चांद अब बहुत दूर नहीं---

2019-10-01 0

सबसे पहले तो इसरो के वैज्ञानिकों को दिल से बधाई! चांद पर अपना यान उतारने में वे निश्चित तौर पर भले असफल रहे हों, परंतु उन्होंने साबित कर दिया कि 1963 में एक बैलगाड़ी पर सामान रखकर थुंबा (केरल) तक पहुंचने वाली अदना-सी संस्था आज कितनी विराट हो गई है। हमें याद रखना चाहिए कि विज्ञान का सफर सफलताओं से नहीं, बल्कि असफलताओं से ऊर्जा ग्रहण करता है। थॉमस अल्वा एडिशन ने एक अदद बल्ब को जलाने के लिए हजार बार नाकामी झेली थी।

किसी देश और उसके वासियों का सबसे बड़ा इम्तिहान नौजवान सपनों की मौत के वत्तफ़ होता है। शुक्रवार को दिन भर दृश्य और श्रव्य मीडिया ने सोशल मीडिया के साथ जिस तरह की सनसनी रच दी थी, उससे लोगों की उम्मीदें चांद पर जा बैठी थीं। विक्रम से संपर्क टूटने के बाद जो झटका लगा, उसे समूचे देश ने पूरी गरिमा और दृढ़ संकल्प के साथ ग्रहण किया। इस विरल वक्त में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह वैज्ञानिकों की हौसला अफजाई की, उसकी तारीफ की जानी चाहिए। जिन लोगों ने असफलता की पहली सुबह उनके शब्द सुने, वे लंबे समय तक उसे याद रखेंगे।

प्रधानमंत्री ने कहा, ‘हमें अपने रास्ते के आखिरी कदम पर रुकावट भले मिली हो, लेकिन हम इससे अपनी मंजिल के रास्ते से डिगे नहीं हैं। विज्ञान की भाषा अलग है, लेकिन किसी कवि को आज की घटना पर लिखना हो, तो जरूर लिखेगा कि हमने चांद का इतना रोमांटिक वर्णन किया है कि वह चंद्रयान के स्वभाव में भी आ गया, इसलिए आखिरी चरण में चंद्रयान चंद्रमा को गले लगाने के लिए दौड़ पड़ा---। आज चंद्रमा को छूने की हमारी इच्छाशत्तिफ़ और भी मजबूत हुई है। बीते कुछ घंटे से पूरा देश जगा हुआ है। हम अपने वैज्ञानिकों के साथ खडे़ हैं और रहेंगे। हम बहुत करीब थे, लेकिन हमें आने वाले समय में और दूरी तय करनी है। सभी भारतीय आज खुद को गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। हमें अपने स्पेस प्रोग्राम और वैज्ञानिकों पर गर्व है।’

हमारी पीढ़ी के वे लोग, जो चंदा मामा दूर के, पुए पकाएं गुड़ के--- सुनकर बडे़ हुए हैं, उनके लिए ऐसे वैज्ञानिक आख्यान एक रोमानी काव्यात्मकता का अवसान लेकर आते हैं। कुल नौ साल का था, जब नील आर्मस्ट्रांग ने चांद की धरती पर कदम रखा था। तब की दुनिया अलग थी। सोशल मीडिया था नहीं, टेलीविजन भारत में सिर्फ दिल्ली तक सीमित था। उस समय भी मैंने अपने बड़ों को रेडियो से कान लगाए देखा था। लोगों में इतनी उत्सुकता और उत्तेजना थी कि चांद पर पहुंचने वाला पहला इंसान क्या स्वर्ग से भी सुंदर जगह पर पहुंच रहा है? हजारों साल से हम सौंदर्य की तुलना चंद्रमा से करते आए हैं, क्या चांद सौंदर्य शब्द को नए मानी देगा?

नतीजा उल्टा निकला। गहरे गîक्कों से पटी वहां की सतह साहित्य की कल्पनाओं को फंतासी साबित कर रही थी। विज्ञान विचार के पीछे चलता है और विचार को कल्पना का सहारा चाहिए होता है। अपोलो-11 ने दुनिया भर के कवियों को नए सिरे से सोचने पर बाध्य कर दिया था। उन्हीं दिनों कुछ पढे़-लिखे लोगों ने अमेरिकी जनरल होमर एबुशी का एक पुराना बयान याद दिलाया। साल 1958 में उन्होंने कहा था- ‘जो चांद को नियंत्रित करता है, वही धरती को नियंत्रित करता है।’ आम-जन को ऐसे बयानों को समझने में समय लगता है।

आज चांद वाकई मानवता के रक्षक के तौर पर उभरता दिखाई पड़ता है। वहां पानी मिलने के प्रमाण मिले हैं। बताने की जरूरत नहीं कि बढ़ती आबादी के बोझ के साथ धरती पर पेयजल का संकट गहराता जा रहा है, इसलिए हमें अब वैकल्पिक ग्रहों की जरूरत महसूस हो रही है। चांद के साथ मंगल वैज्ञानिकों के आकर्षण का केंद्र है, क्योंकि वहां भी जीवन के लिए जरूरी जल की पर्याप्त उपस्थिति है।

यहां अपने बीच के एक वैज्ञानिक की चर्चा मुनासिब होगी। सैयद जहूर कासिम इलाहाबाद के रहने वाले थे। उन्होंने भारत के प्रथम अंटार्कटिका-अभियान की अगुवाई की थी। बतौर युवा रिपोर्टर प्रयाग संगीत समिति के हॉल में मैंने उनका सार्वजनिक अभिनंदन ‘कवर’ किया था। अपने भाषण में उन्होंने कहा था कि अंटार्कटिका आने वाले दिनों में हमारी जलापूर्ति के साथ रिहाइश के लिए वैकल्पिक स्थान उपलब्ध कराएगा। हम गंगा-युमना की माटी में जन्मे लोग तब तक जल-संकट की कल्पना से कोसों दूर थे। कासिम साहब के बयान ने समझा दिया कि विज्ञान अगर दूर की नहीं सोचेगा, तो इंसानियत संकट में पड़ जाएगी।

भारत के चंद्र अभियान को भी इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जब कह रहे हों कि अब भारत और चीन को विकसित देश मान लेना चाहिए, तो अपने आर्थिक अंतर्विरोधों के बावजूद हमारे इस महादेश को दूर की सोचनी ही होगी। यूरोपीय स्पेस एजेंसी 2030 तक चंद्रमा पर ‘इंटरनेशनल विलेज’ बनाने की बात कह रही है। रूस की अंतरिक्ष संस्था रॉसकॉसमॉस ने एलान किया है कि वह 2025 तक चांद पर बस्ती बनाने का काम शुरू कर देगी। इसे 2040 तक पूरा कर लिया जाएगा। संसार का सबसे बड़ा लोकतंत्र ऐसे में आंखें मूंदकर नहीं रह सकता।

हम हिन्दुस्तानी आने वाले सालों में आबादी के मामले में चीन को पछाड़ने जा रहे हैं। ऐसे में, हमें धरती के विकल्पों पर ध्यान देना ही होगा। यहां एक ऐतिहासिक त्रसदी की ओर आपका ध्यान खिचना चाहूंगा। अगर मुगल सम्राटों ने ऐश-ओ-इशरत की जगह नौसेना के गठन पर बल दिया होता, तो शायद हम यूरोपीय उपनिवेशवादियों के गुलाम न हुए होते।         

यूरोप के राजा-रानी उस वत्तफ़ यही कर रहे थे। क्वीन एलिजाबेथ ने इंग्लैंड को विश्व विजयी नौसेना का उपहार दिया, बाद में  जार कैथराइन ने समुद्र की शत्तिफ़ को पहचाना। वह कहती थीं कि हमें (रूस) दुनिया के लिए एक खिड़की चाहिए। खिड़की यानी समुद्र और इसके लिए उन्होंने पोलैंड को विभाजित तक कर डाला था। अमेरिका की खोज करने वाले कोलंबस को आर्थिक इमदाद स्पेन की रानी इसाबेला से हासिल हुई थी। आने वाले दिन अंतरिक्ष के हैं, इसलिए इसरो बधाई का पात्र है, क्योंकि वह आगामी जरूरतों के हिसाब से तैयारी कर रहा है।



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