लोगों की आंखें अंधी, कान बहरे, मुंह से जुबान गायब है चीन में सच बताने के लिए कोई बचा नहीं

मीडिया की स्वतंत्रता को कुचलने के कार्यक्रम आलीशान बनाए गए। सुंदर शामियाने लगाए गए। उस शामियाने में विपक्ष के नेता और दिल्ली-मुंबई के विद्वान भी बिठाए गए। लेखक, जानकार, वरिष्ठ पत्रकार सबने उन बहसों में शिरकत कर पहले इसे वैधता प्रदान की। ऐसे कार्यक्रमों के नाम उन शब्दों से रखे गए जिनकी पहचान लोकतांत्रिक मूल्यों की अभिव्यक्ति के लिए की जाती है। बाद में इन अच्छे लोगों को हटाकर उसी मंच पर कब बदतमीज और पुरातनपंथी एक्सपर्ट और प्रवक्ता ले आए गए, पता ही नहीं चला।
उन्मुक्त आवाज की जगह सिमट गई है। आप स्वतंत्र पत्रकार हैं, कहना खतरनाक हो गया है। राष्ट्रपति शी जिनपिंग के शासन में ऐसे पत्रकार गायब हो गए हैं। सरकार ने दर्जनों पत्रकारों को प्रताड़ित किया है और जेल में बंद कर दिया है। समाचार संस्थाओं ने गहराई से की जाने वाली रिपोर्टिंग बंद कर दी है। चीन में शी जिनपिंग के साथ मजबूत नेता का उफान फिर से आया है। इसका नतीजा यह हुआ है कि चीन के प्रेस में आलोचनात्मक रिपोर्टिंग बंद हो गई है। यह संपूर्ण सेंसरशिप का दौर है। हमारे जैसे पत्रकार करीब करीब विलुप्त हो गए हैं।’’ 43 साल की पत्रकार जांग वेनमिन का यह बयान न्यूयार्क टाइम्स में छपा है।
जांग चीन की साहसी खोजी पत्रकार मानी जाती थीं। देश भर में घूम-घूम
कर पर्यावरण की बर्बादी, पुलिस की बर्बरता और अदालतों में बिना
सबूत के सजा की खबरें इकट्ठा करती थीं। इन दिनों जांग की जड़ें काट
दी गई हैं। उन्हें चीन का कोई भी अखबार या वेबसाइट नहीं छापता है। सरकार ने उनके
सोशल मीडिया अकाउंट को बंद करा दिया है। जांग लिखे तो कहां लिखें, सुनाएं
तो किसी सुनाएं। उनके पास रोजगार नहीं है। किसी तरह अपनी बचत के जरिए जी रही हैं।
भ्रष्ट नेताओं पर रिपोर्ट बनाने के कारण साल भर के लिए जेल में बंद कर दिया।
सच बताने के लिए कोई बचा नहीं है। सरकार ने नागरिकों को अज्ञानी बना
दिया है। उन्हें कुछ पता नहीं है। लोगों की आंखें अंधी हो गई हैं, उनके
कान बहरे हो गए हैं और उनके मुंह में कोई शब्द नहीं हैं। आलोचना का अधिकार सिर्फ
पार्टी के पास है। खोजी पत्रकारिता को सिस्टम की कमियों को ठीक करने के मौके के
रूप में नहीं देखा जाता है। शी जिनपिंग की पार्टी-स्टेट समझती है कि इससे सामाजिक
स्थिरता को खतरा है। कई बार तो पता ही नहीं चलता है कि सेंशरशिप कहां से आ रहा है।
गांव से शहरों में आए लोगों के विस्थापित जीवन पर फीचर स्टोरी करने
वाली वेबसाइट को कई बार बंद कर दिया गया। आरोप लगाया गया कि ओरिजिनल रिपोर्टिंग के
जरिए जनमत को नुकसान पहुंचाने का प्रयास किया गया है। जिन मुद्दों को पहले कवर
किया जाता था उन्हें काफी सीमित कर दिया गया है। फ़ क्ंपसल की एडिटर-इन-चीफ यांग यिंग
का कहना है कि फ्सरकारी हस्तक्षेप के कारण वेबसाइट का बिजनेस ठप्प हो गया है।
वेबसाइट ने राजनीति और सेना के कवर किए जाने पर सरकारी कंट्रोल को मानने का भी
प्रयास किया लेकिन पता नहीं कब किस बात से सरकार नाराज हो जाए। यहां मीडिया
संस्थान चलाने में कोई सम्मान नहीं बचा है। फ्चीन के बाहर गलत रिपोर्ट छापने के
कारण पत्रकारों को निकाला जाता है, चीन के भीतर सही रिपोर्ट छापने के कारण
नौकरी चली जाती है।
जांग वेनमिन और यिंग यांग भारत की पत्रकार नहीं हैं। फिर भी इनकी
बातें भारत पर भी लागू होती हैं। भारत में भी खोजी पत्रकारिता या फील्ड में जाकर
मेहनत से ऽोज कर लाई गई रिपोर्टिंग बंद होती जा रही है। ऐसा इसलिए किया जा रहा है
ताकि कोई खबर सीधे सरकार से न भिड़ जाए। मुख्यधारा की ज्यादातर मीडिया संस्थानों के
यहां यही हो रहा है। कुछ छोटी संस्थाएं और कुछ जुनून पत्रकारों की वजह से खबरें
यहां वहां से छलक कर आ जाती हैं लेकिन धीरे-धीरे अब वो भी कम होती जाएंगी।
वैसे तो बहुत देर हो चुकी है। आप सरकार के समर्थक हों या आलोचक,
कोई
फर्क नहीं पड़ता है। भारतीय रेल के कर्मचारियों ने कई जगहों पर हड़ताल की। आराम से
कहा जा सकता है कि रेलवे के ये लाखों कर्मचारी 2019 के चुनाव में
बीजेपी के साथ ही खड़े रहे होंगे। यही कर्मचारी उसी गोदी मीडिया के उपभोत्तफ़ा भी
होंगे। जिनके जरिए उन्होंने अपने दिमाग में खास छवि बनाई। आज जब उनका अस्तित्व
दांव पर है, तो यही मीडिया उनके लिए नहीं आया। उनके आंदोलन को वैसा कवरेज नहीं
मिला जैसा मिलना चाहिए था।
अब यही रेल कर्मचारी व्हाट्स एप में मेसेज फार्वर्ड कर रहे हैं कि
मीडिया बिक गया है। उनके आंदोलन को नहीं दिखा रहा है। जब तक रेल कर्मचारियों के
अस्तित्व पर संकट नहीं आया था, तब तक वे इसी मीडिया के समर्थक थे और
उपभोत्तफ़ा थे। अपनी मेहनत की कमाई खर्च कर रहे थे। अब अचानक उन्हें मीडिया के
बिके होने का ज्ञान प्राप्त हो रहा है।
यही हाल कई तबकों का है। यही हाल सबका होगा। लोगों ने समझना बंद कर दिया है
कि सरकार को चुनना और मीडिया को चुनना एक ही बात नहीं है। मीडिया को जिस माहौल में खत्म किया गया, उस माहौल के समर्थक बने रहने वाले ये रेलवे कर्मचारी, अब
किस मीडिया से उम्मीद कर रहे हैं। अगर उन्होंने इतना ही यकीन है कि मीडिया बिका
हुआ है तो क्या उन्होंने उन अखबारों को बंद किया जिनके कंटेंट को बिना सोचे समझे
गटक रहे थे। हर महीने 300 से 500 रुपये खर्च कर
रहे थे। क्या टीवी का रीचार्ज बंद कर दिया?
अगर आप मानते हैं कि मीडिया बिका है तो अपने आंदोलन में मीडिया की
आजादी का भी मुद्दा शामिल कीजिए। अहिंसक और सकारात्मक दबाव के जरिए प्रेस के सवाल
को उठाइये और राजनीतिक दबाव बनाइये। वर्ना जल्दी ही भारत के बारे में भी आप
सुनेंगे। पत्रकारिता समाप्त हो गई है। पत्रकारिता में कोई सम्मान नहीं बचा है। जब
सम्मान बिकने के बाद मिलने लगे तो फिर क्यों कोई जोखिम में डालकर पत्रकारिता करेगा?
और
इतने बड़े देश में पत्रकारिता जोखिम ही क्यों हो, खबरें लिखने पर
रोक क्यों हों और लिख देने पर नौकरी क्यों जाएं।
आप गौर करें। किस तरह टीवी चौनल भारत के लोकतंत्र की हत्या कर रहे
हैं। अखबार नींद की गोली खिलाते हैं और चैनल दर्शक और पाठक का गला रेत देते हैं।
आज आप मेरी इन बातों को खारिज करेंगे लेकिन याद करेंगे एक दिन। जब चित्तरंजन,
पतरातू
और कपूरथला के रेल कारखानों के बाहर आंदोलन कर रहे होंगे और कोई पत्रकार आपकी खबर
के लिए नहीं आएंगे। तब एक बात और याद कीजिएगा। आप भी इसके लिए जिम्मेदार हैं।
आप ही सोचिए, जब चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत
के प्रधानमंत्री से मिलते हैं तो क्या हम इन सवालों को महत्व देते हैं, क्या
सोचते हैं कि यह कैसा मंजर है? हमारे लिए वह महानता और उपलब्धि के
गौरवशाली क्षण होते हैं। आप इन क्षणों की तलाश में लगे रहिए। पतन के निशान आपके
कदमों के नीचे गहरे होते जा रहे हैं। बस फिसल कर गिरने या धंस जाने पर मीडिया को
दोष न दीजिए। आपको पता था कि यह बिका हुआ मीडिया है, फिर भी आप इस पर
पैसे खर्च कर रहे थे। इस पर सवाल नहीं कर रहे थे। इसे लेकर सरकार से सवाल नहीं कर
रहे थे।
16 विपक्षी दलों ने राज्य सभा में मीडिया की स्वतंत्रता पर बहस के लिए
अर्जी दी है। विपक्ष मीडिया को लेकर बहुत देर से जागा है। 16 दलों के नेता
अपनी बहस के अगले दिन एक रिपोर्ट तैयार करें। उस बहस की खबर कितने अखबारों में छपी,
चैनलों
में दिखाई गई। उस रिपोर्ट को राज्यसभा के सभापति के यहां जमा कर दें। विपक्ष के
जागने से कुछ नहीं होने वाला है। अब जो होना है वह लंबे दौर के लिए हो चुका है। अब
यहां से वापसी का रास्ता नहीं है। विपक्ष के नेताओ ने भी उन बहसों में जाकर उन
कार्यक्रमों को मान्यता दी है जहां पत्रकारिता नहीं होती है, प्रोपेगैंडा
होता है।
मीडिया की स्वतंत्रता को कुचलने के कार्यक्रम आलीशान बनाए गए। सुंदर
शामियाने लगाए गए। उस शामियाने में विपक्ष के नेता और दिल्ली, मुंबई
के विद्वान भी बिठाए गए। लेखक, जानकार, वरिष्ठ पत्रकार
सबने उन बहसों में शिरकत कर पहले इसे वैधता प्रदान की। ऐसे कार्यक्रमों के नाम उन
शब्दों से रखे गए जिनकी पहचान लोकतांत्रिक मूल्यों की अभिव्यत्तिफ़ के लिए की जाती
है। इन अच्छे लोगों को हटा कर उसी मंच पर कब बदतमीज और पुरातनपंथी एक्सपर्ट और
प्रवत्तफ़ा ले आए गए, पता ही नहीं चला। उनके जाने से प्रोपेगैंडा को वैधता मिलती ही जा रही
है। दर्शक कभी नहीं समझ पाएगा कि जिस टीवी को देख रहा है वह टीवी उसके साथ क्या खेल रहा है।
मीडिया सिर्फ सरकार और कॉरपोरेट की तरफ से खत्म नहीं होता है। समाज के सभी हिस्सेदारों की मदद से भी खत्म होता है।