सामूहिक आत्महत्याओं से कैसे निपटे समाज

इन घटनाओं के पीछे जो भी कारक गिनाए जाएं, लेकिन बुनियादी वजहें भावनात्मक टूटन, तनाव, रिश्तों से रीत रहा भरोसा और सामाजिक-पारिवारिक असहयोग ही हैं।
- मोनिका शर्मा
हाल ही में राजस्थान के बाड़मेर जिले में एक महिला ने अपनी पांच
बच्चियों को पानी की टंकी में धकेला और साथ में खुद भी कूदकर अपनी जान दे दी।
राजधानी दिल्ली में भी एक शिक्षक ने अपने तीन बच्चों और पत्नी की हत्या कर दी।
अपने ही मासूम बच्चों को बेदर्दी से मौत के घाट उतारने वाले इस शख्स ने पूछताछ में
बिना किसी अफसोस के कहा कि ‘वे सब मर गए। अब मैं भी मर जाऊंगा।’ बेंगलुरु में
कैमरे के सामने पूरे परिवार की खुदकशी की कोशिश का मामला सामने आया है जिसमें बेटे
और पत्नी की मौत हो गयी। कुछ समय पहले राजस्थान के ही नागौर जिले में एक
पुलिसकर्मी ने पत्नी, बेटे और बेटी सहित अपनी जान दे दी। इस परिवार ने परिचितों को
ह्नाट्सएप पर अपना स्यूसाइड नोट भी भेजा था।
साथ जीने और हालात से जूझने की हिम्मत न जुटाकर दुनिया से विदा हो
जाने की राह चुनने वाले ऐसे परिवारों की संख्या बढ़ रही है। महानगरों से लेकर
गांवों-कस्बों तक ऐसी घटनाएं हो रही हैं। कुछ घटनाएं तो काफी हैरान करने वाली भी
हैं। कुछ समय पहले झारखंड में हजारीबाग में एक ही परिवार के करीब 6
लोगों ने आत्महत्या कर ली थी। उन्होंने स्यूसाइड नोट में गणित के फॉर्म्यूले से
खुदकशी को यों समझाया-‘बीमारी+ दुकान बंद + दुकानदारों का
बकाया न देना + बदनामी + कर्ज = तनाव + मौत।’ इस फार्म्यूले में अनगिनत सवाल
छुपे हैं, जो हमारी सामाजिक-पारिवारिक व्यवस्था के सामने कभी न सुलझने वाले
प्रश्नों की तरह हैं।
इन घटनाओं के पीछे जो भी कारक गिनाए जाएं, लेकिन बुनियादी वजहें भावनात्मक टूटन, तनाव, रिश्तों से रीत रहा भरोसा और सामाजिक-पारिवारिक असहयोग ही हैं, जो चुपके-चुपके हमारे परिवेश का हिस्सा बन गये हैं। तभी तो नाउम्मीदी के हालात में अपनों के साथ होने के बावजूद हालात से जूझने की राह नहीं निकाली जाती बल्कि मौत को चुन लिया जाता है। मानसिक तनाव, सामाजिक दबाव या धार्मिक भटकाव की ये ऐसी परिस्थितियां बन रही हैं कि बर्बरता से अपनों की जान ले लेना और जिन्दगी का साथ छोड़ना ही उन्हें सही लगने लगता है। गौरतलब यह भी है कि शिक्षित और अशिक्षित दोनों ही तरह की पृष्ठभूमि वाले परिवारों में ऐसी घटनाएं हो रही हैं। हमारे देश मे ंपरिवार को एक सुरक्षा कवच की तरह माना जाता है, जिसमें हर पीढ़ी के लोग सुरक्षा और संरक्षण पाते हैं। परिवार भले ही समाज की सबसे छोटी इकाई है, पर इसी की बुनियाद पर पूरी सामाजिक व्यवस्था की इमारत खड़ी होती है। नई पीढ़ी को संस्कार देने की बात हो या एक-दूजे के सुख-दुःख में साथ देने का मामला-परिवार की अहम भूमिका है। ऐसे में यह बड़ा सवाल है कि समाज की यह महत्वपूर्ण कड़ी इतनी कमजोर कैसे हो रही है कि भरे-पूरे परिवारों की सामूहिक आत्महत्या के मामले सामने आ रहे हैं, घर के बड़े-बुजुर्ग छोटे-छोटे बच्चों को अपने हाथों से मौत दे रहे हैं। जिस देश में छात्रें, किसानों और महिलाओं की आत्महत्या के आंकड़े पहले से ही चिन्ताजनक स्तर पर हों, वहां भरे-पूरे परिवारों का याें जीवन से हारना समस्या के जटिलतर पहलुओं की ओर इशारा करता है। अपनों को मारकर मर जाने की यह बढ़ती प्रवृत्ति कहीं न कहीं हमारी सामाजिक-पारिवारिक व्यवस्था की भी विफलता है, क्योंकि ऐसी कोई भी घटना सिर्फ व्यक्तिगत त्रसदी नहीं हो सकती। पूरा परिवेश ऐसे अप्रत्याशित हालात की वजह बनता है। व्यक्तिगत हालात की वजह बनता है। व्यक्ति हो या सामूहिक, अधिकतर मामलों में सामाजिक दबाव और तिरस्कार का भय ही आत्महत्या का कारण बनता है। इन घटनाओं से जुड़े सवाल हमारी पारिवारिक-सामाजिक स्थितियों में आ रहे बदलावों को रेखांकित करते हैं। हमारे सामाजिक पारिवारिक व्यवस्था को समग्र रूप से उन कारणों से जूझना होगा जो पूरे परिवार को जिन्दगी से हारने की ओर धकेलते हैं। समाज को समग्र रूप से यह कोशिश करनी होगी कि कोई भी परिवार ऐसी विकल्पहीनता की स्थिति में न आए कि मौत के बरक्स जिन्दगी का चयन न कर सके।