कृषि में आवश्यक सुधाार की जरूरत

कृषि की दिशा और दशा में परिवर्तन लाने के लिए गठित मुख्यमंत्रियों
की समिति की पहली बैठक में केंद्रीय कोष के आवंटन को राज्यों के कृषि क्षेत्र
सुधार के साथ जोड़ने का जो प्रस्ताव रखा गया है, उसके कई पहलू
हैं जिन पर सावधानीपूर्वक विचार के बाद ही अंतिम निर्णय लिया जाना चाहिए। यह सही
है केंद्र द्वारा शुरू किए गए कुछ अच्छे और सुविचारित कृषि क्षेत्र सुधार, इसलिए
आगे नहीं बढ़ सके क्योंकि राज्यों ने उनमें रुचि नहीं ली। वहीं इसे मसला बनाकर धन
नहीं देना महंगा भी पड़ सकता है। एक पहलू यह भी है कि ऐसा करना संघवाद की भावना के
प्रतिकूल होगा। अगर राज्य केंद्र समर्थित सुधारों या पहल में इसलिए रुचि नहीं रखते
हैं क्योंकि उनके पास समान लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए स्वयं की बेहतर योजना है
तो ऐसे में धन रोकना अनुचित साबित होगा। परंतु यदि ऐसा प्रशासनिक शिथिलता और
नाकामी की बदौलत होता है या फिर राजनीतिक कारणों से ऐसा किया जाता है तो उस स्थिति
में कड़े राजकोषीय कदम उठाना गलत न होगा।
निश्चित तौर पर केंद्र सरकार के वित्त का सहारा लेकर राज्यों को
सुधार की गति बढ़ाने के लिए कहना नया नहीं है। नीति आयोग ने भी सन् 2017
में कृषि मंत्रलय को सलाह दी थी कि वह अनुदान का एक हिस्सा राष्ट्रीय कृषि विकास
योजना के अधीन कर दे और उसका भुगतान कृषि क्षेत्र के सुधारों से जोड़ दे। बहरहाल,
राज्य
सरकारों की नाराजगी के भय से इसका क्रियान्वयन नहीं किया गया। परंतु अगर कुछ
राज्यों के मुख्यमंत्री खुद इस विचार को सही मानते हैं तो इसे आजमाने में कोई हर्ज
नहीं है भले ही इसका चुनिंदा ढंग से प्रयोग किया जाए। शुरुआत में कृषि विपणन,
जमीन
की पट्टेदारी लीजिंग, अनुबंधित कृषि, फसल बीमा और
कृषि ऋण के क्षेत्र में इसकी शुरुआत की जा सकती है।
केंद्र के कृषि संबंधी एजेंडे में राज्यों की रुचि जगाने का एक और
तरीका है, हालांकि उसका क्रियान्वयन थोड़ा कठिन है। इसके अनुसार कृषि को संविधान
की सातवीं अनुसूची के तहत राज्य सूची से निकालकर अनुवर्ती सूची में डाला जा सकता
है। इससे केंद्र सरकार को कृषि विकास में अपेक्षाकृत बड़ी और निर्णायक भूमिका
निभाने का अवसर मिलेगा। ऐसा करने से राज्य सरकारों के अधिकारों का भी हनन नहीं
होगा। कृषि की स्थिति में ऐसे सांविधिक बदलाव की अनुशंसा एम-एस- स्वामीनाथन की
अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय किसान आयोग ने भी सन 2006 में अपनी
पांचवीं और अंतिम रिपोर्ट में की थी। दलवाई समिति ने सन 2022 तक किसानों की
आय दोगुनी करने संबंधी जो रिपोर्ट सितंबर 2018 में प्रस्तुत
की उसमें भी कृषि विपणन को समवर्ती सूची में रखने की वकालत की गई।
बहरहाल इसके लिए संविधान में संशोधन करना होगा जिसे संसद के दोनों सदनों में दो तिहाई बहुमत की आवश्यकता होगी। इसके अलावा तय तादाद में राज्यों की के विधानसभाओं का समर्थन भी आवश्यक होगा। यह लंबी प्रक्रिया है लेकिन ऐसा करना अप्रत्याशित नहीं होगा क्योंकि अतीत में भी ऐसे संशोधन हुए हैं। शिक्षा, वन एवं वन्यजीव संरक्षण जैसे मुद्दों को सन 1976 में 42वें संविधान संशोधन के जरिये राज्य सूची से समवर्ती सूची में डाला गया था। अहम मुद्दा यह है कि कृषि क्षेत्र में आवश्यकता आधारित और जरूरी सुधारों को कैसे अंजाम दिया जाए ताकि किसानों का मुनाफा बहाल हो सके और किसानों की वित्तीय चिंताओं का अंत हो सके। ऐसे तरीके भी विकसित करने होंगे ताकि किसान अगर चाहें तो अपनी आजीविका की संभावनाओं में सुधार करने के लिए कृषि कार्य आसानी से छोड़ सकें। आशा की जानी चाहिए कि मुख्यमंत्रियों का समूह देश के कृषि क्षेत्र में नई जान फूंकने के लिए अधिक व्यावहारिक उपायों के साथ सामने आएगा।