देश की नौ-सैन्य क्षमता के आंकलन का वक्त आ गया है

2019-07-01 0

हिंद महासागर एवं एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अपने व्यापक हितों को देखते हुए भारत को अपनी नौसैनिक क्षमता की नए सिरे से समीक्षा करने की जरूरत है।

चीन के छिंग ताओ बंदरगाह पर चीनी नौसेना की मेजबानी में आयोजित इंटरनेशनल फ्लीट रिव्यू को लेकर पिछले दिनों काफी कुछ लिखा जा चुका है। इसमें भारतीय नौसेना के दो जहाजों ने भी शिरकत की। इसी तरह अगले कुछ दिनों में भारतीय एवं फ्रांसीसी नौसेनाएं भारत के पश्चिमी तट पर संयुक्त अभ्यास ‘वरुणा’ में हिस्सा लेंगी। बहुत लोगों का मानना है कि ऐसे संपर्क महज दिखावा होते हैं जबकि कुछ लोगों की नजर में ऐसे अभ्यासों की अहमियत कहीं ज्यादा होती है। सच्चाई इन दोनों नजरियों के कहीं बीच में है।

असल में, इन आयोजनों के दौरान समारोह और परेड जैसे कार्यक्रम होते हैं लेकिन इन सबके केंद्र में यह होता है कि शिरकत कर रहे मेहमान नौसैनिक अधिकारी मेजबान के साथ अच्छे ताल्लुक बनाएं। इस तरह इन सैन्य अभ्यासों के साथ कूटनीति का भी पहलू जुड़ा होता है। इंटरनेशनल फ्लीट रिव्यू का एक संदेश और उद्देश्य होता है। फ्लीट रिव्यू के जरिये मेजबान नौसेना की ताकत का प्रदर्शन करना तो सरलीकरण है। दुनिया इसके बारे में पहले से ही जानती है और ताकत का प्रदर्शन करने की जरूरत नहीं होती है।

फिर संयुक्त अभ्यास का सवाल आता है। ऐसा ही एक संयुक्त अभ्यास अगले महीने होने वाला है। भारत और फ्रांस दोनों ही हिंद महासागर क्षेत्र की बड़ी नौसैनिक ताकत हैं और इस क्षेत्र में उनके हित एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, जापान और सिंगापुर के साथ भारत के संयुक्त सैन्य अभ्यासों की ही कड़ी में यह अभ्यास प्रस्तावित है। हरेक अभ्यास का प्रयोजन भागीदार देशों की परिचालन जरूरतों पर निर्भर करता है। ‘पासेक्स’ कहे जाने वाले समुद्री अभ्यासों में ये सेनाएं नियमित तौर पर शिरकत करती हैं। इन अभ्यासों से समुद्री सेनाओं के बीच पेशेवर संपर्क बनता है और हमें अपनी गतिविधियों की समीक्षा का भी मौका मिलता है लेकिन उससे भी अहम यह है कि इससे दूसरे देशों को यह संदेश दिया जाता है कि आपसी सामरिक समुद्री हितों से द्विपक्षीय संपर्क बढ़ता है। पासेक्स किस्म कम सारगर्भित होता है लेकिन फिर भी उनकी अहमियत होती है। ये सभी बुनियादी तौर पर एक कूटनीतिक सहक्रिया की उपज होते हैं।

इंटरनेशनल फ्लीट रिव्यू औरसंयुक्त अभ्यासों को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। वे नौसैनिक पोतों का सम्मिलन या समारोहपूर्ण आयोजन भर नहीं होते हैं बल्कि यह प्रदर्शन होता है कि भागीदार देश मेजबान देश के साथ किस तरह संपर्क करना चाहते हैं? विदेश नीति और उससे उपजी कूटनीति देशों को प्रेरित करती है और इन अभ्यासों में शामिल होकर ये देश अपने समुद्री हितों को सुरक्षित एवं संरक्षित करने की कोशिश करते हैं। इस लक्ष्य को पूरा करने में केवल नौसेनाएं ही सक्षम होती हैं और इसीलिए विदेश नीति के लक्ष्यों के हिसाब से ऐसे आयोजन अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के मुताबिक तय किए जाते हैं।

यह तथ्य हमें भारत के अपने समुद्री हितों और दूसरे देशों के साथ संपर्क के तरीकों तक पहुंचाता है। भले ही भारत हिंद महासागरीय क्षेत्र की एक बड़ी क्षेत्रीय शत्तिफ़ है लेकिन इसके हित हिंद-प्रशांत रंगमंच तक फैले हुए हैं। इसकी वजह यह है कि भारत का आधे से भी अधिक व्यापार इस समुद्री मार्ग से ही होता है। इसके निर्विघ्न संचालन के लिए ही भारत ने दक्षिण और पूर्वी चीन सागर में अपने जहाज नियमित रूप से तैनात कर रखे हैं जो विभिन्न तटवर्ती नौसेनाओं के संपर्क में रहते हैं और छिंग ताओ में संपन्न फ्लीट रिव्यू जैसी गतिविधियों में हिस्सा लेते रहते हैं। हालांकि इस इलाके में भारतीय जहाजों की तैनाती हिंद महासागर जितनी व्यापक नहीं हैं क्योंकि हिंद महासागर में हमारे हित कहीं अधिक निहित हैं। उत्तरी हिंद महासागर में होने वाली घटनाएं हमारी बुनियादी चिंता का मुद्दा होती हैं और सेशल्स, मॉरीशस एवं मोजाम्बिक जैसे दक्षिणी तटीय देश और रियूनियन आइलैंड्स (फ्रांस) एवं दक्षिण अफ्रीका जैसे दक्षिणी देश भी हमें बढ़त दिलाने के लिहाज से अहमियत रखते हैं। यही कारण है कि इस समुद्री क्षेत्र में अपनी नौसेना के लिए परिचालन सुविधाएं मुहैया कराने के बारे में चर्चा सुनाई देती है। उत्तरी समुद्री क्षेत्र दक्षिण-पूर्व एशियाई समुद्र से लेकर स्वेज नहर तक फैला हुआ है। हमारे नौसैनिक संपर्कों को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। देखने में यह संपर्क नौसेनाओं का होता है लेकिन उसके पीछे व्यापक राष्ट्रीय हित निहित होते हैं।

क्या भारत के पास ऐसे उपाय हैं कि वह मौजूदा भू-राजनीतिक परिदृश्य के चलते पैदा होने चुनौतियों का सामना कर पाएगा? यह एक ऐसा सवाल है जिसे पूछा जाना चाहिए। इसके साथ ही यह भी देखना होगा कि क्या हम हद से ज्यादा ऊंचा दांव लगा रहे हैं? इस सवाल का जवाब हां और ना दोनों है। आज भी हम इस क्षेत्र की बड़ी नौसैनिक ताकत हैं और जरूरत पडने पर कभी भी अपने जहाज तैनात करने में हमें सक्षम होना चाहिए। हम अपने द्वीपीय इलाकों के जरिये अपनी पहुंच को और बढ़ा सकते हैं। दक्षिण भारत में स्थित अपने एयरफील्ड से बड़े विमानों के उड़ान भरने की क्षमता का इस्तेमाल करने से हमें केवल अपने विमानवाहक युद्धपोतों पर ही नहीं निर्भर रहना होगा। निस्संदेह हमारी कमजोरियां भी हैं। मसलन, पनडुब्बियों और लंबी दूरी तक सैनिकों और साजोसामान को लेकर जा सकने वाले जहाजों की कमी है। दुर्भाग्य से, सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के प्रतिशत आवंटन के तौर पर रक्षा आवंटन पिछले कुछ वर्षों में सबसे कम रहा है जिसकी वजह से हमारी नौसैनिक क्षमता को सशक्त बनाने में रुकावट आई है। प्रतिस्पर्द्धी मांगों के चलते यह उम्मीद करना अवास्तविक लगता है कि इस स्थिति में जल्द ही सुधार आ जाएगा लेकिन यह संभव है कि थल, वायु एवं नौसेना की ताकत की तुलनात्मक हिस्सेदारी की आलोचनात्मक समीक्षा की जाए और उन्हें नए सिरे से समायोजित किया जाए। हमारा मौजूदा रुख गत छह दशकों में बनी धारणाओं को थोड़े-बहुत बदलावों के साथ जारी रखने से अधिक कुछ नहीं है। हमें अपने राष्ट्रीय सुरक्षा हितों और उसके हिसाब से अपनी सैन्य शक्ति के बारे में एक समग्र आंकलन की जरूरत है।



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