कृषि उत्पाद की राह में चुनौती

2019-07-01 0

 प्रमुख फसलों की सरकारी खरीद कीमत को उसकी उत्पादन लागत के 50 फीसदी तक बढ़ाए जाने के बाद भी जिंस बाजारों में निरंतर गिरावट आ रही है। यह एक ऐसा विषय है जिससे देश की नई सरकार को तत्काल निपटना होगा। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) वाली अधिकांश जिंस मौजूदा रबी मार्केटिंग सीजन में इन दरों से 10 से 30 फीसदी कम दर पर बिक रही हैं। गत खरीफ सीजन में भी हालात अलग थे। केवल गेहूं और चावल ही अपवाद हैं जो चुनिंदा क्षेत्रें में सरकारी एजेंसियों द्वारा खरीदे जाते हैं। इसके अलावा तुअर, कपास और जौ पर भी यह बात लागू होती है क्योंकि इनकी मांग आपूर्ति से ज्यादा है। हालांकि दाल और तिलहन की खरीद कुछ इलाकों में सरकार

द्वारा नियत एजेंसियों द्वारा भी की जाती है लेकिन इस खरीद की मात्र अत्यंत कम है। यही कारण है कि ये बाजार को प्रभावित नहीं करती। सरकार की प्रमुख मूल्य समर्थन योजना पीएम-आशा (अन्नदाता आय संरक्षण अभियान) को भी गति नहीं मिल सकी। इस प्रक्रिया में जिन किसानों को नुकसान हुआ है, आशंका है कि नई सरकार के गठन के बाद वे भी विरोध करेंगे।

जिंस कीमतों में मौजूदा गिरावट का काफी श्रेय बीते हुए कुछ वर्ष के दौरान निरंतर अधिशेष उत्पादन को दिया जा सकता है। इसके अलावा वैश्विक स्तर पर कमजोर जिंस कीमतें और प्रतिकूल घरेलू और बाहरी व्यापार नीतियां भी इसका कारण हैं। इतना ही नहीं पुराने नए घरेलू माल के

विपणन के दौरान ही भंडारित माल का निपटान और नए आयात की इजाजत भी इसका कारण हैं। इससे अलग पीएम आशा योजना में वही मूलभूत कमियां हैं जो अन्य मूल्य समर्थन योजनाओं में।

मध्यप्रदेश तथा कुछ अन्य राज्यों में भावांतर भुगतान का प्रयास किया गया। कुछ जगहों पर तयशुदा कमीशन के आधार पर कृषि उपज की खरीद और प्रबंधन में निजी क्षेत्र को भागीदार बनाने की कोशिश भी की गई। मुख्य उपज खासकर चावल और गेहूं की खुली खरीद का काम दशकों से चल रहा है और इसकी बदौलत दुनिया की सबसे बड़ी सार्वजनिक वितरण प्रणाली सफलतापूर्वक चल रही है, लेकिन सरकारी खजाने पर इसका भारी बोझ पड़ा है। परन्तु यह भी मोटे तौर पर चुनिंदा राज्यों तक सीमित है जहां खरीद का बुनियादी ढांचा मौजूद है। अन्य स्थानों पर गेहूं और चावल की बिक्री एमएसपी से कम दर पर होती है। इस योजना को देश भर की सभी फसलों पर लागू करने की बात तो सोची भी नहीं जा सकती। भावांतर भुगतान योजना भी नाकाम रही है क्योंकि पंजीयन की प्रक्रिया जटिल थी और नियमित मंडियों के जरिए बिक्री करना अनिवार्य था जहां बिचौलिए हावी थे। उपज का अधिकतम 25 फीसदी ही खरीदा जा सकता था। तीसरा विकल्प था मूल्य समर्थन व्यवस्था में निजी कारोबारियों को शामिल करना। यह इसलिए नाकाम रहा क्योंकि खरीद, पैकिंग, परिवहन, भंडारण, निस्तारण आदि के लिए एमएसपी का केवल 15 फीसदी कमीशन तय किया गया था जो कि बहुत कम था।

इन मसलों को हल करने के अलावा कृषि-जिंस में सुधार के लिए आयात-निर्यात शुल्क दरों में बदलाव किया जाना चाहिए कि वे अपनी कृषि में विविधता लाएं और मूल्यवर्धित फसल उगाएं। इससे बिना सरकारी हस्तक्षेप के उनको बेहतर प्रतिफल मिल पाएगा। नीतिगत व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि किसानों के हितों और मुद्रास्फीति के प्रबंधन के बीच संतुलन कायम हो सके। 



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