बीमार चिकित्सा तंत्र में हड़ताल

2019-07-01 0


- विभूति नारायण राय, पूर्व आईपीएस अधिाकारी

पश्चिम बंगाल में पिछले कुछ दिनों से डॉक्टरों के साथ जो कुछ हो रहा है, वह तो देश के किसी हिस्से में कभी भी हो सकता है या कमोबेश हर जगह होता रहा है। राजधानी दिल्ली समेत अलग-अलग शहरों में सरकारी या निजी अस्पताल में इलाज के दौरान किसी मरीज की मृत्यु होती है, तो मरीज के साथ मौजूद तीमारदार डॉक्टरों पर इलाज के दौरान लापरवाही का आरोप लगाते हैं और फिर दोनों पक्षों में मारपीट होती है। कभी डॉक्टर घायल होता है, कभी मरीज का कोई साथी या परिवारी। नतीजतन डॉक्टर हड़ताल पर चले जाते हैं। यह हड़ताल एक अस्पताल से लेकर पूरे जिले, प्रदेश या अगर भड़काने वाली राजनीति साथ दे, तो देश भर में फैलाई जा सकती है। कुछ हड़तालों में न्यायालय के हस्तक्षेप से मामला सुलटता है, कुछ में सरकार की सख्ती काम आ जाती है, तो कुछ सरकार के समर्पण के साथ वापस होती हैं।

पश्चिम बंगाल में कुछ महीनों के बाद  चुनाव होने हैं और ममता बनर्जी कमजोर विकेट पर खड़ी हैं। वह चुनाव जीतने के लिए कुछ भी कर सकती हैं। मरने वाला मरीज मुसलमान था, इसलिए सबसे आसान था इस मामले को सांप्रदायिक रंग देना। उन्होंने यही किया, पर वह भूल गईं कि इस बार जिस प्रतिद्वंद्वी से पाला पड़ा है, उसे इस मैदान में शिकस्त देना मुश्किल है। डॉक्टरों को सुरक्षा देने का वादा करने या मारपीट करने वालों की धर-पकड़ कराने की बजाय उन्होंने डॉक्टरों को ही धमकाना शुरू कर दिया। पहले भी उन्होंने मस्जिदों के इमामों को भत्ते देकर या सिर पर पल्लू ढक नमाज पढ़ने की दिलचस्प कोशिश करके सांप्रदायिक ध्रुवीकरण किया है, पर इससे हालिया लोकसभा चुनाव में उनका नुकसान ही हुआ है। इस बार भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। उनके विरोधी पूरे देश के डॉक्टरों को संगठित करने में सफल हो गए हैं।

जब हमें समय-समय पर होने वाली ऐसी हड़तालों के पीछे छिपे बडे़ कारणों की पड़ताल करनी चाहिए। एक समय सेवा से जुड़ा और आदर्श समझा जाने वाला चिकित्सक समाज अब सिर्फ पैसा कमाने वाली मशीन माना जाने लगा है। ज्यादातर निजी अस्पताल लूट और सरकारी अस्पताल अव्यवस्था के लिए बदनाम हो गए हैं। संवेदनहीनता दोनों क्षेत्रें में प्रचुर मात्रा में दिखेगी। मोटी रकम खर्च करके डॉक्टर बनने वालों से अपेक्षा भी यही की जा सकती है कि वे जल्द से जल्द अपना निवेश मय सूद वापस पाना चाहेंगे। यह एक आम जानकारी है कि गैर-सरकारी मेडिकल कॉलेजों में शुरुआती प्रवेश के लिए लाखों में और यदि परास्नातक पाठ्यक्रमों में दाखिला चाहिए, तो करोड़ों में डोनेशन देना पड़ता है।

इसी तरह, सरकारी मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश चाहिए, तो परचा लीक कराने से लेकर मुन्ना भाइयों द्वारा परीक्षा दिलाने तक का एक खर्चीला तंत्र है, जिससे गुजरकर बड़ी संख्या में लड़के-लड़कियां इस चक्रव्यूह को पार करते हैं। बहुत कम अभ्यर्थी अपनी प्रतिभा के बल पर डॉक्टरी की पढ़ाई शुरू करते हैं। फिर इसमें किसी को क्यों आश्चर्य होना चाहिए कि कॉलेजों से निकलने के बाद वे एक ऐसी असंवेदनशील भीड़ का हिस्सा बन जाते हैं, जिसके लिए मरीज नोट छापने की मशीन से अधिक कुछ नहीं।

भारत में डॉक्टर को लगभग भगवान का दर्जा मिला हुआ है। ऐसे में, आमतौर से उन पर हमला किसी ऐसे असहाय की प्रतिक्रिया के रूप में देखा जाना चाहिए, जो तंत्र की निरंकुशता और असंवेदनशीलता से हारकर अपनी आंखों के सामने किसी प्रियजन को मरते देखता है। उसकी हिंसा का समर्थन नहीं किया जा सकता, पर इसे किसी शून्य की उपज भी नहीं कह सकते। इसे भारत के भीड़-न्याय से जोड़ा जाना चाहिए। सड़कों पर अक्सर हमें त्वरित इंसाफ करती भीड़ दिखती है, जिसकी अनुभव जन्य समझ कहती है कि देश में न्याय हासिल करने के सांविधानिक तरीके थकाऊ, उबाऊ और खर्चीले होते हैं। उसे यह नहीं पता कि डॉक्टर की असावधानी या असंवेदनशीलता के लिए किस संस्था के पास जाया जाए। वह इससे भी आश्वस्त नहीं है कि वहां जाने पर उसे न्याय मिलेगा ही। मिला भी, तो किस कीमत पर या कितने समय में?

कई बार अपने ऊपर हुई हिंसा के प्रतिकार में जूनियर डॉक्टर मरीजों या उनके तीमारदारों पर टूट पड़ते हैं या उनके प्रतिनिधि संगठन हड़ताल का आह्वान करते हैं। चिकित्सा संस्थानों में हड़ताल भी एक तरह की हिंसा ही है। किसी भी सभ्य समाज में ऐसी स्थिति नहीं आनी चाहिए कि जीवन-मृत्यु के बीच हिलोरें खाते मरीज को डॉक्टर देखने से मना कर दे। कई बार हड़ताल के दौरान सामान्य मरीजों के लिए ओपीडी की सुविधाएं तो हड़ताली डॉक्टर प्रदान कर देते हैं, पर मुसीबत तो गंभीर मरीजों की होती है, जिन्हें जीवन रक्षक ऑपरेशन या विशेषज्ञ इलाज की जरूरत होती है और उन्हें देखने वाला कोई नहीं होता। शायद ही डॉक्टरों के संगठन इस हिंसा के खिलाफ आवाज उठाते हैं।

कोलकाता की घटना से हमारा ध्यान सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों और संसाधनों की कमी की तरफ भी जाना चाहिए। देश की तीन-चौथाई जनता इन्हीं पर निर्भर करती है। ये अस्पताल अपनी क्षमता से कई गुना अधिक लोगों की देखभाल कर रहे हैं। एम्स जैसे अस्पताल में तो मरीजों को महीनों बाद की तारीखें मिलती हैं। यदि औसत निकालें, तो इन अस्पतालों में डॉक्टर और मरीज की संगत कुछ मिनटों से अधिक शायद ही हो पाती है।

संसाधनों के अभाव और भीड़ से घिरे डॉक्टर के लिए चिड़चिड़ा हो जाना स्वाभाविक है। अच्छा होता कि हालिया हड़ताल के बहाने देश के स्वास्थ्य क्षेत्र पर कुछ गंभीर विमर्श होता, लेकिन लगता नहीं कि राजनीति की तात्कालिकता से ऊपर उठकर कोई कुछ करेगा। 



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