यादव टिक नहीं पाए।
महत्वपूर्ण नेता उनके पिता लालू प्रसाद यादव थे, जो इस वत्तफ़
जेल में हैं। राजद गठबंधन के सहयोगी उपेंद्र कुशवाहा अपनी सीटों में उलझे रहे,
तो
मुकेश साहनी और जीतन राम मांझी जैसे नेताओं की कोई चर्चा तक नहीं हुई। यहां
विपक्षी गठबंधन सिर्फ जातिगत जोड़-घटाव के गणित पर तैयार एक गठजोड़ बनकर रह गया।
बहरहाल, नरेंद्र मोदी की इस जीत से लोकतांत्रिक राजनीति में एक इतिहास बन गया है। यह इतिहास है, पूर्ण बहुमत के साथ एक राष्ट्रीय दल का केंद्रीय सत्ता में काबिज होना, केंद्र में क्षेत्रीय दलों के प्रभुत्व में कमी आना और राष्ट्रीय राजनीति में मंडलवादी जातिगत समीकरण का कमजोर होना। भाजपा की जीत यह भी बता रही है कि बैंक खाते में आए पैसे, घरों में पहुंचे गैस सिलेंडर और ईंट-पत्थरों से बने शौचालय जैसे मसलों पर भी राष्ट्रीय राजनीति की जा सकती है। इन सबका श्रेय निर्विवाद रूप से नरेंद्र मोदी को ही दिया जाना चाहिए।