भारत की व्यापार नीति पर पुनर्विचार का समय

हमें उभरते क्षेत्रीय व्यापार गठजोड़ों से जुड़ाव के महत्त्व को समझना होगा। इसके साथ ही प्राथमिकता आधारित व्यापारिक प्रणाली की उपयोगिता भी समझनी होगी। विस्तार से बता रही हैं - अमिता बत्रा
मई के आरंभ में अमेरिका द्वारा 20,000 करोड़ रुपये मूल्य की चीनी वस्तुओं पर आयात शुल्क दर को 10 फीसदी से बढ़ाकर 25 फीसदी करने से वैश्विक व्यापारिक तनाव बढ़ा। इसके बाद चीन ने भी अमेरिका से आने वाले 600 करोड़ डॉलर मूल्य के सामान पर आयात शुल्क 5 फीसदी से बढ़ाकर 25 फीसदी करने की
घोषणा की। इन बातों का बुरा असर केवल अमेरिका और चीन के द्विपक्षीय
रिश्ते पर ही नहीं बल्कि वैश्विक वृद्धि पर भी पड़ेगा। विश्व व्यापार संगठन ने गत
माह अपने संशोधित अनुमान में पहले ही 2019 की वैश्विक वृद्धि के अनुमान को पहले
के 3-7 फीसदी से कम करके 2-6 फीसदी कर दिया था। इसके अलावा हाल ही
में भारत आए अमेरिका के वाणिज्य मंत्री विल्बर रॉस ने भारत के
संरक्षणवादी कदमों की तीखी आलोचना की थी। इन बातों से भारत-अमेरिका
के द्विपक्षीय आर्थिक रिश्ते और व्यापारिक कूटनीति काफी हद तक प्रभावित हो सकते
हैं।
वस्तु व्यापार घाटा 2018-19 में 17,600 करोड़ डॉलर रहा।
33,100 करोड़ डॉलर का निर्यात 2013-14 के बाद सबसे
अधिक है, फिर भी यह वाणिज्य मंत्रलय द्वारा तय लक्ष्य से काफी कम रहा। भारत को
अपनी वाणिज्य नीति पर तत्काल विचार करने की आवश्यकता है। मंत्रालय का नवगठित कार्य
समूह पारंपरिक क्षेत्रें में निर्यात को बढ़ावा देने के लिए काम कर रहा है लेकिन इन
चुनौतीपूर्ण हालात में वैश्विक मूल्य शृंखला आधारित व्यापार की कहीं अधिक गहन समझ
आवश्यक है। हालिया दिनों में प्राथमिकता वाले कारोबारी समझौते इसका उदाहरण बनकर
उभरे हैं। भारत को उभरते क्षेत्रीय कारोबारी समझौतों की अहमियत समझनी होगी।
देश का निर्यात कम कौशल और श्रम आधारित क्षेत्रों पर आधारित है। रत्न एवं आभूषण, कपास, वस्त्र एवं जूते चप्पल आदि कुल मिलाकर बीते डेढ़ दशक में देश के निर्यात का 25 से 35 फीसदी रहे हैं। ऑफिस मशीनरी क्षेत्र का 40 फीसदी निर्यात अन्य देशों में चला गया जबकि यह बहुत अच्छा क्षेत्र रहा है। बिजली उपकरणों और मशीनरी क्षेत्र का देश के निर्यात में बमुश्किल 4-5 फीसदी ही योगदान है। यह बताता है कि वैश्विक मूल्यवर्धन शृंखला में हमारा योगदान कितना कम रहा है। भारत केवल कपड़ा एवं वस्त्र क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा कर रहा है। हालांकि इस क्षेत्र के मूल्य-वर्धन में भी बांग्लादेश, वियतनाम और चीन जैसे देश मौजूद हैं। इस क्षेत्र में भी समय के साथ-साथ भारत का निर्यात घटा है और यह 2000-2012 के 5 फीसदी से घटकर 2017 में 4 फीसदी हो गया है। इसी अवधि में बांग्लादेश जैसे प्रतिस्पर्धी देशों की वैश्विक निर्यात में हिस्सेदारी 4-5 फीसदी से बढ़कर 8-1 फीसदी हो गई। वैश्विक कपड़ा एवं वस्त्र निर्यात में चीन की हिस्सेदारी 37 फीसदी है। देश के अन्य प्रमुख निर्यात क्षेत्रों की बात करें तो इनमें चमड़े की वस्तुएं, रसायन और वाहन आदि में कम पुनर्स्थापन देखने को मिला है। कुल मिलाकर हमारा निर्यात वैश्विक मूल्य वृद्धि आधारित कारोबार के तर्ज पर विकसित नहीं हुआ है।
फिलहाल वैश्विक मूल्य वृद्धि शृंखला में बदलाव आ रहा है और घरेलू सामग्री बढ़ रही है और
क्षेत्रीय समावेशन मजबूत हो रहा है। खसतौर पर पूर्वी एशिया में और वाहन, कंप्यूटर
और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के क्षेत्र में। पूर्वी एशिया वैश्विक विनिर्माण केंद्र
के रूप में उभरा है जो चीन के इर्दगिर्द केंद्रित है। यूरोपीय संघ और उत्तरी
अमेरिका ऐसे अन्य प्रमुख केंद्र थे। यूरोपीय संघ में व्यापार और वृद्धि को अभी भी
वित्तीय संकट के पहले जैसी स्थिति में आने में समय लगेगा। वहीं अमेरिका व्यापारिक
विवादों में उलझा है। ऐसे में पूर्वी एशिया ही सबसे मजबूत विनिर्माण केंद्र बचा।
ऐसे में भारत के लिए यह आवश्यक है कि वह पूर्वी एशिया के साथ बेहतर एकीकरण वाली
कारोबारी नीति पर ध्यान केंद्रित करे। क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसीईपी)
भारत को यह अवसर देता है।
दुर्भाग्य की बात है कि आरसीईपी को लेकर भारत का नजरिया इस समूह की
सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था चीन के साथ द्विपक्षीय व्यापार घाटे तक सीमित है।
प्राथमिकता वाली व्यवस्था के तहत चीन की वस्तुओं की बाढ़ न आ जाए, इस
डर से आरसीईपी को लेकर भारत का रुख रक्षात्मक है और वह गैर एफटीए साझेदारी वाले
देशों मसलन चीन, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के साथ कम स्तर वाले प्राथमिकता बाजार में
पहुंच हासिल कर सके। आरसीईपी का तात्पर्य केवल चीन के साथ व्यापार नहीं है। चीन
दुनिया के लगभग सभी प्रमुख देशों का बड़ा कारोबारी साझेदार है। ऐसे में चीन की
वस्तुएं किसी न किसी तरह भारत में अपनी पहुंच बना ही लेंगी। इसे एक बड़े क्षेत्रीय
व्यापारिक समझौते के रूप में देखा जाना चाहिए।
एकपक्षीय खुलेपन के अलावा बीते दो दशक की तमाम व्यापार उदारीकरण
योजनाएं क्षेत्रीय स्तर पर ही रहीं। वर्ष 2017 तक करीब आधी
दुनिया के कारोबार किसी न किसी तरह प्राथमिकता वाले व्यापार समझौते के तहत हो रहे
थे। भारत की व्यापारिक नीति को एक वक्त बहुपक्षीय ढंग से निपटाया जा सकता था
लेकिन आज जबकि विश्व व्यापार संगठन प्रासंगिक बने रहने की कोशिश कर रहा है,
बड़े
क्षेत्रीय व्यापार समझौते कारोबार का अहम कारक बन चुके हैं। दुनिया के तमाम बड़े
व्यापारिक क्षेत्रों में व्यापक सदस्यता के साथ ये व्यापारिक समझौते किफायती
सीमापार व्यापार को संभव बनाते हैं। आरसीईपी एशिया प्रशांत क्षेत्र में ऐसा इकलौता
क्षेत्रीय व्यापार समझौता है जिसमें चीन और भारत दोनों सदस्य हैं।
अन्य सदस्य देश या तो व्यापक प्रगतिशील प्रशांत पार साझेदारी
(सीपीटीपीपी) के सदस्य हैं जैसे कि मलेशिया, ब्रुनेई,
जापान,
वियतनाम,
सिंगापुर,
ऑस्ट्रेलिया
और न्यूजीलैंड या फिर सदस्यता की इच्छा दर्शा चुके हैं जैसे कि इंडोनेशिया,
थाईलैंड
और कोरिया। भारत और चीन सीपीटीपीपी के सदस्य नहीं हैं। इन दोनों समझौतों की बात
करें तो आरसीईपी एक छोटा क्षेत्रीय व्यापार समझौता है जिसे अभी वस्तुओं और सेवाओं
के उदारीकरण पर काम करना है। जबकि सीपीटीपीपी, डब्ल्यूटीओ के
प्रावधान के साथ कहीं अधिक महत्त्वाकांक्षी समझौता है।
चीन अमेरिका के साथ व्यापार युद्ध में उलझा हुआ है। ऐसे में व्यापक क्षेत्रीय व्यापार ढांचे के तहत उसके साथ वैकल्पिक बाजार बढ़त को लेकर द्विपक्षीय समझौता किया जा सकता है। आरसीईपी से जुड़ी बातचीत के पूरा होने के बाद भारत की व्यापारिक कूटनीति को ऐसे समझौते की दिशा में काम करना चाहिए।