टिकट चोर: सरकार की मनमानी का असर

2018-08-01 0

काफी देर सोचने के बाद महेश ने फैसला किया उसे बिना टिकट खरीदे ही रेल में बैठ जाना चाहिए, बाद में जो कुछ होगा देखा जाएगा, क्योंकि रेल कुछ ही देर में प्लेटफॉर्म पर आने वाली है। महेश रेल में बिना टिकट के बैठना नहीं चाहता था। जब वह घर से चला था, तब उसकी जेब में 2 हजार के 2 कड़क नोट थे, जिन्हें वह कल ही बैंक से लाया था। घर से निकलते समय सौ-सौ के दो नोट जरूर जेब में रख लिए थे कि 2 हजार के नोट को कोई खुला नहीं करेगा, जैसे ही महेश घर से बाहर निकला कि सड़क पर उस का दोस्त दीनानाथ मिल गया, जो उससे बोला था, ‘कहां जा रहे हो महेश?’

महेश ने कहा था, ‘उदयपुर,’

दीनानाथ बोला था, ‘जरा दो सौ रुपए दे दे।’

‘क्यों भला?’ चौंकते हुए सवाल किया था।

‘अरे, कपड़े बदलते समय पैसे उसी में रह गए ...’ अपनी मजबूरी बताते हुए दीनानाथ बोला था, ‘अब घर जाऊंगा तो देर हो जाएगी। मिठाई और नमकीन खरीदना है। थोड़ी देर में मेहमान आ रहे हैं।’ 

‘मगर, मेरे पास तो 2 सौ रुपए ही हैं। मुझे भी खुले पैसे चाहिए और बाकी 2 हजार के नोट हैं।’ महेश ने भी मजबूरी बता दी थी। 

‘देख, रेलवे वाले खुले पैसे दे देंगे। ला, जल्दी कर,’ दीनानाथ ने ऐसे कहा जैसे वह अपना कर्ज मांग रहा है। महेश ने सोचा, ‘अगर इसे 2 सौ रुपए दे दिए, तो पैसे रहते हुए भी मेरी जेब खाली रहेगी। अगर टिकट बनाने वाले ने खुले पैसे मांग लिए, तो बड़ी मुसीबत हो जाएगी। कोई दुकानदार भी कम पैसे का सामान लेने पर नहीं तोड़ेगा।’

दीनानाथ दबाव बनाते हुए बोला था, ‘क्या सोच रहे हो? मत सोचो भाई मेरी मदद करो।’

‘मगर टिकट बाबू मेरी मदद नहीं करेगा।’ महेश ने कहा, पर न चाहते हुए भी उसका मन पिघल गया और जेब से निकालकर उसकी हथेली पर 2 सौ रुपए धर दिये। 

दीनानाथ तो धन्यवाद देकर चला गया। 

जब टिकट खिड़की पर महेश का नम्बर आया, तो उसने 2 हजार का नोट पकड़ाया। 

टिकट बाबू बोला, ‘खुले पैसे लाओ।’

महेश ने कहा कि खुले पैसे नहीं हैं, पर वह खुले पैसों के लिए अड़ा रहा। उसकी एक न सुनी। 

इसी बीच गाड़ी का समय हो चुका था। खुले पैसे न होने के चलते महेश को टिकट नहीं मिला, इसलिए वह प्लेटफार्म पर आ गया। 

प्लेटफार्म पर बैठकर महेश ने काफी विचार किया कि उदयपुर जाये या वापस घर लौट जाए। उसका मन बिना टिकट के रेल में जाने की इजाजत नहीं दे रहा था, फिर मानो कह रहा था कि चला जा, जो होगा देखा जाएगा। अगर टिकट चैकर नही आया, तो उदयपुर तक मुफ्त में चला जाएगा। 

इंदौर-उदयपुर एक्सप्रैस रेल आउटर पर आ चुकी थी। धीरे-धीरे प्लेटफार्म की ओर बढ़ रही थी। महेश ने मन में सोचा कि बिना टिकट नहीं चढ़ना चाहिए, मगर जाना भी जरूरी है। वहां वह एक नजदीकी रिश्तेदार की शादी में जा रहा है, अगर वह नहीं जाएगा, तो सम्बंधों में दरार आ जाएगी। 

जैसे ही इंजन ने सीटी बजाई, महेश यह सोचकर फौरन रेल में चढ़ गया कि जब ओखली में सिर दे ही दिया, तो मूसल से क्या डरना?

रेल अब चल पड़ी। महेश उचित जगह देखकर बैठ गया। 6 घंटे का सफर बिना टिकट के काटना था। एक डर उसके भीतर समाया हुआ था। ऐसे हालात में टिकट चैकर जरूर आता है। 

भारतीय रेल में यों तो न जाने कितने मुसाफिर बेटिकट सफर करते हैं। आज वह भी उनमें शामिल है। रास्ते में अगर वह पकड़ा गया, तो उसकी कितनी किरकिरी होगी। 

जो मुसाफिर महेश के आसपास बैठे हुए थे, वे सब उदयपुर जा रहे थे। उनकी बातें धर्म और राजनीति से निकलकर नोटबंदी पर चल रही थीं। नोटबंदी को लेकर सबके अपने-अपने मत थे। इस पर कोई विरोधी था तो कोई पक्ष में भी था। मगर उनमें विरोध करने वाले ज्यादा थे। 

सब अपने-अपने तर्क दे रहे थे। अपने को हीरो साबित करने पर तुले हुए थे। मगर इन बातों में उसका मन नहीं लग रहा था। एक-एक पल उसके लिए घंटे भर का लग रहा था। उसके पास टिकट नहीं है, इस डर से उसका सफर मुश्किल लग रहा था। नोटबंदी के मुद्दे पर सभी मुसाफिर इस बात से सहमत थे कि नोटबंदी के चलते बचत खातों में हफ्ते भर के लिए 24 हजार रुपए निकालने की छूट दे रखी है, मगर यह समस्या उन लोगों की है, जिन्हें पैसों की जरूरत है। महेश की तो अपनी ही अलग समस्या थी। गाड़ी में वह बैठ तो गया, मगर टिकट चैकर का भूत उसकी आंखों के सामने घूम रहा था। अगर उसे इन लोगों के सामने पकड़ लिया, तो वह नंगा हो जाएगा। उसका समय काटे नहीं कट रहा था। फिर उन लोगों की बात रेलवे के ऊपर हो गई। एक आदमी बोला, ‘‘आजादी के बाद रेलवे ने बहुत तरक्की की है। रेलों का जाल बिछा दिया है।’’

दूसरा आदमी समर्थन करते हुए बोला, ‘‘हां, रेल व्यवस्था अब आधुनिक तकनीक पर हो गई है। इक्का-दुक्का हादसा छोड़कर सारी रेल व्यवस्था चाक-चौबंद है।’’

‘‘हां यह बात तो है, काम भी खूब हो रहा है।’’

‘‘इसके बावजूद किराया सस्ता है।’’

‘‘हां बसों के मुकाबले आधे से भी कम है।’’

‘‘फिर भी रेलों में लोग मुफ्त में चलते हैं।’’

‘‘मुफ्त चलकर ऐसे लोग रेलवे का नुकसान कर रहे हैं। 

‘‘नुकसान तो कर रहे हैं। ऐसे लोग समझते हैं कि क्यों टिकट खरीदें, जैसे रेल उनके बाप की है।’’

‘‘हां, सो तो है, जब टिकट चैकर पकड़ लेता है, तो ले-देकर मामला रफा-दफा कर लेते हैं।’’

‘‘टिकट चैकर की यही ऊपरी आमदनी का जरिया है।’’

‘‘इस रेल में भी बिना टिकट के लोग जरूर बैठे हुए मिलेंगे।’’

‘हां मिलेंगे’ कई लोगों ने इस बात का समर्थन किया।

महेश को लगा कि ये सारी बातें उसे ही इशारा करके कही जा रही हैं। वह बिना टिकट लिए जरूर बैठ गया, मगर भीतर से उसका चोर मन चिल्लाकर कह रहा है कि बिना टिकट लिए रेल में बैठकर उसने रेलवे की चोरी है। सरकार का नुकसान किया है।रेल अब भी अपनी रफ्तार से दौड़ रही थी। मगर रेल की रफ्तार से तेज महेश के विचार दौड़ रहे थे। उसे लग रहा था कि उदयपुर तक कोई टिकट चैकर न आए। अभी रेल चित्तौड़गढ़ स्टेशन से चली थी। वही हो गया, जिसका डर था। टिकट चैकर आ रहा था। महेश के दिल की धड़कनें बढ़ गईं। अब वह इन लोगों के सामने नंगा हो जाएगा। सब मिलकर उसकी खिल्ली उड़ाएंगे। मगर उसके पास तो पैसे थे। टिकट बाबू ने खुले पैसे न होने के चलते टिकट नहीं दिया था। इसमें उसका क्या कुसूर? मगर उसकी बात पर कौन यकीन करेगा? सारा कुसूर उस पर मढ़कर उसे टिकट चोर साबित कर देंगे और इस डिब्बे में बैठे हुए लोग उसका मजाक उड़ाएंगे। 

टिकट चैकर ने पास आकर टिकट मांगी, उसका हाथ जेब में गया, उसने 2 हजार का नोट आगे बढ़ा दिया। टिकट चैकर न गुस्से से बोला, ‘मैंने टिकट मांगा है, पैसे नहीं...’’

‘‘मुझे 2 हजार के नोट के चलते टिकट नहीं मिला। कहा कि खुले पैसे दीजिए। आप अपना जुर्माना वसूल करके उदयपुर का टिकट काट दीजिए,’’ कहकर महेश ने अपना गुनाह कबूल कर लिया।

मगर टिकट चैकर कहां मानने वाला था। वह उसी गुस्से मेें बोला ‘‘सब टिकट चोर पकड़े जाने के बाद यही बोलते हैं... निकालो साढ़े पांच सौ रुपए खुले।’’

‘‘खुले पैसे होते तो मैं टिकट लेकर नहीं बैठता,’’ एक बार फिर महेश आग्रह करके बोला, ‘‘टिकट के लिए मैं उस बाबू के सामने गिड़गिड़ाया, मगर उसे खुले पैसे चाहिए थे। मेरा उदयपुर जाना जरूरी था, इसलिए बिना टिकट लिए बैठ गया। आप मेरी मजबूरी क्यों नहीं समझते हैं।’’

आप मेरी मजबूरी को भी क्यों नहीं समझते हैं? टिकट चैकर बोला, ‘‘हर कोई 2 हजार का नोट पकड़ाता रहा तो मैं कहां से लाऊंगा खुले पैसे। अगर आप नहीं दे सकते हो, तो अगले स्टेशन पर उतर जाना,’’ कहकर टिकट आगे बढ़ने लगा, तभी पास बैठे एक मुसाफिर ने कहा, ‘‘रुकिए’’ 

उस मुसाफिर ने महेश से 2 हजार का नोट लेकर सौ-सौ के 20 नोट गिनकर दे दिए।

उस टिकट चैकर ने जुर्माना सहित टिकट काटकर दे दिया। 

टिकट चैकर तो आगे बढ़ गया, मगर उन लोगों को नोटबंदी पर चर्चा का मुद्दा मिल गया। 

अब महेश के भीतर का डर खत्म हो चुका था। उसके पास टिकट था। उसे अब कोई टिकट चोर नहीं कहेगा। उसने मुसाफिर को धन्यवाद दिया कि उसने खुले पैसे देकर उसकी मदद की। रेल अब भी अपनी रफ्तार से दौड़ रही थी।

वह सरकार की मनमानी की वजह से टिकट चोर बन जाता। गनीमत है कि कुछ लोग सरकार और प्रधानमंत्री से ज्यादा समझदार थे और इस बेमतलब की आंधी में अपनी मुसीबतों की फिक्र किए बिना ही दूसरों की मदद करने वाले थे।

--  रमेश मनोहरा


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