कहानी - कीमत संस्कारों की

रीसन ने जैसे ही टेलीफ़ोन पर अपनी लंबी बात समाप्त की उसे अचानक कुछ याद आया और वह तेजी से अपने पिता दीनप्रभु के कमरे की ओर भागा-
‘‘सॉरी डैड, मुझे पता है कि आप ने मुझे एक घंटा पहले बुलाया था, पर
उस समय मुझे अपनी महिला मित्र को फोन करना था। चूंकि उस के पास यही समय ऐसा होता
है कि मैं उस से बात कर सकता हूं इसलिए मैं आप के बुलावे को टाल गया था। अब बताइए
कि आप किस काम के लिए मुझे बुला रहे थे।’’
‘‘कोई खास नहीं,’’
दीनप्रभु
ने कहा, ‘‘दवा लेने के लिए मुझे पानी चाहिए था। तुम आए नहीं तो मैं ने दवा की
गोली बगैर पानी के ही निगल ली।’’
‘‘डैड, आप ने यह बड़ा ही अच्छा काम किया। वैसे भी इनसान को दूसरों पर निर्भर
नहीं रहना चाहिए। मैं कल से पानी का पूरा जार ही आप के पास रख दिया करूंगा।’’
हैरीसन के जाने के बाद दीनप्रभु सोचने लगे कि इन्सान के जीवन की वास्तविक
परिभाषा क्या है? और वह किस के लिए बनाया गया है। क्या वह बनाने वाले के हाथ का एक ऐसा खिलौना है जिस को बनाबना कर वह बिगाड़ता और तोड़ता रहता है और अपना मनोरंजन करता है।
इनसान केवल अपने लिए जीता है तो उस को ऐसा कौन सा सुख मिल जाता है,
जिस
की व्याख्या नहीं की जा सकती और यदि दूसरों के लिए जीता है तो उस के इस समर्पित
जीवन की अवहेलना क्यों कर दी जाती है। यह कितना कठोर सच है
कि इनसान अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए कठिन से कठिन परिश्रम करता
है। वह दूसरों को रास्ता दिखाता है मगर जब वह खुद ही अंधकार का शिकार होने लगता है
तो उसे एहसास होता है कि प्रवचनों में सुनी बातें सरासर झूठ हैं।
हैरीसन घर से जा चुका था। कमरे में एक भरपूर सन्नाटा पसरा पड़ा था।
दीनप्रभु के लिए यह स्थिति अब कोई नई बात नहीं थी। ऐसा वह पिछले कई सालों से अपने
परिवार में देखते आ रहे थे मगर दुःख केवल इसी बात का कि जो कुछ देखने की कल्पना कर
के वह विदेश में आ बसे थे उस के स्थान पर वह कुछ और ही देखने को मजबूर हो गए। भरे
पूरे परिवार में पत्नी और बच्चों के रहते हुए भी वह अकेला जीवन जी रहे थे।
अपने मातापिता, बहन-भाइयों के लिए उन्होंने क्या कुछ
नहीं किया। सब को रास्ता दिखा कर उन के घरों को आबाद किया और जब आज उन की खुद की
बारी आई तो उन की डगमगाती जीवन नैया की पतवार को संभालने वाला कोई नजर नहीं आता
था। सोचतेसोचते दीनप्रभु को अपने अतीत के दिन याद आने लगे।
भारत में वह दिल्ली के सदर बाजार के निवासी थे। पिताजी स्कृल में
प्रधानाचार्य थे। वह अपने 7 भाईबहनों में सब से बड़े थे। परिवार की
आर्थिक स्थिति संभालने का जरिया नौकरी के अलावा सदर बाजार की वह दुकान थी जिस पर
लोहा, सीमेंट आदि सामान बेचा जाता था। इस दुकान को उन के पिता, वह
और उन के दूसरे भाई बारी-बारी से बैठ कर चलाया करते थे।
संयुत्तफ़ परिवार था तो सब-कुछ सामान्य और ठीक चल रहा था मगर जब
भाइयों की पत्नियां घर में आईं और बंटवारा हुआ तो सबसे पहले दुकान के हिस्से हुए,
फिर
घर बांटा गया और फिर बाद में सब अपने-अपने किनारे होने लगे।
इस बंटवारे का प्रभाव ऐसा पड़ा कि बंटी हुई दुकान में भी घाटा होने
लगा। एक-एक कर दुकानें बंद हो गईं। परिवार में टूटन और बिखराव के साथ अभावों के
दिन दिखाई देने लगे तो दीनप्रभु के मातापिता ने भी अपनी आंखें सदा के लिए बंद कर
लीं। अभी उन के मातापिता के मरने का दुख समाप्त भी नहीं हुआ था कि एक दिन उन की
पत्नी अचानक दिल के दौरे से निःसंतान ही चल बसीं। दीनप्रभु अकेले रह गए। किसी
प्रकार स्वयं को समझाया और जीवन के संघर्षों के लिए खुद को तैयार किया।
अमेरिका में रहते हुए ही दीनप्रभु ने यह सोच लिया कि अगर वह कुछ दिन
और इस देश में रह गए तो इतना धन कमा लेंगे जिस से बहनों की न केवल शादी कर सकेंगे
बल्कि अपने परिवार की गरीबी भी दूर करने में सफल हो जाएंगे।
अमेरिका में बसने का केवल एक ही सरल उपाय था कि वह यहीं की किसी
स्त्री से विवाह करें और फिर यह शार्टकट रास्ता उन्हें सब से आसान और बेहतर लगा।
अपनी सोच को अंजाम देने के लिए दीनप्रभु अमेरिकन लड़कियों के वैवाहिक विज्ञापन
देखने लगे। इत्तेफाक से उन की बात एक लड़की
के साथ बन गई। वह थी तो तलाकशुदा पर उम्र
में दीनप्रभु के बराबर ही थी। इस शादी का एक कारण यह भी था कि लड़की के परिवार
वालों की इच्छा थी कि वह अपनी बेटी का विवाह किसी भारतीय युवक से करना चाहते थे,
क्योंकि
उन की धारणा थी कि पारिवारिक जीवन के लिए भारतीय संस्कृति और संस्कारों में पला
हुआ युवक अधिक विश्वासी और अपनी पत्नी के प्रति ईमानदार होता है।
एक दिन दीनप्रभु का विवाह हो गया और तब उन की दूसरी पत्नी लौली उनके
जीवन में आ गई। विवाह के बाद शुरू के दिन तो दोनों को एक-दूसरे को समझने में ही
गुजर गए। यद्यपि लौली उन की पत्नी थी मगर हरेक बात में सदा ही उन से आगे रहा करती,
क्योेंकि
वह अमेरिकी जीवन की अभ्यस्त हो चुकी थी। दीनप्रभु वहां कुछ सालों से रह जरूर रहे
थे पर वहां के माहौल से वह इतने अनुभवी नहीं थे कि अपने-आप को वहां की जीवनशैली का
अभ्यस्त बना लेते। उन की दशा यह थी कि जब भी कोई फोन आता था तो केवल अंग्रेजी की
समस्या के चलते वे उसे उठाते हुए भी डरते थे। शायद उन की पत्नी लौली इस कमजोरी को
समझती थी, इसी कारण वह हर बात में उन से आगे रहा करती थी।
दीनप्रभु शुरू से ही सदाचारी थे। इसलिए अपनी विदेशी पत्नी के साथ
निभा भी गए लेकिन विवाह के बाद उन्हें यह जान कर दुख हुआ था कि उन की पत्नी के
परिवार के लोग अपने को सनातन धर्म का अनुयायी बताते थे पर उन का सारा चलन ईसाइयत
की पृष्ठभूमि लिए हुए था। अपने सभी काम वे लोग अमेरिकियों की तरह ही करते थे। उनके
लिए दीवाली, होली, क्रिसमस और ईस्टर में कोई भी फर्क नहीं दिखाई देता था। लौली के
परिवार वाले तो इस कदर विदेशी रहन-सहन में रच गए थे कि यदि कभी-कभार कोई एक भी
शनिवार बगैर पार्टी के निकल जाता था तो उन्हें ऐसा लगता था कि जैसे जीवन का कोई
बहुत ही विशेष काम वह करने से भूल गए हैं।
दीनप्रभु अभावों के जीवन के भुत्तफ़भोगी थे इसलिए वह हाथ लगे इस अवसर
को खोना नहीं चाहते थे और सब-कुछ जानते और देखते हुए भी वह अपने परिवार के साथ
तालमेल बनाए रहे। अमेरिका में आ कर उन्होेंने आगे और पढ़ाई की। फिर बाकायदा विदेश
में पढ़ाने का लाइसेंस लिया और फिर वह बच्चों के स्कूल में अध्यापक नियुक्ति हो
गए।
परिश्रम से दीनप्रभु ने कभी मुंह नहीं मोड़ा। अपनी नौकरी से उन्होंने
थोड़ा बहुत पैसा जमा किया और फिर एक दिन उस पैसे से एक छोटा सा ‘फ्रैंचाइज’ रेस्टोरेंट खोल लिया। फिर उन की मेहनत और लगन रंग लाई। रेस्टोरेंट चल निकला और वह थोड़े समय
में ही सुखसंपदा से भर गए। पैसा आया तो दीनप्रभु ने दूसरे धंधे भी खोल लिए और फिर
एक दिन उन्होंने प्रयास कर के अमेरिकी नागरिकता भी ले ली। फिर तो उन्होंने एकएक कर
अपने भाईबहनों के परिवार को भी अमेरिका बुला लिया। अपने परिवार के लोगों को
अमेरिका बुलाने से पहले दीनप्रभु ने सोचा था कि जब कभी विदेश में रहते हुए उन्हें
अकेलापन महसूस होगा तो वे 2-1 दिन के लिए अपने भाइयों के घर चले
जाया करेंगे।
अब तक दीनप्रभु 3 रेस्टोरेंट और 2 गैस स्टेशन के
मालिक बन चुके थे। रेस्टोरेंट को वह और उन की पत्नी संभालते थे और दोनों गैस
स्टेशनों का भार उन्होंने अपने दोनों बच्चों पर डाल रखा था। खानपान में उन के यहां
पहले ही कोई रीति-रिवाज नहीं था और न ही अब है लेकिन फिर भी दीनप्रभु किसी न किसी
तरह अपने भारतीय संस्कारों को बचाए रखने की कोशिश कर रहे थे। जबकि उन की पत्नी बड़े
मजे से हर तरह का अमेरिकी शाकाहारी व मांसाहारी भोजन खाती थी। पार्टियों में वह
धड़ल्ले से शराब पीती और दूसरे युवकों के साथ डांस भी कर लेती थी।
दीनप्रभु जब भी ऐसा देखते तो यही सोच कर तसल्ली कर लेते कि इनसान को
दोनोें हाथों में लड्डू कभी भी नहीं मिला करते हैं। यदि उन को विदेशी जीवन की अभ्यस्त
पत्नी मिली है तो उस के साथ उन्हें वह सुख और सम्पन्नता भी प्राप्त हुई है कि जिस
के बारे में वह प्रायः ही सोचा करते थे।
विवाह के 25 साल
पलक झपकते गुजर गए। इस बीच संतान के नाम पर उन के यहां एक लड़का और एक लड़की
भी आ चुके थे। उन्हें याद है कि जब लौली ने पहली संतान को जन्म दिया था तो
उन्होंने कितने उल्लास के साथ उस का नाम हरिशंकर रखा था मगर लौली ने बाद में उस का
नाम हरिशंकर से हैरीसन करवा दिया। ऐसा ही दूसरी संतान लड़की के साथ भी हुआ।
उन्होंने लड़की का भारतीय नाम पल्लवी रखा था मगर लौली ने पल्लवी को पौलीन बना दिया।
लौली का कहना था कि अमेरिकन को हिंदी नाम लेने में कठिनाई आती है। उस समय लौली ने
यह भी बताया था कि उस ने भी अपना लीला नाम बदल कर लौली किया था।
लौली की सोच है कि जब जीवन विदेशी संस्कृति में रह कर ही गुजारना है
तो वह कहां तक अपने देश की सामाजिक मान्यताओं को बचा कर रख सकती है और दीनप्रभु
अपनी पत्नी की इस सोच से सहमत नहीं थे। उन का मानना था कि ठीक है विदेश में रहते
हुए खानपान और रहनसहन के हिसाब से हर प्रवासी को समझौता करना पड़ता है लेकिन इन
दोनों बातों में अपने देश की उस संस्कृति और संस्कारों की बलि नहीं चढ़ती है कि जिस
में एक छोटा भाई अपनी बड़ी बहन को ‘दीदी’, बड़े भाई को ‘भैया’ और अपने से बड़ों को
‘आप’ कह कर बुलाता है। यहां विदेश में ऐसा कोई भी रिवाज या सम्मान नाम की वस्तु
नहीं है। यहां चाहे कोई दूसरों से छोटा हो या बड़ा, हर कोई एकदूसरे
का नाम ले कर ही बात करता है और जब ऐसा है तो फिर एकदूसरे के सम्मान की तो बात ही
नहीं रह सकती है।
एक दिन पौलीन अपने किसी अमेरिकन मित्र को ले कर घर आई और अपने कमरे
को बंद कर के उस के साथ घंटों बैठी बातें करती रही तो भारतीय संस्कारों में भीगे
दीनप्रभु का मन भीग गया। वह यह सब अपनी आंखों से नहीं देख सके। बेचैनी बढ़ी तो
उन्होंने पौलीन से आखिर पूछ ही लिया।
‘कौन है यह लड़का?’
‘डैड, यह मेरा बौय फ्रेंड है,’ पौलीन ने बिना किसी झिझक के उत्तर
दिया।
दीनप्रभु जैसे सकते में आ गए। वह कुछ पलों तक गंभीर बने रहे फिर बोले,
‘तुम
इस से शादी करोगी?’
उन की इस बात पर पौलीन अपने माथे पर ढेर सारे बल डालती हुई बोली,
‘आई
एम नाट श्योर।’ (मैं ठीक से नहीं कह सकती।)
पल्लवी ने कहा तो दीनप्रभु और भी अधिक आश्चर्य में पड़ गए। उन्हें यह
सोचते देर नहीं लगी कि उन की लड़की का इस लड़के से यह कैसा रिश्ता है जिसे मित्रता
भी नहीं कह सकते हैं और विवाह से पहले होने वाले 2 प्रेमियों के
प्रेम की संज्ञा भी उसे नहीं दी जा सकती है। पौलीन अकसर इस लड़के के साथ घूमतीफिरती
है। जहां चाहती है, बेधड़क उस के साथ चली जाती है। कई बार रात में भी घर नहीं आती है,
उस
के बावजूद वह यह नहीं जानती कि इस लड़के से विवाह भी करेगी या नहीं।
काफी देर तक गंभीर बने रहने के बाद दीनप्रभु ने पौलीन से कहा,
‘क्या
तुम बता सकती हो कि बौय फ्रेंड और पति में क्या अंतर होता है?’
‘कोई विशेष नहीं डैड। दोनों ही एक जैसे होते हैं। अंतर है तो केवल
इतना कि ब्वॉय फ्रेंड की कोई जिम्मेदारी नहीं होती है जबकि पति की बाकायदा अपनी
पत्नी और बच्चों के प्रति एक ऐसा उत्तरदायित्व होता है जिसे उसे पूरा करना ही होता
है।’
अतीत की यादें दिमाग में तभी साकार रूप लेती हैं जब कुछ मिलती-जुलती
घटनाएं सामने घटित हों। विवाह के बारे में बेटी का नजरिया जान कर उन्हें अपनी
बहनों की शादी की याद आ गई। दीनप्रभु ने अपनी मर्जी से कभी अपनी दोनों छोटी बहनों
के लिए वर चुने थे और दोनों में से किसी ने भी चूं तक न की थी। मगर आज घर में उन की
स्थिति यह है कि अपनी ही बेटी के जीवन-साथी के चुनाव के बारे में जबान तक नहीं खोल
सकते हैं।
दीनप्रभु को शिद्दत के साथ एहसास हुआ कि नए समाज का जो यह नया धरातल
है उस पर उस के जैसा सदाचारी, सरल स्वभाव का इन्सान एक पल को भी खड़ा
नहीं हो सकता है। जिंदगी के सुव्यवस्थित आयाम यदि बाहरी दबाव के कारण बदलने लगें
तो इन्सान एक बार को सहन कर लेता है लेकिन जब अपने ही लोग खुद के बनाए हुए रहन-सहन
के दायरों को तोड़ने लगें तो जीवन में एक झटका तो लगता ही है साथ ही इन्सान अपनी
विवशता के लिए हाथ भी मलने को मजबूर हो जाता है।
दीनप्रभु जानते थे कि अपने द्वारा बनाए उस माहौल में रहने को वह
मजबूर हैं जिस की एक भी बात उन को रास नहीं आती। वह यह भी समझते थे कि यदि
उन्होंने कोई भी कड़ा कदम उठाने की चेष्टा की तो जो घर बनाया है उसे बरबादियों का
ढांचा बनते देर भी नहीं लगेगी। जिस देश और समाज में वह रह रहे हैं उस की मान्यताओं
को स्वीकार तो उन्हें करना ही पड़ेगा। जिस देश का चलन यह कहे कि ‘ये मेरा अपना जीवन
है, आप कुछ भी नहीं कह सकते हैं’ और ‘अब मैं 21 वर्ष का बालिग
हो चुका हूं,’ वहां पर बच्चों को जन्म देने वाले माता-पिता का नाम केवल इस कारण
चलता है क्योंकि बच्चे को जन्म देने वाले कोई न कोई माता-पिता ही तो होते हैं।
दिन-रात की चिंता तथा काम की अधिकता के चलते एक दिन दीनप्रभु अचानक
ही अपने रेस्टोरेंट में काम करते हुए गिर पड़े। अस्पताल पहुंचे और जांच हुई तो पता
चला कि वह उच्च रत्तफ़चाप और मधुमेह के रोगी हो चुके हैं। हैरीसन और पौलीन उन्हें
देखने तो पहुंचे मगर बजाय इस के कि दोनों उन का मनोबल बढ़ाते, वे खुद उन्हीं को दोषी ठहराने लगे। इतना सारा काम फैला रखा है, कौन इस को
संभालेगा? अपनी औलाद के मुंह से ऐसी बातें सुन कर उन का मन पहले से और भी दुखी हो गया। इस के अलावा उन के वे भाई जिनके बारे में उन्होंने सोचा था कि साथ रहेंगे
तो मुसीबत में काम आएंगे, जब उन्होंने सुना तो कोई भी तत्काल
देखने नहीं आया। हां, सबने केवल एक बार फोन करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली थी।
अस्पताल में 2 दिन तक रहने के बाद जब वह घर आए तो
डाक्टरों ने उन्हें पूरी तरह से आराम करने की हिदायत दी थी और समय पर दवा लेने तथा
हर रोज अपना ब्लड प्रेशर व ब्लड ग्लूकोज को जांचते रहने को कहा था। लेकिन घर पर
अकेले पडे़-पड़े तो वह अपने को और भी बीमार महसूस कर रहे थे। पत्नी हर दिन उन के
पलंग के पास पानी का जग भर कर रख जाती थी पर किसी दिन छुट्टी करके पति के
साथ बैठने का खयाल उसके मन में नहीं आया।
काम करते समय अचानक गिर जाने के कारण उन की कोई हड्डी तो नहीं टूटी थी मगर उठने और बैठने में कमर में उन्हें बेहद तकलीफ होती थी। तकलीफ
इतनी ज्यादा थी कि किसी के सहारे से ही वह उठ और बैठ सकते थे। आज जब उन्होंने देखा कि उनका अपना बेटा हैरीसन घर में है तो यह सोचकर आवाज दे दी थी कि उससे पानी ले कर
दवा भी खा लेंगे और बाकी का पानी भरकर वह उन के पास भी रख देगा। लेकिन आकर उसने जो
कुछ कहा उसे सुन कर उनके दिल को भारी धक्का लगा था, साथ ही उन्हें
यह समझते देर नहीं लगी कि उन की अहमियत, आजाद खयाल में पलने वाले उन के बच्चों
की व्यत्तिफ़गत इच्छाओं के सामने बहुत हल्की है जिन्हें पूरा सुख देने के लिए
उन्होंने अपनी हîóी-पसली एक कर दी थी।
सोचते हुए दीनप्रभु को काफी देर हो गई थी। अतीत के विचारोें से हट कर
एक बार पूरे घर का जायजा लिया। अपना ही घर देख कर आज उन्हें लगा कि विक्टोरियन
हाउस उन की दशा को देख कर भांय-भांय कर रहा है। घर में सुख और संपदा की हर वस्तु
मौजूद थी मगर यह कैसी मजबूरी उन के सामने थी कि दूसरों के हित के लिए अपना जीवन
दांव पर लगाने वाले दीनप्रभु को आज एक गिलास पानी देने वाला कोई नहीं था।
काफी सोच-विचार के बाद दीनप्रभु ने फैसला लिया कि अब समय आ गया है कि
वह सब से खुल कर बात करें यदि बच्चों की मनोधारणा उन के हित में निकली तो ठीक है
अन्यथा वह अपना सामान समेट कर भारत वापस चले जाएंगे और कहीं एकांत में शांति से
रहते हुए समाजसेवा कर अपना बाकी का जीवन गुजार देंगे।
शाम हुई। सब लोग घर मेें आ गए। रोज की तरह सब लोग एक साथ खाने की मेज
पर बैठे तो सब के साथ खाना खाते हुए दीनप्रभु ने अपनी बात शुरू की और बोले,
‘‘बच्चाें,
मैं
बहुत दिनों से तुम लोगों से कुछ कहना चाह रहा था पर परिस्थितियां अनुकूल नहीं
दिखती थीं। आज मुझे लगा कि मैं अपनी बात कह ही दूं।’’
‘‘मैं जब अमेरिका आया था तो अपने साथ बहुत सी जिम्मेदारियां ले कर आया
था, जिन्हें पूरा करना मेरा कर्तव्य था और मैं ने वह सब कर भी लिया। यहां
रहते हुए मैंने तुम को सभी तरह की सुविधा और सुखी जीवन देने की पूरी कोशिश की।
अमेरिका के सबसे अच्छे कालेजों में तुम्हें शिक्षा दिलवाई। तुम लोगों के लिए
रेस्टोरेंट और गैस स्टेशन खोल रखे हैं। अब यह तुम्हारी मर्जी है कि तुम इनको संभाल
कर रखो या फिर नष्ट कर दो।
‘‘मुझे तुमसे क्या चाहिए, केवल एक जोड़ा कुर्ता-पाजामा और दो समय
की दाल-रोटी। तुम पर अपना बोझ डालना नहीं चाहता हूं, फिर भी तुम मेरी
अपनी संतान हो इसलिए तुम से मैं पूछना चाहता हूं कि मैंने तुम्हारे लिए इतना
सब-कुछ किया है बदले में तुम मेरे व्यग्तिगत जीवन के लिए क्या करना चाहते हो?’’
दीनप्रभु की बातें सुनकर उनका बेटा हैरीसन गंभीर होकर बोला,
‘‘डैड,
मैं
आपके लिए अमेरिका का सबसे आलीशान और महंगा नर्सिंग होम तलाश करूंगा।’’‘‘और मैं आप
से कम से कम 15 दिन में एक बार मिलने जरूर ही आया करूंगी,’’ पौलीन ने बड़े
गर्व से कहा।
अपने बच्चों की बातों को सुनकर दीनप्रभु कुछ भी नहीं बोल सके क्योंकि वह जीवन के इस तथ्य को अच्छी तरह समझ चुके थे कि विदेश में आ कर अपनी सुख-सुविधा के लिए वह जो कुछ चाहते थे वह तो उन्हें मिल चुका था लेकिन इसे पाने के लिए उन्हें अपने उन भारतीय संस्कारों की कुरबानी भी देनी पड़ी, जिस के तहत एक भाई अपनी बहन के लिए, मां अपने बच्चों और परिवार के लिए, बेटा अपने पिता के लिए और पत्नी अपने पति के लिए जीती है। उनके द्वारा बसाई हुई सुख की नगरी में आज खुद उन का वजन कितना हलका हो चुका है, सोच कर वे उफ् भी नहीं कर सके।