प्रजनन दर में कमी किन्तु पुत्रमोह की समस्या बरकरार है

शोधा के मुताबिक प्राकृतिक परिस्थितियों में जन्म के समय लैंगिक अनुपात 950 से 955 के बीच रहता है। पॉपुलेशन फ़ाउंडेशन ऑफ़ इंडिया की कार्यकारी निदेशक पूनम मुतरेजा ने कहा, ‘लिंग चयन तकनीक का इस्तेमाल सबसे बड़ी चिंता है और यह रुकने का नाम नहीं ले रही है। भारतीय अब कम बच्चे चाहते हैं लेकिन बेटे की चाहते हैं। इस समस्या के समाधाान के लिए व्यवहार में बड़ा बदलाव चाहिए।’
पुत्रमोह को लेकर भारतीय समाज की सोच में कोई बदलाव नहीं आया है।
हालांकि देश में अब पहले से कम बच्चे पैदा हो रहे हैं लेकिन इनमें बालकों की
अपेक्षा बालिकाओं की संख्या पहले से कम हुई है। महारजिस्ट्रार एवं जनगणना आयुत्तफ़
के कार्यालय से प्राप्त नमूना पंजीकरण व्यवस्था (एसआरएस) के आंकड़ों में यह बात
सामने आई है। देश में कुल प्रजनन दर (टीएफआर) 2017 में घटकर 2।2 रह
गई जो 2016 में 2।3 थी। एक महिला अपने प्रजनन काल में जितने बच्चों को जन्म दे सकती है,
उसे
टीएफआर कहते हैं। यह स्थानापन्न दर यानी 2।1 की टीएफआर के
करीब है जहां आबादी में वृद्धि स्थिर हो जाती है। लगभग सभी राज्यों में गांवों और
शहरों में कम बच्चे पैदा करने की प्रवृत्ति बढ़ी है और इसी वजह से टीएफआर में
गिरावट आई है। यह रुझान संयुत्तफ़ राष्ट्र
के अनुमानों के मुताबिक है जिनमें हाल के वर्षों में संशोधित करके कमी की गई है।
2015 की रिपोर्ट में अनुमान जताया गया था कि 2022 में भारत चीन
को पछाड़कर सर्वाधिक आबादी वाला देश बन जाएगा लेकिन 2019 की रिपोर्ट में
इसे बढ़ाकर 2027 कर दिया गया। लेकिन टीएफआर
में उल्लेखनीय सुधार के बावजूद देश में लैंगिक अनुपात पहले से बदतर हुआ है। 2010 से
2013 तक इसमें लगातार सुधार हुआ था। 2013 में प्रति 1,000
बालकों पर 910 बालिकाओं का जन्म हुआ था लेकिन इसके बाद इसमें गिरावट आई और 2017
में यह 898 रह गया। 2015 तक शहरों में इसमें ज्यादा गिरावट आई
थी लेकिन हाल में ग्रामीण इलाकों में स्थिति बदतर हुई है।
शोध के मुताबिक प्राकृतिक परिस्थितियों में जन्म के समय लैंगिक
अनुपात 950 से 955 के बीच रहता है। पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की कार्यकारी निदेशक
पूनम मुतरेजा ने कहा, ‘लिंग चयन तकनीक का इस्तेमाल सबसे बड़ी चिंता है और यह रुकने का नाम नहीं
ले रही है। भारतीय अब कम बच्चे चाहते हैं लेकिन बेटे की चाहते हैं। इस समस्या के
समाधान के लिए व्यवहार में बड़ा बदलाव चाहिए।’
पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन ने 2017-18
में अपनी आर्थिक समीक्षा में भारतीय समाज के पुत्रमोह को विस्तार से रेखांकित किया
था। समीक्षा में यह भी कहा गया था कि पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में अंतिम
बच्चे के लिए लैंगिक अनुपात 500 से भी कम है। जन्म के समय लैंगिक
अनुपात पहले से ही गांवों की तुलना में शहरों में कम है। लेकिन एसआरएस के आंकड़ों
के मुताबिक तेलंगाना, दिल्ली, केरल और बिहार में हाल के वर्षों में स्थिति बदतर हुई है। तेलंगाना
में एसआरबी में 2015 से 2017 के बीच इसमें 21 अंक की गिरावट आई। दिल्ली और केरल में
भी यही स्थिति है जबकि बिहार में यह अलग है।
मुतरेजा ने कहा, ‘बिहार जैसे गरीब राज्यों में बालकों को
वरीयता देने के कारण बालिकाओं में पोषण की कमी है। लेकिन ज्यादा शहरीकरण वाले
राज्यों में समृद्ध परिवार सामाजिक और आर्थिक
कारणों से बेटों को ज्यादा वरीयता देते हैं।’ एसआरएस के आंकड़ों से यह
भी पता चलता है कि देश में आर्थिक रूप से सक्रिय आबादी (15 से 59 तक
की उम्र के लोग) और बुजुर्गों (60 साल से अधिक आयु) की संख्या बढ़ रही
है। 2017 में देश की कुल आबादी में 15 से 59 साल के लोगों
की संख्या 65।4 फीसदी है जबकि बुजुर्गों की आबादी 8।2
फीसदी थी।
ताजा आर्थिक समीक्षा में देश में कामकाजी आबादी में कमी की चेतावनी दी गई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि 2021 से 2031 के दौरान देश की कामकाजी आबादी में सालाना 97 लाख का इजाफा होगा जबकि 2031 से 2041 के दौरान यह हर साल 42 लाख बढ़ेगी। इस बीच 5 से 14 वर्ष की आयु वाले स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या में उल्लेखनीय कमी आएगी। भारत को अपनी बुजुर्ग होती आबादी के लिए तैयारी करने की जरूरत है। देश की घटती प्रजनन दर में दो अपवाद हैं। केवल पश्चिम बंगाल और जम्मू-कश्मीर के शहरी इलाकों में टीएफआर में बढ़ोत्तरी हुई है।