जैविक खेती के लिए प्रेरित कर रहे हैं - बैंकर दीपक

वह चाहते हैं कि किसान फिर से उसी तरह की पद्धति अपनाएं जो पहले कभी उनकी पहचान थी। तीन साल तक जमीन बिना उर्वरक और खेती के खाली छोड़ दें तो जैविक फसल मिलती है।
दीपक गुप्ता बैंकर से किसान बन गये हैं। वह भी कोई सामान्य किसान
नहीं, बल्कि ऐसा किसान जो केवल जैविक फल और सब्जियां ही उगाता और बेचता है
और वह भी जैविक पद्धति से ही केवल प्राकृतिक खेती करके। दीपक के पिता रेलवे में
थे। अपने बचपन से किशोरावस्था के वर्षों में दीपक ने पूरे भारत का भ्रमण किया था।
वह 1980 के दशक की शुरुआत में दिल्ली के श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स में पढे़,
एक्सएलआरआई
से एमबीए किया, एचडीएफसी बैंक तथा आईसीआईसीआई में काम किया और बैंकर के रूप में
जोहान्सबर्ग व टोरंटो गये। उन्हें पश्चिम की इस जैविक खाद्य मुहिम का ज्ञान हुआ कि
मानव शरीर में रासायनिक जहर घुल रहा है जो कैंसर जैसी बीमारियों की ओर ले जा रहा
है। गुप्ता और उनकी पत्नी स्मिता के 2012 में भारत लौटने के बाद खेती के बारे
में ज्यादा जानकारी न होते हुए भी उन्होंने जैविक खेती के क्षेत्र में जाने का
फैसला किया। उनकी कंपनी का नाम ऑर्गेनिक माटी है।
गुप्ता जैविक किसानों को खोजने के अपने प्रयासों के बारे में बताते
हैं, ‘मैंने पाया कि सोनीपत में एक किसान है जो जैविक सब्जियां उगा रहा है।
संकेत के रूप में मेरे पास बस उसका नाम और ‘सोनीपत’ ही था। मैं वहां गया। कई मील
तक गाड़ी चलाई लेकिन उसे नहीं खोज पाया। आखिर में एक घंटा पैदल चलकर मैंने उन्हें
खोज ही लिया। उनका नाम रमेश डागर है। उसने मुझे बहुत कुछ सिखाया।’ गुप्ता के अन्य
गुरु विदर्भ के शून्य बजट प्राकृतिक खेती के समर्थ थे जो जैविक खेती से भी एक कदम
आगे बढ़ जाती है और इसमें केवल देशी बीजों तथा गाय के गोबर की खाद का ही प्रयोग
किया जाता है। इस तरह, निवेश मद के रूप में इसमें कोई ज्यादा लागत नहीं आती। जैविक खेती में
एक विशेष व्यवस्था का पालन किया जाता है- अगर आपने जमीन को तीन साल के लिए बिना
खेती किए छोड़ा है, रासायनिक उर्वरकों वगैरह का प्रयोग नहीं किया है तो ऐस में आपकी उपज
को जैविक उपज का अधिकार मिल जाता है।
लेकिन जीन संवर्धित (जीएम) बीजों का मामला कुछ पेचीदा है। प्राकृतिक
तौर पर खेती करने वाले किसान जीएम बीजों का इस्तेमाल नहीं करते। वह बताते हैं कि
जीएम बीज ज्यादा उपज देते हैं, अधिक दमदार होते हैं और उनके लिए कम
श्रम की जरूरत पड़ती है, लेकिन वे महंगे होते हैं और केवल एक ही फसल के लिए बेहतर होते हैं।
अगर कोई फसल बेकार हो जाए तो आप दिवालिया हो जाते हैं, आपके पास कुछ
नहीं रहता। एक बार आप जीएम के चक्कर फंस जाते हैं तो आप उसी का इस्तेमाल करते रहते
हैं। इसके बाद कीटनाशक, रसायन और यही सब रहता है।
क्या वास्तव में यह आपके लिए अच्छा हो सकता है? प्राकृतिक
खेती में देशी भारतीय बीजों का प्रयोग किया जाता है और फसल स्वयं ही अगले साल की
फसल के लिए बीज देती है। हमारे पूर्वज खेती के इसी तरीके का इस्तेमाल किया करते
थे। यह सच है कि इसमें रम लागत ज्यादा रहती है लेकिन जो आप उपजाते हैं, वह
शुद्ध और रसायन-मुक्त होता है। स्मिता बच्चों के लिए ऐसे वस्त्र लेकर आई हैं
जिनमें सिर्फ प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल किया जाता है। हाल ही में व्यक्तिगत
बॉडी-केयर उत्पाद लान्च किए गये हैं। गुप्ता किराये पर जमीन लेते हैं, फल-सब्जी
के लिए खेती करते हैं, स्थानीय लोगों को उनके काम का भुगतान करते हैं। एक छोटी-सी राशि देकर
कोई भी इस जमीन का ‘राजकुमार’ बन सकता है और शहरों के प्रदूषण व तनाव से दूर
सप्ताहांत में खेत का दौरा करते हुए उपज के आधे हिस्से का लाभ उठा सकता है। हर साल
50,000 रुपये देकर आप प्रकृति के तत्वों की शुद्धता का हिस्सा बन सकते हैं।
लेकिन क्या इससे उन्हें पैसे की कमाई होती है? इसका जवाब वे न में देते हैं। उनका कहना है कि आर्गेनिक माटी की अभी लागत के बराबर मुनाफा नहीं मिला है। लेकिन टीम इसमें जुटी हुई है। फिलहाल हमारी संख्या काफी कम है। केवल 15 परिवार ही पट्टे पर खेती करने के मॉडल पर काम कर रहे हैं। उनके लिए यही संतोषजनक बात है कि ज्यादा से ज्यादा किसान खेती की उस पुरानी प्रणाली से अवगत हो रहे हैं जिन्हें पहले कभी वे जानते थे लेकिन भूल गये थे और गुप्ता से सीखकर फिर से प्राकृतिक या जैविक फसल उगा रहे हैं। वे इस बात से प्रसन्न हैं कि एक बार उनका परिचालन बढ़ जाए तो वे इसे एक व्यावसायिक उद्यम बना सकेंगे और धरती पर उसके साथ शांति से रहेंगे।