हांगकांग की स्वायत्तता का अनिश्चित भविष्य, प्रत्यर्पण बिल पर नहीं थम रहा आंदोलन

हांगकांग ने प्रत्यर्पण बिल को निलंबित करने का एलान तो कर दिया है लेकिन लोगों का गुस्सा शांत होने का नाम नहीं ले रहा। बिल के खिलाफ़ अब भी लोगों का आंदोलन जारी है।
पूरब और पश्चिम का संधि स्थल कहा जाने वाला हांगकांग इन दिनों थम सा
गया है। वहां करीब दो सप्ताह से प्रत्यर्पण कानून में संशोधन के खिलाफ लगातार
प्रदर्शन हो रहे हैं और इस दौरान कई बार पुलिस के साथ हिंसक झड़पें भी हुई हैं।
हालांकि हांगकांग की मुख्य कार्यकारी कैरी लैम ने लोगों का गुस्सा शांत करने के
लिए प्रत्यर्पण बिल को निलंबित करने का एलान किया है, लेकिन यह
आश्वासन भी आंदोलन समाप्त नहीं कर पाया है। आंदोलनकारियों की मांग है कि
प्रत्यर्पण बिल को पूरी तरह से रद किया जाए।
हांगकांग लगभग 200 छोटे-बड़े द्वीपों का समूह है और इसका
शाब्दिक अर्थ है सुगंधित बंदरगाह। कहते हैं यहीं पूरब, पश्चिम से आकर
मिलता है। पूरब और पश्चिम का यह संधि स्थल इन दिनों थम-सा गया है। हांगकांग में
करीब दो सप्ताह से प्रत्यर्पण कानून में संशोधन के खिलाफ लगातार प्रदर्शन हो रहे
हैं और इस दौरान कई बार पुलिस के साथ हिंसक झड़पें भी हुई हैं।
हांगकांग की चीफ एक्जीक्यूटिव (मुख्य कार्यकारी) कैरी लैम ने 15 जून को भारी दबाव के बाद लोगों का गुस्सा शांत करने के लिए प्रत्यर्पण बिल को अस्थायी रूप से निलंबित करने का एलान किया था, लेकिन यह आश्वासन भी आंदोलन समाप्त नहीं कर पाया है। आंदोलनकारियों की मांग है कि प्रत्यर्पण बिल को पूरी तरह से रद किया जाए। इस आंदोलन में जनभागीदारी भी उच्चतम स्तर पर है। लगभग 70 लाख की आबादी वाले हांगकांग में 10 लाख से ज्यादा लोग सड़कों पर उतर आए हैं। हांगकांग के इस संपूर्ण मामले को समझने के लिए हांगकांग के इतिहास और चीन के साथ उसके रिश्ते को समझना आवश्यक है।
हांगकांग-चीन के रिश्ते
दुनिया का बड़ा कारोबारी हब और अल्फा प्लस शहरों में शामिल हांगकांग
का इतिहास काफी रोचक है। अफीम बेचने और चीनियों को अफीमची बनाने के विरोध में चीन
और इंग्लैंड में 1839 से 1842 तक एक युद्ध हुआ, जिसे प्रथम अफीम युद्ध भी कहते हैं। इस
युद्ध में चीन की हार हुई और उसे हांगकांग, इंग्लैंड को
देना पड़ा तथा साथ में अफीम के गोदामों को नुकसान पहुंचाने का मुआवजा भी भरना पड़ा।
दूसरे अफीम युद्ध में बीजिंग को 1860 में कोवलून से भी पीछे हटना पड़ा। इस
तरह हांगकांग 1997 तक ब्रिटेन का उपनिवेश रहा। इंग्लैंड ने चीन के साथ व्यापार करने
में हांगकांग को एक व्यावसायिक बंदरगाह की तरह प्रयोग किया।
हालांकि द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान 1941 से 1945 तक जापान का भी इस पर कब्जा रहा। जापान के इन 4 वर्षाे के शासन में हांगकांग की हालत बदतर हो गई। उस समय हांगकांग की जनसंख्या 16 लाख थी, लेकिन भूखमरी और पलायन के बाद केवल 6 लाख लोग ही बचे। जापान के जाने के बाद 1945 से आधुनिक हांगकांग के विकास की अद्भुत कहानी शुरू हुई। ब्रितानी हुकूमत में हांगकांग बड़ी तेजी से आगे बढ़ा और दुनिया का बड़ा वित्तीय और व्यावसायिक केंद्र बन गया। गगनचुंबी अट्टालिकाएं, अत्याधुनिक यातायात व्यवस्था, भ्रष्टाचार रहित प्रशासन और सबसे महत्वपूर्ण तीव्र आर्थिक प्रगति हांगकांग की पहचान बन गई। हांगकांग ने अपनी मुद्रा ‘हांगकांग डॉलर’ को मजबूत किया, जो आज दुनिया की नौवें नंबर की कारोबारी मुद्रा है।
चीन और ब्रिटेन का समझौता
1982 से लंदन और बीजिंग के बीच हांगकांग की सत्ता के हस्तांतरण की जटिल
समझौता वार्ता शुरू हुई। चीन के मुकाबले हांगकांग में बिल्कुल अलग किस्म की
राजनीति और आर्थिक व्यवस्था विकसित हो चुकी थी। वहीं चीन में 1949 से
ही कम्युनिस्ट शासन व्यवस्था कायम थी। 1997 में ब्रिटेन और चीन के बीच समझौता
हुआ। इसके अंतर्गत 1 जुलाई, 1997 को ब्रिटेन ने हांगकांग को स्वायत्तता
की शर्त के साथ चीन को सौंपा। ‘एक देश-दो व्यवस्था’ की अवधारणा के साथ हांगकांग को
अगले 50 वर्षाे के लिए अपनी स्वतंत्रता, सामाजिक,
कानूनी
और राजनीतिक व्यवस्था बनाए रखने की गारंटी दी गई थी।
इस तरह समझौते में हांगकांग को विदेश और रक्षा मामलों को छोड़कर अन्य
अधिकार मिले। इसके बाद हांगकांग चीन का विशेष प्रशासनिक क्षेत्र बन गया, जिसके
पास अपनी कानून व्यवस्था, बहुदलीय व्यवस्था, अभिव्यक्त की आजादी इत्यादि हैं। इन विशेष अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए इस क्षेत्र के
पास अपना छोटा संविधान है, जिसे बेसिक लॉ कहा जाता है। बेसिक लॉ
का मुख्य उद्देश्य सार्वभौमिक मताधिकार और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के जरिये इस
इलाके के मुख्य कार्यकारी अध्यक्ष को चुनना है।
हांगकांग का प्रशासन
हांगकांग के चीफ एक्जीक्यूटिव का चुनाव 1200 सदस्यों वाली
चुनाव समिति करती है, लेकिन वर्तमान में इसके अधिकांश सदस्यों को बीजिंग समर्थक के रूप में
देखा जाता है। हांगकांग सत्ता हस्तांतरण के समय यह तय हुआ था कि हांगकांग के लोग
अपना नेता स्वयं चुनेंगे। हांगकांग के बेसिक लॉ के अनुसार व्यवस्था का मकसद है,
क्रमशः
उस स्थिति पर पहुंचना, जहां संसद की सभी सीटों का चुनाव जनता के वोटों से हो। चीफ
एक्जीक्यूटिव के चुनाव के लिए भी ऐसे ही सिस्टम का वर्णन है। मगर ऐसा हो नहीं रहा।
हांगकांग की संसद ‘लेजिस्लेटिव काउंसिल’ में 70 सीटें हैं।
इसकी आधी यानी 35 सीटें ही सीधे लोगों द्वारा चुनी जाती हैं और शेष सीटों पर चुनाव
अप्रत्यक्ष होता है, जिसपर नियंत्रण चीन समर्थित समूहों का ही रहता है।
हांगकांग की आजादी पर संकट
वर्ष 2012 में शी चिनफिंग के सत्ता में आने के बाद से ही चीन की आक्रामकता में
वृद्धि हो गई है। शी चिनफिंग ने चीन के संविधान में संशोधन कर न केवल स्वयं को
आजीवन राष्ट्रपति बनाया है, अपितु शक्तियों का स्वयं में भारी
संकेंद्रण भी किया है। शी चिनफिंग आलोचनाओं के लिए थोड़ी सी भी सहनशीलता नहीं रखते
हैं। वैसे शी चिनफिंग से पूर्व वर्ष 2003 में हांगकांग में दंगा संबंधी कानून
के विरोध में एक बड़ा प्रदर्शन हुआ था। दंगा संबंधी कानून के तहत प्रावधान था कि
चीन के खिलाफ किसी भी किस्म का दंगा भड़काने, साजिश करने या
विद्रोह करने पर दोषी को उम्र कैद तक हो सकती है।
इस कानून के विरोध में करीब 5 लाख लोग सड़कों पर उतरे थे और इसका असर यह हुआ था कि उस कानून को रद करना पड़ा था, लेकिन शी चिनफिंग के आने के बाद से हांगकांग में स्वायत्तता परोक्ष रूप में घट रही है। वर्ष 2015 में हांगकांग के कई किताब विक्रेताओं को नजरबंद कर लेने के बाद से लोगों की चिंताएं बढ़ गई हैं। वर्ष 2014 में बीजिंग ने कहा था कि वह मुख्य कार्यकारी अध्यक्ष को सीधे चुनाव की इजाजत देगा, परंतु केवल पहले से अधिकृत उम्मीदवारों की सूची से ही इनका चुनाव होगा, लेकिन पूरी तरह लोकतंत्र चाहने वाले लोगों की ओर से इसका बड़े पैमाने पर विरोध शुरू हो गया।
यह आंदोलन अंब्रेला आंदोलन के नाम से प्रसिद्ध हुआ। करीब 79
दिनों तक लोग आंदोलन करते रहे। आखिरकार अंब्रेला आंदोलन को चीन ने असफल कर दिया,
क्योंकि
इसे नागरिकों के बड़े वर्ग का समर्थन नहीं मिला था, लेकिन इस बार का
आंदोलन हांगकांग में 1997 के बाद अब तक का सबसे बड़ा आंदोलन है,
जिससे
शी चिनफिंग अब तनाव में होंगे। स्पष्ट है कि अंब्रेला मूवमेंट में स्वायत्तता की
बात इस तरह सामने नहीं आई थी, लेकिन प्रत्यर्पण को लोगों ने सीधे
हांगकांग की राजनीतिक स्वायत्तता पर हमले के रूप में देखा है।
भविष्य की राह
दरअसल चीन इस वक्त कई मोर्चाे पर बहुपक्षीय संघर्ष कर रहा है। अमेरिका
के साथ जारी ट्रेड वार, देश की धीमी पड़ती अर्थव्यवस्था और तेजी से बढ़ती मुद्रास्फीति दर चीन
के सामने चुनौती पेश कर रही हैं। इन सबके बीच चीन हांगकांग के आंदोलनकारियों पर
दमनात्मक कार्रवाई से बचना चाहता है।
वास्तव में बीजिंग यहां पूर्ण नियंत्रण को बनाए रखना चाहता है और
अर्ध स्वायत्तता वाले इस क्षेत्र में पूर्ण लोकतंत्र की अनुमति नहीं देना चाहता
है। सवाल यह है कि अगर चीफ एक्जीक्यूटिव का चयन हांगकांग की जनता ने किया होता तो
उन्हें इस तरह अपने मूल अधिकारों के लिए सड़कों पर उतरना पड़ता? इस
संपूर्ण टकराव से चीन को महसूस हुआ कि उसे काफी नुकसान हो सकता है। चीन का जो पूरा
वित्तीय बाजार है, उसका बहुत बड़ा हिस्सा हांगकांग में है। बड़ी-बड़ी चीनी कंपनियों के 40 से
50 प्रतिशत तक स्टॉक हांगकांग में लिस्टेड हैं।
ऐसे में अगर चीन आंदोलनकारियों पर कार्रवाई करता तो उसका वित्तीय बाजार टूट जाता। यही कारण है कि चीन ने हांगकांग के 2014 के आंदोलन के महत्वपूर्ण लोकतंत्र समर्थक नेता जोशुआ वांग को भी पिछले सप्ताह छोड़ दिया था। अभी यह आंदोलन रुका नहीं है, आंदोलनकारी बिल को रद्द करने की मांग पर अड़े हैं। इस समय चीन झुकता हुए नजर आ रहा है। अभी शायद आंदोलनकारियों की मांग स्वीकार किए जाने पर आंदोलन समाप्त हो जाए, लेकिन लोकतांत्रिक आकांक्षाओं से प्रेरित युवा पीढ़ी की संख्या बढ़ने के साथ हांगकांग के भविष्य को लेकर राजनीतिक संघर्ष और बढ़ेगा।