आखिर भारत से सारे पड़ोसी बारी-बारी दूर क्यों हो रहे हैं?

2019-07-01 0

26 मई 2014 को नरेंद्र मोदी ने जब प्रधानमंत्री पद की शपथ ली तो उन्होंने एक संदेश देने की कोशिश की थी कि वो विदेशी नीति की राह अपने पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह से अलग ले जाएंगे---

सी कड़ी में उन्होंने ‘द साउथ एशियन एसोसिएशन फॉर रीजनल कोऑपरेशन’ (सार्क) देशों के सभी प्रधानमंत्रियों को शपथ ग्रहण समारोह में बुलाया था। कई राजनयिकों का मानना था कि मोदी ने विदेश नीति में भारत के हितों को केंद्र में रखा ।

भारतीय जनता पार्टी अक्सर नेहरूवादी नीतियों की आलोचना करती रही है कि इसमें भारत के हितों की उपेक्षा की जाती रही है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद रूस और अमरीका के नेतृत्व में दो ध्रुवों में बँटी दुनिया में नेहरू ने भारत के लिए गुटनिरपेक्ष की राह को अपनाया था। गुटनिरपेक्ष नीति की आलोचना की जाती है कि भारत को इससे कुछ फायदा नहीं हुआ।

पीएम मोदी ने अमरीका के साथ संबंधों को और गहरा करने की कोशिश की तो दूसरी तरफ भारत के पारंपरिक दोस्त रूस से भी करीबी बनाए रखने के प्रयास किए।

हिन्द महासागर में चीन के बढ़ते प्रभाव को लेकर भारत की वर्तमान सरकार ने अमरीका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ मिलकर चतुष्कोणीय सुरक्षा संवाद को आगे बढ़ाया।

विदेशी दौरों से क्या हासिल हुआ?

मोदी ने विदेशी दौरे भी खूब किए और ऐसी कोशिश दिखी कि बदलती वैश्विक व्यवस्था में भारत की जगह बनी रहे।

भारत इसी दौरान फ्रांस को पीछे छोड़ दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया। केंद्र की वर्तमान सरकार ने सीमा पार म्यांमार और पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में सैन्य कार्रवाई का दावा किया।

मोदी सरकार ने ऐसा दिखाने की कोशिश की कि वो आतंकवाद और चरमपंथी को लेकर दबकर नहीं रहेगी। पड़ोसी देश भूटान में भी डोकलाम सीमा पर चीन ने निर्माण कार्य शुरू किया तो भारत ने अपनी फौज भेज दी।

लेकिन क्या विदेश नीति के मोर्चे पर सब कुछ ठीक-ठाक है? अगर पड़ोसी देशों और दक्षिण एशिया में भारत की विदेश नीति का आकलन करें तो कई झटके लगे हैं। बाकी सरकारों की तरह पाकिस्तान से इस सरकार में भी संबंध अच्छे नहीं हुए हैं।

पाकिस्तान पर ठोस नीति नहीं

पूर्व राजनयिक और जेडीयू नेता पवन वर्मा कहते हैं, ‘‘पाकिस्तान के साथ संबंध खराब सभी सरकारों के जरूर रहे हैं, लेकिन ये सरकार कुछ कन्फ्यूज  है। पाकिस्तान से बात होगी कि नहीं होगी, इस पर कोई स्पष्टता नहीं है। जम्मू-कश्मीर में इनकी गठबंधन वाली सरकार थी, लेकिन ठीक से चलने नहीं दिया। एक तरफ सख्ती दिखाते हैं तो दूसरी तरफ पठानकोट में पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई को बुला लेते हैं। दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार भी मिलते हैं तो विदेश में मिलते हैं। सर्जिकल स्ट्राइक किया गया तो उसका ऐसे प्रचार-प्रसार किया गया मानो पाकिस्तान को कितना नुकसान कर दिया गया है।’’

भारतीय विदेश नीति के विशेषज्ञ ब्रह्म चेलानी ने द डिप्लोमैट को दिए एक इंटरव्यू में कहा है, ‘‘डोकलाम पर हो सकता है कि भारत के मन में सामरिक संतोष जैसा भाव हो, लेकिन चीन ने चालाकी से इसमें रणनीतिक स्तर पर जीत हासिल की है। चीन विवादित इलाके में निर्माण कार्य कर रहा है। इन सबके बीच अब भूटान अपनी सुरक्षा को लेकर भारत पर भरोसा करने से पहले दो बार सोचेगा। दक्षिण एशिया और इसके करीब के देशों से भारत दूर हुआ है। नेपाल, श्रीलंका, मालदीव, अफगानिस्तान और ईरान में भारत की स्थिति कमजोर हुई है। ऐसा भारत की दूरदर्शिता में अभाव के कारण हुआ है। शुरू में मोदी ने मजबूत शुरुआत की थी, लेकिन आगे चलकर चीजें नाकाम रहीं।’’

भूराजनैतिक दूरदर्शिता का अभाव

कई आलोचकों का कहना है कि भारत की विदेश नीति में भूराजनैतिक दूरदर्शिता के अभाव के कारण ही उसका प्रभाव अपने भी इलाके में उस तरह से नहीं है।

वरिष्ठ पत्रकार भारत भूषण कहते हैं, ‘‘बीजेपी कांग्रेस की जिन नीतियों की आलोचना करती थी उस पर खुद बुरी तरह से नाकाम होती दिख रही है। मोदी सरकार अमरीका के लिए सब कुछ दांव पर लगा रही है, लेकिन अमरीका ईरान से तेल आयात नहीं करने दे रहा। रूस से हथियार नहीं खरीदने दे रहा। जिस रूस ने भारत को रक्षा मामलों में वो तकनीक दिया जिसे वो खुद इस्तेमाल करता है, लेकिन इस रिश्ते को लेकर एक किस्म की बेफिक्री दिख रही है।’’

भारत भूषण कहते हैं, ‘‘न आप एनएसजी के मेंबर बन पाए, न पाकिस्तान से किसी आतंकी को ला पाए। मालदीव में चीन पूरी तरह से जम चुका है। आप अपने हेलीकॉप्टर तक नहीं रख पा रहे हैं। बांग्लादेश में विपक्षी पार्टी से आपका कोई संबंध नहीं है। डोकलाम में जो हुआ उससे भूटान का भी मिजाज आपको लेकर खराब हुआ। वो आप पर भरोसा करने से पहले कई बार सोचेगा। लोग उम्मीद कर रहे थे कि भारत विदेश नीति के मामले में सूझबूझ दिखाएगा, लेकिन यहां तो कोई दूरदर्शिता ही नहीं है।’’

कन्फ्यूजन की नीति

कई आलोचक तो मानते हैं कि ईरान दशकों से प्रतिबंध झेल रहा है, लेकिन उसका एक अपना प्रभाव है। ईरान की तुलना में भारत बहुत बड़ा देश है पर उसका अपने भी इलाके में प्रभाव नहीं है।

मालदीव में अब्दुल्ला यामीन की सरकार आने के बाद से भारत की स्थिति वहां काफी कमजोर हुई है।

मालदीव को भारत ने दो हेलिकॉप्टर दिया था जिसे वो वापस ले जाने को कह रहा है। इसी साल फरवरी में राष्ट्रपति यामीन ने मालदीव में आपातकाल लगा विपक्षी नेताओं और जजों को गिरफ्रतार कर लिया था। भारत ने आपातकाल का विरोध किया था और तब से मालदीव चीन और पाकिस्तान के करीब गया है।

भारत मालदीव में बदले हालत को राजनयिक दबाव के जरिए सुधारने में नाकाम रहा। यहां तक कि भारतीय कंपनी जीएमआर से मालदीव ने 511 अरब डॉलर की लागत से विकसित होने वाले अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे की डील को रद्द कर दिया।

मसला केवल मालदीव का नहीं है। चीन का प्रभाव श्रीलंका और नेपाल में भी बढ़ रहा है। 2015 में श्रीलंका में चुनाव हुए तो मैत्रीपाला सिरीसेना राष्ट्रपति बने। श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे की तुलना में मैत्रीपाला को भारत का करीबी माना जाता था।

दूर होते पड़ोसी

2017 में श्रीलंका ने अपना हम्बनटोटा पोर्ट चीन को सौंप दिया। हालांकि ज्यादातर चीनी प्रोजेक्ट महिंद्रा राजपक्षे के काल में ही शुरू हुए थे। राजपक्षे की पार्टी श्रीलंका में अब भी लोकप्रिय है। हाल ही में राजपक्षे की पार्टी को स्थानीय चुनावों में जीत मिली है।

2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद से मोदी दो बार श्रीलंका जा चुके हैं। जब हम्बनटोटा पोर्ट को श्रीलंका ने चीन को सौंपा तो मोदी सरकार की आलोचना हुई थी कि वो श्रीलंका में चीन के प्रभाव को रोकने में नाकाम रही।

नेपाल के साथ भी मोदी के चार साल के शासनकाल में संबंध खराब हुए हैं। 2015 में भारत की अनौपचारिक नाकेबंदी के कारण नेपाल जरूरी सामानों की किल्लत से लंबे समय तक जूझता रहा।

यह नाकेबंदी नेपाल के नए संविधान पर मधेसियों की आपत्ति के कारण थी। नेपाल में मधेसियों की जड़ें भारतीय राज्य उत्तर प्रदेश और बिहार से जुड़ी हैं। इस दौरान नेपाल की राजनीति में भारत के खिलाफ एक किस्म का गुस्सा पनपा और चीन से सहानुभूति पैदा हुई।

भारत ने नेपाल के संविधान में बिना किसी संशोधन के ही नाकेबंदी खत्म की, लेकिन तब तक हालात हाथ से निकल गए थे। 2018 में खड़ग प्रसाद ओली फिर से पीएम बने तो उन्होंने चीन के साथ कई समझौते किए।

नेपाल चीन की महत्वाकांक्षी योजना वन बेल्ट वन रोड में भी शामिल हो गया। सार्क देशों में भूटान को छोड़ सभी देश चीन की इस परियोजना में शामिल हो गए हैं। यह भारत के लिए तगड़ा झटका माना जा रहा है।

इसी तरह अफगानिस्तान में भी तालिबान हार नहीं रहा। कहा जा रहा है कि अंततः तालिबान और पाकिस्तान के समझौते से ही कोई रास्ता निकलेगा। अफगानिस्तान की सत्ता में तालिबान का प्रभाव बढ़ेगा तो बदले हालात में वो भारत के बजाय पाकिस्तान को ही तवज्जो देगा।

पीछे छूटते दोस्त

ईरान के साथ भारत के अच्छे संबंध रहे हैं, लेकिन भारत यहां भी अमरीका को समझाने में नाकाम रहा कि वो ईरान से तेल आयात करेगा। ईरान में भारत चाबहार पोर्ट विकसित करना चाह रहा है। लेकिन इसके लिए भारत को अमरीका के प्रभाव से मुक्त होना होगा।

बांग्लादेश में इसी साल दक्षिणी और उत्तरी बांग्लादेश को जोड़ने वाला पुल बनकर तैयार हो जाएगा। इस पुल को चीन बना रहा है। छह किलोमीटर लंबा यह पुल दोनों इलाकों को सड़क और रेल के जरिए जोड़ेगा। बांग्लादेश बनने के बाद से यह इंजीनियरिंग की सबसे चुनौतीपूर्ण परियोजना थी जो बनकर तैयार होने वाली है।

यह सेतु पद्मा नदी के एक छोर से दूसरे छोर तक है। फाइनेंशियल टाइम्स के अनुसार इस पुल के निर्माण में चीन ने 3-7 अरब डॉलर की रकम लगाई है। चीन ने इसमें न केवल पैसा दिया है बल्कि इंजीनियरिंग में भी मदद की है।

चीन की सरकारी समाचार एजेंसी शिन्हुआ ने भी बांग्लादेश में इस पुल को लेकर एक रिपोर्ट प्रकाशित की है और कहा है कि दोनों देशों के बीच बढ़ती दोस्ती का यह नया प्रतिमान है।

भारत को उस वक्त और तगड़ा झटका लगा था जब बांग्लादेश ने ढाका स्टॉक एक्सचेंज के 25 फीसदी हिस्से को शंघाई और शेनजेन स्टॉक एक्सचेंज को 11 करोड़ 90 लाख डॉलर में बेच दिया जबकि भारत  के नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) को नहीं दिया था।

एनएसई के अधिकारी ढाका भी गए थे ताकि चीन को रोक सकें, लेकिन इसमें नाकामी ही हाथ लगी थी। ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट के अनुसार भारत ने ये भी तर्क दिया था कि चीन इस इलाके में राजनीतिक ताकत का इस्तेमाल कर रहा है।

ये झटके क्यों?

आखिर भारत को इतने झटके क्यों लग रहे हैं? पवन वर्मा कहते हैं, ‘‘वर्तमान सरकार की विदेशी नीति में एक रणनीतिक अभाव है। हम एडहॉक पॉलिसी पर चल रहे हैं। हम रिएक्टिव हैं जबकि हमें प्रोएक्टिव होना चाहिए था। पाकिस्तान के साथ तो एक रणनीतिक सोच का खास अभाव है। चीन का जिस तरह से प्रभाव बढ़ रहा है उससे साफ है कि कूटनीतिक असफलता हम झेल रहे हैं। चाणक्य के देश में कूटनीति बिना रणनीति के चल रही है। मालदीव में इतना कुछ अचानक तो नहीं हुआ। हर चीज की पृष्ठभूमि पहले से तैयार होती है, लेकिन भारत कर क्या रहा था। मालदीव से हमारा प्रभाव बिल्कुल खत्म हो गया है।’’

पवन वर्मा कहते हैं, ‘‘कूटनीतिक पहलू पर भारत के सेना प्रमुख का भी बयान आता है। सरकार में कहीं न कहीं व्यवस्थागत खामियां हैं। रणनीति बनाने में विदेश मंत्रालय को आप दरकिनार नहीं कर सकते। विदेश मंत्रालय की उपेक्षा की जा रही है। मुझे क्या, इस बात का एहसास सुषमा स्वराज को भी है कि उनके मंत्रालय की उपेक्षा हो रही है। वर्तमान सरकार की विदेश नीति में रणनीति और दूरदर्शिता का अभाव है।



मासिक-पत्रिका

अन्य ख़बरें

न्यूज़ लेटर प्राप्त करें