खेती का विकल्प खोजने लगे हैं किसान?

देश में कृषि की हालत इस समय एक रहस्य है। समझ में नहीं आ रहा है कि
अर्थव्यवस्था का यह क्षेत्र मुनाफे का क्यों नहीं बचा? कृषि के अलावा
भारतीय अर्थव्यवस्था के बाकी दो क्षेत्र हैं। उद्योग और सेवा क्षेत्र। देश की माली
हालत यानी जीडीपी बढ़ाने में इन्हीं दो क्षेत्रें की भागीदारी सबसे ज्यादा है और ये
बढ़ती ही जा रही है, इसलिए योजनाकार यह मानकर क्यों नहीं चलेंगे कि जीडीपी बढ़ाने वाले
इन्हीं उद्योग और सेवा क्षेत्र पर ज्यादा ध्यान लगाया जाए और देश की आर्थिक वृद्धि
दर बढ़ाई जाए।
लेकिन क्या देश के लिए आर्थिक वृद्धि दर ही सब कुछ है? जब
हमने जान लिया है कि आर्थिक वृद्धि दर सबका विकास नहीं कर पा रही है तो हमें यह भी
मान लेना चाहिए कि आर्थिक वृद्धि के आंकड़ों का लोकतंत्र के समतुल्य वितरण के
लक्ष्य से कोई रिश्ता-नाता बन नहीं पा रहा है। मौजूदा हालात ये है कि देश की आधी
से ज्यादा आबादी वाला किसान खेती छोड़कर कुछ और करने के इतने बड़े तबके के लिए
रोजगार या कामधंधा ढूंढ़ सके? गांव से पलायन इसी समस्या का प्रत्यक्ष
लक्षण है।
खेती छोड़ने की बात कितनी सनसनीखेज
देश भर से खबरें आ रही हैं कि ज्यादातर किसान खेती छोड़ना चाह रहे
हैं। कुछ समय पहले सीएसडीएस यानी सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज ने एक
सर्वे के जरिए इस हकीकत का खुलासा किया था। सर्वेक्षण के मुताबिक 76
फीसद किसान खेती छोड़कर कोई दूसरा काम करना चाहते हैं, लेकिन यह शोध
सर्वेक्षण रिपोर्ट उस जैसी दूसरी मीडिया रिपोर्टों की तरह अनदेखी का शिकार हो गई।
फिलहाल इन अनदेखी के कारणों की बात में उलझना फिजूल है। जरूरी बात यह है कि किसान
अगर खेती छोड़कर और काम करना चाहते हैं तो इसके और क्या-क्या मायने हैं।
गांवों से पलायन की स्थिति किसी से छुपी नहीं थी। यानी इसे पहले भी
भांपा जा सकता था। पिछले कुछ साल से कृषि उत्पादों के दामों में मंदी, सिंचाई
के पानी, बिजली की कमी और उपज की लागत बढ़ते जाने पर चिन्ता जताई जा रही थी।
उसी बीच किसान आंदोलनों की संख्या बढ़ गई। इससे समझ लिया जाना चाहिए कि खेती-किसानी
की हालत कितनी नाजुक है।
बहरहाल किसानों का असंतोष इतना लंबा खिंचा कि यह भी समझ में आ जाना
चाहिए था किसानों के पास गांव छोड़कर काम की तलाश में शहर की तरफ भागने के अलावा
कोई चारा बचेगा नहीं। और अब तो हमें यह कबूल करने को तैयार हो जाना चाहिए कि देश
के लिए भोजन का इंतजाम करने वले गांव और किसानों के साथ न्याय करने में हम नाकाम
होते जा रहे हैं। देश की आधी से ज्यादा आबादी के साथ यह अन्याय हमें बेरोजगारी और
कम से कम नीतिगत भ्रष्टाचार पर बात करने के लिए मजबूर कर सकता है।
मसला खेती में छद्म रोजगार का
दिखता यही है कि कृषि सबसे ज्यादा रोजगार देने वाला क्षेत्र है। इस
भ्रम में पड़ने का कारण यह है कि देश के कुल कार्यबल का आधे से ज्यादा हिस्सा खेती
में लगा बताया जाता है, लेकिन हम इस बात पर गौर करने से चूक गये कि रोजगार और छद्म रोजगार
में फर्क होता है। इस समय छद्म रोजगार का अगर कोई सबसे बड़ा शिकार है तो वह कृषि
क्षेत्र ही है। विशेषज्ञ लोग छद्म रोजगार को बेरोजगारी ही मानते हैं।
छद्म रोजगार वह रोग है जिसमें किसी काम में जरूरत से ज्यादा लोग
फिजूल में लगे होते हैं। गांव के युवा बेरोजगार मजबूरी में अपने परिवार के
छोटे-छोटे खेतों में लगे नजर आते हैं। जबकि उतने हाथों की वहां जरूरत ही नहीं है
या यों कहें कृषि क्षेत्र में शोधार्थियों के लिए यह शोध का विषय होना चाहिए।
क्या हुआ अब तक?
वैसे पिछले कुछ साल में गांव में दिलासा देने वाले काफी नारे बने।
समर्थन मूल्य, रासायनिक खाद, बाकी बचे गांवों में दरवाजे वाले
शौचालय और इस तरह की कुछ योजनाएं सुनाई दीं। ये सारी योजनाएं अगर गांव के लोगों को
गांव में रहकर किसानी का काम चालू रखनेे के लिए तैयार नहीं कर पा रही हैं तो हमें
नए सिरे से सोचना पड़ेगा। वैसे चुनाव के कुछ पहले ही सरकार ने यह सोचा था कि किसान
परिवार के मुखिया के खाते में हर महीने 500 भेजकर उन्हें बहुत फायदा मिलेगा।
चुनाव प्रचार के दौरान यह भी कहा गया कि 500 रुपए महीने की
इस रकम से उसे फसल की लागत कम महसूस करने में मदद मिलेगी, समर्थन मूल्य पर
फसल बेचकर जो पैसे मिलते हैं उसमें किसान बढ़ोत्तरी महसूस करेगा।
शहर जाकर वह जो जूते-चप्पल कपड़े-लत्ते, प्लास्टिक की
बाल्टी, मग्गे, झोपड़ी को ढकने की पन्नी बगैरह खरीदकर लाता है उन सबके लिए 500
रुपए काम आएंगे। शादी-ब्याह और खेती के औजार खरीदने में इसी रकम को मददगार बताने
की बातें अफसर और नेतागण बताते आ रहे हैं। बेशक नगदी की सीधी मदद कितनी भी हो वह
राहत देती ही है लेकिन यह भी आंकलन किया जाना चाहिए कि बहुत ही बदहाल किसान पर
पिछले छह महीनों में इस मदद का कितना असर पड़ा?
क्या यह कल्याणकारी राज्य से दूर जाने का लक्षण?
आजादी मिलने के बाद हमने मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया था। यह सभी के आर्थिक हितों के साथ
लेकर चलने का लक्ष्य था। सोचा गया था कि जो तबका मुश्किल में आएगा उसके लिए सरकार
अपनी तरफ से ज्यादा गौर करेगी। लेकिन साल दर साल जीडीपी में कृषि का हिस्सा घटते
जाना क्या बताता है?
आर्थिक वृद्धि के लिए उद्योग और सेवा क्षेत्र पर बढ़ती निर्भरता क्या
संकेत दे रही है? क्या यह पूंजी आधारित व्यवस्था की ओर इशरा नहीं कर रही है। क्या यह
पूंजीवादी व्यवस्था भारत के परिपेक्ष्य में इतनी कारगर हो सकती हैं कि 65
करोड़ की ग्रामीण आबादी को खेती की बजाए किसी और काम में खपा सके। जब हम शहर के
शिक्षित प्रशिक्षित युवाओं को ही कामधंधा नहीं दिला पा रहे हैं तो क्या गांव के
युवाओं को काम दिलाने की बात सोच भी सकते हैं।
विकसित देशों से अपनी खेती की तुलना
जब समस्या जटिल हो जाए और उसका समाधान न सूझ रहा हो तो इतिहास-भूगोल
जानने पर लगाना पड़ता है। इस काम पर लगेंगे तो उन विकसित देशों को देखना पड़ेगा जो
ऐसी समस्या से गुजरे हैं। ऐसा एक देश है अमेरिका।
सन् 1870 में अमेरिका के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा 50
फीसद था। उसकी आधी से ज्यादा आबादी खेती में लगी थी। बिल्कुल उतनी जितनी आज हमारे
देश में लगी है। लेकिन अमेरिका में आज जीडीपी में कृषि का हिस्सा घटकर सिर्फ एक
फीसद रह गया। अगर अमेरिकी खेती के साथ खाद्य व्यापार से जुड़े सभी उद्योगों के
आंकड़े जोड़ लें तो वह भागीदारी पांच फीसद ही बैठती है। इस समय वहां दो फीसद से भी
कम लोग खेती -किसानी में लगे हैं।
अमेरिका के पूंजीवादी ढांचे ने अपनी 50 फीसद आबादी जो
खेती में लगी थी उसे दूसरे रोजगार में खपा लिया और उसने यह काम किसी भी तरह की
खाद्य आपूर्ति के संकट के बिना कर लिया। वह ऐसा कर पाया क्योंकि उसके उद्योग जगत
में ऐसी क्षमता थी कि वह कृषि छोड़कर आए किसानों को जगह दे सके। साथ ही वहां सरकार
के जरिए खेती को इतना उन्नत किया गया कि खाद्य संकट खड़ा न हो। बल्कि खाद्य निर्यात
के मामले में अमेरिका दुनिया के शीर्ष देशों में से एक है।
कैसे किया अमेरिका जैसे देशों ने
अमेरिका अपने कृषि में लगी आबादी को वहां से निकालकर दूसरे काम में
कैसे लगा पाया? उसने सबसे पहले कृषि में भारी निवेश किया। आज भी वहां कृषि को सरकारी
सब्सिडी का आकार बेहद बड़ा है। किसानों को फसल उगाने से लेकर उसे वाजिब दाम दिलाने
तक हर सुविधा मुहैया है। भारत में जहां प्रति किसान कुल सब्सिडी सिर्फ 17
हजार रुपए सालाना है, वहीं अमेरिका जैसे विकसित देश में कुल सब्सिडी 20 अरब
डॉलर है यानी वहां प्रति खेत सब्सिडी औसतन 17 लाख रुपए बैठती
है।
अलबत्ता अमेरिकी किसान के खेत का औसत आकार बहुत ही बड़ा है फिर भी इसे
लेकर कोई विवाद नहीं है कि वहां की सरकारें अपने किसानों को खेती में लगाए रखने के
लिए हर संभव मदद देती हैं। इसीलिए अमेरिकी प्रति किसान सालाना आमदनी करीब 13
लाख रुपए है। भारत में किसान परिवार की सालाना औसत आय निकालने बैठेंगे तो दुनिया
की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था को शर्मिन्दा होना पड़ेगा।
लेकिन अमेरिकी उदारहरण हमारे कितने काम का?
अमेरिका में दो फीसद आबादी के खेती में लगने से पर्याप्त से ज्यादा कृषि उत्पादन हो कैसे पा रहा है? यह काम वहां उन्नत बीज, बहुत ही बढ़िया जल प्रबंधन, कृषि यांत्रिकी में नए आविष्कार और इन सारे कामों पर भारी सरकारी निवेश के बदौलत हो पाया। हम जहां पारंपरिक खेती ही कर पा रहे हैं आधी से ज्यादा खेती जहां वर्षा पर निर्भर है, जहां सब्सिडी के बाद भी किसान को बीज और खाद के दाम बहुत ज्यादा लगते हों, हर साल बुआई के पहले कर्ज की जरूरत पड़ती हो, फसल बेचकर वह कर्ज तक न चुका पाता हो, वहां अमेरिकी मॉडल की बात करना बेमानी है।