तीन तलाक विधोयक सवालों के घेरे में

केंद्रीय मंत्रिपरिषद से ‘मुस्लिम महिला (विवाह पर अधिकारों का
संरक्षण) विधेयक, 2018’ के प्रारूप को स्वीकृति मिल चुकी है। अब इसे संसद में पेश किया
जाएगा। इसके साथ ही पिछले कई वर्षों से चला आ रहा तीन तलाक का मुद्दा एक बार फिर सुर्खियों में लौट आया है। अल्पसंख्यक समाज में इस प्रस्तावित कानून को लेकर
आशंकाएं और आपत्तियां फिर से जोर पकड़ने लगी हैं। इस मसले का सामाजिक, धार्मिक
और विधिक पक्ष तो है ही, राजनीतिक व भावनात्मक पक्ष भी
चाहे-अनचाहे इससे जुड़ जाता है।
इस विधेयक के उद्देश्य और हेतु में सरकार ने शायरा बानो बनाम केंद्र
सरकार व अन्य (2017) मामले में 3:2 के बहुमत से
तलाक-ए-बिद्दत (एक ही समय में तीन बार तलाक देना) पर उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए
गए फैसले को आधार बनाया है। केंद्र सरकार की दलील थी कि तलाक-ए-बिद्दत लैंगिक
समानता और लैंगिक न्याय के विरुद्ध है। इस मामले में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ
बोर्ड भी पक्षकार था, जिसने न्यायपालिका को धार्मिक रिवाजों में दखल न देने की वकालत की और
कहा कि विधायिका ही इसके लिए कोई अधिनियम बनाने में सक्षम है। बोर्ड ने इस प्रथा
के विरुद्ध सामाजिक जागरूकता अभियान चलाने का आश्वासन भी न्यायालय को दिया। सभी
पक्षों को सुनने के बाद उच्चतम न्यायालय ने तलाक-ए-बिद्दत (तीन तलाक) को
स्वेच्छाचारी मानते हुए अवैध घोषित कर दिया। विधेयक के हेतु में लैंगिक समानता और
बिना विभेद के मौलिक अधिकारों की अक्षुण्णता के लिए इस अधिनियम को आवश्यक बताया
गया है। विधेयक के खंड-3 में तलाक-ए-बिद्दत को निष्प्रभावी और गैर-कानूनी घोषित किया गया है।
अगले खंड में ऐसा करने वाले पति को तीन साल तक की सजा का प्रावधान किया गया
है।
तलाक एक नकारात्मक और विखंडनकारी प्रक्रिया है, जो
किसी भी मजहब या समाज में वांछनीय नहीं माना गया है। इस पर लगभग सभी एकमत हैं कि
तलाक की नौबत न आए तो अच्छा है। इस्लामी न्यायशास्त्र में तीन चरणों में तलाक की
आवृत्ति के प्रावधान का मकसद भी यही रहा होगा कि अगर इस बीच पति-पत्नी के बीच समझ
बन जाए, तो बेहतर है। तलाक से निकाह का बंधन समाप्त हो जाता है और निकाह के
समय आपसी सहमति से बना अनुबंध टूट जाता है।
इस्लाम में निकाह को एक सामाजिक व व्यावहारिक अनुबंध के रूप में
पारदर्शी तरीके से रेखांकित किया गया है। आधुनिक विधिक प्रणाली के अनुबंध की
अवधारणा के सभी प्रमुखं अवयव इसमें मौजूद हैं। इसमें दो वयस्कों की सहमति से समाज
और काजी के सामने इस अनुबंध को मूर्त रूप दिया जाता है। दोनों पक्ष के परिजनों की
स्वीकृति के बाद दूल्हा-दुल्हन के बीच भी काजी द्वारा रस्म पूरी की जाती है। इस
अनुबंध को वैधता प्रदान करने के लिए मेहर की रकम भी तय की जाती है। इस तरह से
निकाह पूर्ण रूप से धार्मिक, सामाजिक और विधिक अनुबंध होता है।
हिन्दू और अन्य धर्मों की तरह इस्लामी रिवाजों में भी समय के साथ
विद्रूपता और दूषणकारी तत्वों का प्रवेश होता गया। मिसाल के तौर पर, इस्लाम
में जितना जोर शिक्षा पर दिया गया है, उतना किसी धर्म में नहीं। इसके बावजूद
अशिक्षा का शिकार आज सबसे अधिक मुस्लिम समाज है। जहां तक तलाक-ए-बिद्दत की बात है,
तो
इसके नामकरण से ही स्पष्ट है कि इस्लाम के मौलिक रिवाजों में ऐसा नहीं था और यह
प्रथा बाद में आई। ‘बिद्दत’ का अर्थ ही होता है नई बात, जो रसूल के समय
में नहीं थी। इस क्रम में हलाला का प्रावधान भी गौरतलब है। इस्लाम में इज्मा (आम
सहमति) और इज्तिहाद (कोशिश से नए रास्ते ढूंढ़ना) का प्रावधान भविष्य के सामाजिक
सुधारों के मद्देनजर ही रसूल ने फरमाया होगा। कुरान और हदीस
के इसी संदेश को जनहित में आगे बढ़ाने की जरूरत है।
विभिन्न धर्मों में समय-समय पर सामाजिक बुराइयों व कुरीतियों को दूर
करने के लिए समाज-सुधार आंदोलन हुए हैं। हिंदू धर्म में भी सती प्रथा और विधवाओं
की दयनीय सामाजिक स्थिति के विरुद्ध जोरदार समाज-सुधार आंदोलन चलाया गया, साथ
ही जागरूकता पैदा कर अंधविश्वास और अमर्यादित रीतियों से मुक्ति दिलाई गई। शायद
मुस्लिम समाज में भी इस तरह के समाज सुधार के आंदोलनों की आवश्यकता रही है।
वर्तमान विधेयक का अनोखा पहलू यह है कि यह तलाक-ए-बिद्दत को न सिर्फ निष्प्रभावी और गैर-कानूनी मानता है, बल्कि ऐसा करने वाले पति को दोषी मानते हुए तीन साल के कैद की सजा का प्रावधान रखा गया है। कानून या सजा के जरिए दो इंसानों के बीच के आपसी रिश्ते को न तोड़ा जा सकता है, न जोड़ा जा सकता है। उसमें भी पति-पत्नी के बीच का रिश्ता तो हमेशा विश्वास और प्रेम पर ही टिकाऊ हो सकता है। तलाक वैध या अवैध हो सकता है, पर सजा का प्रावधान कैसे मुनासिब हो सकता है? ऊपर से, ऐसे प्रगतिशील सामाजिक कानूनों के दुरुपयोग की आशंका रहती है। सामाजिक कुरीतियों को दूर करने में कानून के साथ सामाजिक चेतना और जागरूकता की सबसे ज्यादा जरूरत होती है। इसलिए तीन तलाक जैसे संवेदनशील मुद्दे पर कोई प्रभावी कानून बनाने से पहले संबंधित पक्षों से रायशुमारी होनी चाहिए। अगर समाज-विशेष जागृत नहीं हो, तो उसे विश्वास में लिए बिना उसके कुरीतियों को दूर करने की कुव्वत कानून में नहीं होती है। अल्पसंख्यक समाज को विश्वास में लेना चाहिए। साथ ही अल्पसंख्यक समाज के रहनुमाओं को भी दकियानूसी सोच के दायरे से बाहर आकर अपने समाज और विशेषकर महिलाओं के अधिकारों के संरक्षण व उत्थान के लिए तत्पर रहना चाहिए।