प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता बिना खर्च के भी सुधर सकती है

वर्तमान में सत्तासीन लोगों से बड़ी उम्मीद थी कि उन्हें शिशु मन्दिर और विद्या भारती की संस्थाएं चलाने का लम्बा अनुभव है, जब 1952 में गोरखपुर में पहला शिशु मन्दिर खुला था। आज उनकी हजारों शिक्षण संस्थाएं चल रही हैं, लेकिन सरकारी शिक्षा को उसका क्या लाभ मिला।
सरकार ने स्कूली पोशाक, किताबें, स्कूल भवन, दोपहर का भोजन और स्कूल में शौचालय आदि का प्रबंध तो किया है लेकिन बच्चों को पढ़ाएगा कौन? कबीर की सरल भाषा में ‘बिना गुरु ज्ञान मिले कहो कैसे।’ संयुक्त परिवार अब बचे नहीं, जहां दादा-दादी बच्चे की पढ़ाई आरम्भ करा देते थे, अब प्राथमिक शिक्षा पर समाज का कोई नियंत्रण नहीं है, दायित्वबोध भी नही, तथाकथित गुरुजन मजदूरों की तरह हड़ताल करते हैं और बच्चे कापी-किताब लाएं या न लाएं प्लेट लाना नहीं भूलते।
प्राथमिक शिक्षा में परिवार, समाज और पंचायतों की भूमिका बने,
गाँवों
के स्कूलों का पूरी तरह पंचायत स्तर तक विकेन्द्रीकरण हो, जिन पर प्रधान
की नैतिक ही नहीं, वैधानिक जिम्मेदारी डाली जाए।
सरकारी स्कूलों में कितने प्रतिशत शिक्षकों की जगहें रिक्त हैं और
उन्हें भरने का वर्तमान सत्र में क्या प्रबन्ध है, पता नहीं।
शिक्षा मित्र घरों में बैठ गए हैं, प्राइवेट स्कूलों पर फीस का शिकंजा कस
रहा है और ऐसे स्कूल ढूंढे जा रहे हैं, जिनके पास मान्यता नहीं हैं, मानो
तालाब में मछली पकड़ने का काम चल रहा हो। वर्तमान में सत्तासीन लोगों से बड़ी उम्मीद
थी कि उन्हें शिशु मन्दिर और विद्या भारती की संस्थाएं चलाने का लम्बा अनुभव है,
जब 1952
में गोरखपुर में पहला शिशु मन्दिर खुला था। आज उनकी हजारों शिक्षण संस्थाएं चल रही
हैं, लेकिन सरकारी शिक्षा को उसका क्या लाभ मिला।
किसी भी प्रजातांत्रिक देश में शिक्षा का शत-प्रतिशत राष्ट्रीयकरण
सम्भव नहीं है इसलिए प्राइवेट स्कूलों को हतोत्साहित करने के बजाय उनकी शिक्षा की
गुणवक्ता की जांच परख करनी चाहिए। गाँवों के स्कूलों को मान्यता देते समय गाँव और
शहर के बीच के अन्तर को ध्यान में रखना होगा। गाँवों की साक्षरता दर 58
प्रतिशत और शहरों की 80 प्रतिशत है, ग्रामीण महिलाओं की 46
प्रतिशत और शहरीं महिलाओं की साक्षरता 73 प्रतिशत के करीब है। यदि उन्हीं लोगों
से समाधान पूछा गया, जिन्होंने विसंगति पैदा की है तो वांछित परिणाम नहीं मिलेगा।
प्राथमिक शिक्षा की कुछ बातें ध्यान योग्य हैं:-
1- शिक्षा का लक्ष्य नौकरी पाने की सम्भावना हो गया है, लेकिन
गाँव के लोगों को यह पता ही नहीं कि उनके बच्चों को नौकरी कैसे मिल सकेगी।
अंग्रेजों के जमाने में मैकाले को पता था वह क्लर्क पैदा करना चाहता था। क्या
हमारी सरकार को पता है उन्हें किस प्रकार के नागरिक चाहिए और अध्यापकों को पता है
कि वे किस प्रयोजन के लिए बच्चों को तैयार कर रहे हैं।
2- सरकारी स्कूलों में कोई फीस नहीं ली जाती, किताबें मफ्रत
मिलती हैं, दोपहर का ताजा भोजन मिलता है, यूनीफॉर्म और
वजीफा भी दिया जाता है, फिर भी गाँव का गरीब अपने बच्चों को सरकारी स्कूल के बजाय फीस देकर
प्राइवेट स्कूलों में भेजना चाहता है। शिक्षा विभाग को कुछ तो शर्म आनी चाहिए।
3- माननीय उच्च न्यायालय, इलाहाबाद ने आदेश पारित किया है कि
सरकारी अधिकारी अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में ही पढ़ने भेजें। लेकिन जब एक
गरीब सरकारी स्कूलों को ना पास कर रहा है तो भला अधिकारी कैसे अपने बच्चे वहां
भेजेंगे।
4- कक्षा 1 से 8 तक के छात्रें को शारीरिक विकास के लिए पढ़ाई के साथ खेलकूद भी जरूरी
है, लेकिन ग्राम प्रधानों ने स्कूलों के लिए खेलने की जगह ही नहीं छोड़ी। खलिहान और चरागाह तो हैं ही नहीं, खेल के मैदान भी मिटा दिए।
5- टीवी, रेडियो, अखबार के माध्यम से अध्यापकों और छात्रें को ज्ञान और दिशा मिल सकती
है, लेकिन इनकी कोई व्यवस्था देखने में नहीं आती। पढ़ाई, खेलकूद
और व्यक्तित्व विकास पर न तो ध्यान दिया जाता है और न कोई निरीक्षण करने वाला
है। निरीक्षकों के पद ही समाप्त कर दिए गए हैं।
6- शिक्षा विभाग के अपने ग्रामीण स्कूलों की दुर्दशा तो है ही, उसने
प्राइवेट स्कूलों की मान्यता के लिए जो मानक निर्धारित किए हैं उनके हिसाब से
कमरों का साइज और संख्या तथा अध्यापकों की संख्या निर्धारित है। स्वयं सरकारी
स्कूल में ये मानक पूरे नहीं होते।
7- अनेक सरकारी प्राइमरी स्कूलों में 5 कक्षाओं पर दो
कमरे और दो या तीन अध्यापक हैं। प्राइवेट स्कूलों के साथ ही सभी सरकारी स्कूलों
में मानकों की पूर्ति सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
8- प्राइवेट स्कूलों के लिए भूमि भवन और सम्पत्ति के वही मानक रहें जो
उसी पंचायत के सरकारी स्कूलों में उपलब्ध हैं। बेहतर होगा मानकों में शिक्षास्तर,
परीक्षाफल,
अध्यापकों
की योग्यता को सम्मिलित किया जाय।
9- प्राथमिक शिक्षा में अध्यापकों की नियुक्ति के लिए चयन बोर्ड नहीं
है और पिछले वर्षों में कैसे नियुक्तियां होती रही हैं, यह शिक्षा विभाग
के अधिकारियों से बेहतर कोई नहीं जानता। अध्यापकों की अनुशासनहीनता शिक्षा की
गुणवत्ता को दुष्प्रभावित करता है।
10- आए दिन सरकारी अध्यापक हड़ताल करते हैं मजदूरों की तरह सामूहिक
सौदेबाजी के लिए। पुराने जमाने में अध्यापक और डॉक्टर हड़ताल नहीं करते थे। इनकी
सेवा शर्तों में होना चाहिए कि हड़ताल करने पर सेवाएं स्वतः समाप्त हो जाएंगी
क्योंकि वे श्रमजीवी नहीं हैं। अध्यापकों की देखा देखी शिक्षा मित्र भी लामबन्द
होकर हड़ताल करने लगे हैं।
11- अध्यापकों की नियुक्ति 5 वर्ष के लिए हो और उसके बाद नवीनीकरण
के लिए बाहरी एजेंसी से परीक्षा ली जाए। सच यह है कि अध्यापक स्वयं ठीक प्रकार
हिन्दी अंग्रेजी नहीं लिख पाते तो छात्रें को क्या सिखाएंगे।
12- अध्यापकों की नियुक्ति में पारदर्शिता होनी चाहिए और यदि कम्प्यूटर,
विज्ञान
और गणित के अध्यापक नहीं मिल पाते तो खानापूर्ति नहीं होनी चाहिए।
13- प्राइमरी शिक्षा में अध्यापकों की कमी और शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने
के लिए राष्ट्रीय रोजगार गारन्टी अधिनियम 2005 को शिक्षा के
अधिकार अधिनियम 2005 से जोड़ा जा सकता है। इस प्रकार शिक्षित बेरोजगार भी काम पा जाएंगे,
अध्यापकों
की पूर्ति हो जाएगी और शिक्षा मित्रों की तरह हड़ताल और मुकदमेबाजी भी नहीं होगी।
14- यदि सब कुछ ठीक रहे फिर भी पढ़ाने के दिन ही न मिलें तो शिक्षा में
गुणवत्ता नहीं आएगी। आजकल 54 सार्वजनिक अवकाश, 48
रविवार, 40 दिन ग्रीष्मावकाश, प्रवेश और परीक्षा में 20
दिन, अतिवृष्टि और शीतलहर में 15 दिन, वार्षिकोत्सव,
हड़तालें,
कंडोलेंस
आदि में 10 दिन तथा गाँवों में रबी और खरीफ में 20 दिन खेतों में।
इस प्रकार पढ़ाई के लिए केवल 158 दिन बचते हैं।
15- सत्र की अवधि और उसका आदि अन्त कुछ पता नहीं रहता। कभी सत्र का आरम्भ
अप्रैल से होगा तो कभी जुलाई से। कभी स्कूल 30 जून को बन्द
होंगे तो कभी 31 मार्च को। सत्र का अन्तराल निश्चित होना चाहिए और अवधि तर्कसंगत।
16- अनिश्चय और अनिर्णय का यह हाल है कि कभी तो कहते हैं कक्षा 5की
बोर्ड परीक्षा होगी तो कभी कहते हैं कक्षा 10 तक कोई फेल
नहीं किया जाएगा। इस ढुलमुल यकीनी का परिणाम यह है कि शिक्षा को न तो शिक्षा विभाग
गम्भीरता से लेता है और न छात्र और अध्यापक।
17 - आजकल अध्यापक राजनीति में सक्रिय हो गए हैं और मोटी तनख्वाह के
बावजूद वे अपना व्यवसाय करते हैं, कोचिंग चलाते हैं,खेती
करते हैं और हड़ताल करते हैं और इन सब से समय बचा तो स्कूल चले जाते हैं। उनकी
उपस्थिति का सत्यापन हो ही नहीं सकता।
तब उपाय क्या हैंः-
1- सरकार उतने ही प्राइमरी स्कूल चलाए जिनमें उच्चकोटि की शिक्षा दे
सके। इनमें अधिकारी भी अपने बच्चे सहर्ष भेजेंगे।
2- ऐसे आदर्श स्कूलों में उतने अध्यापक और कक्ष हों जितनी कक्षाएं हैं।
भले ही एक पंचायत में एक ही सरकारी विद्यालय हो ।
3- गाँवों के शिक्षित बेरोजगार यदि स्कूल चलाना चाहें और उनके पास जगह
हो तो रजिस्टर्ड सोसाइटी बनाकर उन्हें चलाने दिया जाए। मान्यता देने में
रिश्वतखोरी बन्द हो और प्राइवेट प्राइमरी स्कूलों को आसानी से बेरोकटोक मान्यता दी
जाए।
4- कक्षा 5 और कक्षा 8 की बोर्ड परीक्षा हो जिसमें सरकारी
स्कूलों और प्राइवेट स्कूलों के बच्चे एक साथ परीक्षा दें। यदि प्राइवेट स्कूल का
परीक्षाफल दो साल तक लगातार खराब रहे तो मान्यता समाप्त कर दी जाय। सरकारी
मास्टरों और शिक्षा विभाग को अपनी स्थिति पता चल जाएगी।
5- सरकार का काम हो सघन निरीक्षण, जिसके लिए
आवश्यक है जिला विद्यालय निरीक्षक, खण्ड विद्यालय निरीक्षक तथा संकुल
निरीक्षकों के पदनामों से अधिकारी शब्द हटाया जाए। साथ ही जिला बेसिक शिक्षा
अधिकारी और खण्ड शिक्षा अधिकारी के पद पूरी तरह समाप्त किए जाएं।
6- देश में मदरसे, पाठशाला और बुनियादी तालीम के नाम पर हजारों शिक्षा संस्थाएं मौजूद हैं, इन्हें धार्मिक दायरे से बाहर निकाल कर शिक्षा की मुख्य धारा में लाया जा सकता है।