पर्यावरण प्रदूषण के लिए जिम्मेदार कौन?

2019-07-01 0

- पीएल कटारिया 

जबसे धरती बनी है तब से अब तक आधे पेड़ खत्म हो चुके हैं। जैसे-जैसे आधुनिकीकरण हो रहा है, पेड़ खत्म हो रहे हैं, दिल्ली, गुड़गांव, मुम्बई, कोलकाता तथा चेन्नई जैसे शहरों में प्रदूषण का स्तर बढ़ रहा है।

देश में दिन-प्रतिदिन गर्मी अपना पुराना रिकॉर्ड तोड़ती जा रही है। आजकल हर कोई गर्मी की चर्चा कर रहा है। लेकिन इसका जिम्मेदार कौन है? जिस तरह जंगल गांव होते जा रहे हैं, गांव कस्बा और कस्बा शहरों में, शहर महानगरों में तब्दील होते जा रहे हैं, गाड़ियां रात-दिन दौड़ रही हैं, आधुनिक सुविधाओं ने इंसान को पेड़ों का दुश्मन बना दिया। जबसे धरती बनी है तब से अब तक आधे पेड़ खत्म हो चुके हैं। जैसे-जैसे आधुनिकीकरण हो रहा है, पेड़ खत्म हो रहे हैं, दिल्ली, गुड़गांव, मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई जैसे शहरों में प्रदूषण का स्तर बढ़ रहा है। लोगों में सांस की बीमारी बढ़ती जा रही है। सरकार द्वारा बनाया गया पर्यावरण मंत्रलय सफेद हाथी की तरह है जो किसी काम का नहीं रहा। लोगों को जंगल व पेड़ देखना है, शुद्ध हवा में सांसें लेनी है तो हिमाचल व उत्तराखण्ड की तरफ जाते हैं। थोड़ा खुश होकर फिर अपनी प्रदूषण भरी दुनिया में आ जाते हैं। अगर हम पुराने जमाने की बात करें तो हमारे दादा-परदादा पेड़ों को बहुत महत्व देते थे। पेड़ लगाना तथा उसकी देखभाल करना अपने बच्चों की तरह करते थे। उनका पेड़ों के प्रति असीम प्यार था। बुजुर्ग यह सोचते थे कि मेरे मरने के बाद लोग कहेंगे - यह पेड़ तो उस आदमी ने लगाया था। जिस तरह पुत्र के नाम से वंश चलाने की, उसी तरह पेड़ों के साथ अपना नाम चलाने की एक परम्परा थी। उस समय न बिजली थी न पंखे, कूलर, एयरकंडीशन थे। दोपहर में लोग पेड़ों के नीचे बैठकर समय बिताते थे। समय बदला, संस्कार बदला, खेल बदले लोगों का व्यवहार बदला। पैसे का जमाना आ गया। लोग पैसे के बलबूते हर एक चीज हासिल करने की सोचते हैं। खेलों का स्थान कम्प्यूटर, मोबाइल गेम, टी-वी, कार्टून ने ले लिया है। पैसों की चकाचौंध में प्रकृति के प्रति प्रेम कम हो गया है। लोग यह तो चाहते हैं कि पेड़ लगाये जाएं लेकिन मैं नहीं, कोई और लगाये। भगत सिंह तो पैदा हों लेकिन मेरे पड़ोसी के घर में।

प्रकृति प्रेम व राष्ट्र प्रेम कम हो गया है। समाज में कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी देश व राष्ट्रहित की बात करते हैं लेकिन इसको लेकर कोई आन्दोलन तैयार नहीं कर पातेे। आखिर हम कब तक किसके भरोसे बैठे रहेंगे। कौन महापुरुष या ईश्वर का बंदा आकर इस समस्या से निजात दिलायेगा। आज 50 वर्ष से ऊपर के लोगों को कई बार यह कहते हुए सुना जा सकता है कि हमारे समय में 15 दिन की सावन में झड़ी लगती थी, बारिश रुकती नहीं थी। जीवन ठहर-सा जाता था। हर जगह खेत-खलिहान में पानी भरा रहता था। जंगल हों, खेत हों या गांव रात को मेंढकों की आवाज टर्र-टर्र आती रहती थी। उस समय गांवों में ज्यादातर मकान कच्चे मिट्टी व छप्पर के होते थे जो लगातार बारिश होने से गिर जाते थे। सभी पड़ोसी उसकी मदद करते थे। लोग बारिश का बहुत आनंद लेते थे। उस समय किसी को हिमाचल, उत्तराखण्ड के हिल स्टेशन याद नहीं आते थे। हर जगह पानी-पानी व हरियाली होती थी। बारिश की वजह से किसानों के घर खुशी होती थी, फसल के लिए खूब पानी होता था। पुराने समय में खेतों में ट्यूबवेल की जगह कुएं होते थे तो बारिश की वजह से उनका जल-स्तर बढ़ जाता था। प्रत्येक गांव में कुएं-बावड़ी होती थी। बारिश में सभी जलाशय भर जाते थे। जिसमें पशु-पक्षी साल भर पानी पीते थे।

आजकल बारिश कम होने से जलाशय सूखते जा रहे हैं। धरती से पीने योग्य पानी का दोहन किया जा रहा है। जिससे पानी का स्तर गिरता जा रहा है। अगर यही सब चलता रहा तो हम इंसान कहलाने के लायक भी नहीं रहेंगे। हम अपने स्वार्थ के लिए प्राकृतिक संसाधनों को खत्म करते जा रहे हैं। हमें सोचना चाहिए कि अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए हम क्या छोड़कर जायेंगे? शायद आने वाली पीढ़ी हमें माफ नहीं करेगी। अगर इन सबकी जिम्मेदारी हम सरकार पर डालते हैं तो यह भी ठीक नहीं है। हम सभी जानते हैं सरकार में बैठे नेता अफसर रिश्वतखोर हैं हमारे टैक्स के पैसे से उनको तनख्वाह मिलती है। लेकिन हमारा काम ठीक से नहीं करते। उल्टा हमसे ही रिश्वत मांगते हैं। जो रिश्वतखोर है वह राष्ट्रहित की बात नहीं कर सकता। इसके लिए हम सभी को सामूहिक रूप से पहल करनी पड़ेगी या फिर सरकार एक क्रान्तिकारी कदम उठाये कि - जो 500 पेड़ लगाएगा उसको सरकारी फौज में नौकरी मिलेगी। जो 1000 पेड़ लगायेगा उसको सरपंच बनाया जायेगा। जो 10,000 पेड़ लगायेगा उसको विधायक बनायेंगे। मेरे ख्याल से इस बात पर सरकार को सोचना चाहिए। शायद इस समस्या से निजात मिल जाये। 



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