भूमि पट्टेदारी पर कानून बनने से काश्तकार को मिलेगी राहत

जमीन को पट्टे पर देने को कानूनी रूप से वैध बनाना अब कृषि सुधार का
महज संभावित लाभदायक पहलू ही नहीं रहा बल्कि एक आर्थिक अनिवार्यता बन चुका है।
आजादी के बाद देश में भूमि स्वामित्व की सामंतवादी व्यवस्था ध्वस्त करने और जमीन
का मालिकाना हक रखने वाले और नहीं रखने वालों के बीच असमानता कम करने के लिए कृषि
सुधार किए गये थे। लेकिन अब हमें इस बात की जरूरत है कि खेती-योग्य जमीन के
स्वामित्व का दायरा बढ़ाया जाए ताकि कृषि कार्य आर्थिक रूप से व्यवहार्य बन सके।
खेती नहीं करने वाले भूस्वामियों के बेकार पड़े खेतों का भी कृषि उत्पादन के लिए
इस्तेमाल करने की जरूरत है।
उत्तराधिकार कानूनों के चलते भू-स्वामित्व में लगातार बंटवारा होते
जाने से अधिकांश जोतों का आकार इतना छोटा हो चुका है कि कृषि पर आश्रित एक औसत
परिवार की जरूरतें उससे पूरी नहीं हो सकती हैं। वर्ष 2010-11 की पिछली कृषि
जनगणना ने दिखाया था कि करीब 85 फीसदी परिचालक
भूमि स्वामित्व का आकार 2 हेक्टेयर से भी कम है और इसका औसत
आकार तो महज 1-15 हेक्टेयर ही है। इससे भी बुरी बात यह है कि छोटे एवं सीमांत कृषि
जोतों की संख्या सालाना 15 लाख से 20 लाख तक बढ़ रही
है। इसका नतीजा यह हुआ है कि जमीन के इन छोटे टुकड़ों पर खेती करना आर्थिक रूप से
और परिचालन के स्तर पर भी अव्यवहार्य हो चुका है। यह खेती की लाभप्रदता में कमी और
कृषि क्षेत्र में चौतरफा व्याप्त आर्थिक तनाव के प्रमुख कारणों में से एक है।
खेतों के बंटवारे की प्रक्रिया तब तक जारी रहने की संभावना है जब तक
कि उत्तराधिकार कानूनों को संशोधित कर उत्तराधिकारियों के बीच संपत्ति विभाजन को
नियंत्रित न किया जाए। लेकिन ऐसा होने की संभावना नहीं है। लिहाजा इसके बुरे
प्रभावों को दूर करने के लिए एक पारदर्शी एवं कानूनी रूप से वैध भूमि पट्टा बाजार
का विकास सबसे व्यावहारिक तरीका लगता है। भूमि पट्टेदारी को वैध दर्जा देने से
किसानों के बीच कृषि कार्यों के लिए जमीन का विनिमय संभव हो सकेगा और उनके
मालिकाना हक पर भी कोई असर नहीं पड़ेगा। भले ही छोटे एवं बिना जुताई वाले खेतों के
मालिक अपने खेत अपने पड़ोसियों या अन्य छोटे किसानों को पट्टे पर देने के लिए
प्रोत्साहित होंगे वहीं छोटे एवं सीमांत किसान पट्टे पर खेत लेकर अपनी आय बढ़ा
सकेंगे।
गांवों में नहीं रहने वाले अधिकतर भू-स्वामी पट्टेदारी को कानूनी
मान्यता नहीं होने से अपना कब्जा खो देने के डर से अपने खेतों को पट्टे पर देने
में संकोच करते हैं। यह कुछ राज्यों में लागू पुराने काश्तकारी कानूनों का परिणाम
है जिनमें बंटाई या पट्टे पर खेती कर रहे काश्तकारों को जमीन का स्थायी अधिकार दे
दिया गया था। इस वजह से करीब 2-5 करोड़ हेक्टेयर जुताई योग्य जमीन बंजर
पड़ी हुई है। इसके अलावा अब काश्तकारी सौदे जुबानी या गुप्त होने लगे जिसमेें किसी
भी पक्ष को सुरक्षा नहीं होती है।
इसके अलावा बंटाईदारों समेत सभी अनौपचारिक पट्टाधारकों को दूसरी तरह
की समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है। सस्ती दरों पर संस्थागत कर्ज न ले पाना,
फसल
बीमा, आपदा राहत और सरकार की तरफ से भूस्वामियों को दी जाने वाली तमाम अन्य
सुविधाएं एवं सब्सिडी नहीं मिल पाना सबसे अहम है। पट्टे पर खेती करने वाले किसान
कृषि ट्टण माफी और कृषक आय समर्थन जैसी सरकारी योजनाओं के भी पात्र नहीं हो पाते
हैं। इस तरह जमीन की उपज बढ़ाने और खेती की सक्षमता बढ़ाने के उपायों में निवेश के
लिए उन्हें प्रोत्साहन देने वाला कोई कारक भी नहीं रह जाता है।
इन अधिकांश अड़चनों को जमीन पट्टेदारी को कानूनी रूप से वैध बनाकर दूर
किया जा सकता है। नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर ट्रांसफॉ²मग इंडिया
(नीति) आयोग पहले ही आदर्श भूमि पट्टेदारी अधिनियम का प्रारूप बना चुका है जो
राज्यों के लिए अपने अलग भूमि पट्टेदारी कानून बनाने की राह दिखा सके। इस मसौदा
कानून को वर्ष 2016 में ही राज्यों के बीच वितरित कर दिया गया था लेकिन गिने-चुने
राज्यों ने ही इसके अनुरूप अपने कानूनों में बदलाव करने की रुचि दिखाई है।
प्रस्तावित कानून कृषि-भूमि के मालिक और काश्तकार किसान दोनों के ही वैध हितों को
सुरक्षित करने की बात करता है। पट्टेदारी के सौदों को आपसी सहमति से अंतिम रूप
देने की अनुमति देने से यह कानून पट्टे की अवधि खत्म होने पर भूमि का स्वामित्व
उसके असली मालिक के पास लौट आएगा।
इसके अलावा यह मसौदा कानून पट्टाधारकों को दूसरे किसानों को मिलने वाले सभी लाभ पाने का हकदार बनाने के लिए भूस्वामियों के बराबर दर्जा देता है। गौर करने लायक एक और खासियत यह है कि जमीन की उत्पादकता बढ़ाने में निवेश करने वाले काश्तकारों को पट्टे की मियाद खत्म होने पर उनके निवेश का अनुप्रयुक्त मूल्य वापस मिल जाएगा। इस प्रावधान से पट्टे वाली भूमि के समतलीकरण, मृदा स्वास्थ्य उन्नतीकरण और सिचाई सुविधाओं के विस्तार जैसे कार्यों में राज्यों की हिचकिचाहट कृषि समुदाय के हितों का ध्यान नहीं रख रही है।