जिंदगी के लिए सुपरफ़ूड क्यों हैं मोटे अनाज

2019-10-01 0

आज से सिर्फ 50 साल पहले हमारे खाने की परंपरा बिल्कुल अलग थी। हम मोटा अनाज खाने वाले लोग थे। मोटा अनाज मतलब- ज्वार, बाजरा, रागी (मडुआ), सावां, कोदो और इसी तरह के मोटे अनाज। 60 के दशक में आई हरित क्रांति के दौरान हमने गेहूं और चावल को अपनी थाली में सजा लिया और मोटे अनाज को खुद से दूर कर दिया। जिस अनाज को हम साढ़े छह हजार साल से खा रहे थे, उससे हमने मुंह मोड़ लिया और आज पूरी दुनिया उसी मोटे अनाज की तरफ वापस लौट रही है।

पिछले दिनों आयुष मंत्रलय के एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री मोदी ने भी मोटे अनाज की खेती के लिए किसानों को प्रोत्साहित करने पर बल दिया। पीएम मोदी बोले, ‘आज हम देखते हैं कि जिस भोजन को हमने छोड़ दिया, उसको दुनिया ने अपनाना शुरू कर दिया। जौ, ज्वार, रागी, कोदो, सामा, बाजरा, सांवा, ऐसे अनेक अनाज कभी हमारे खान-पान का हिस्सा हुआ करते थे। लेकिन ये हमारी थालियों से गायब हो गए। अब इस पोषक आहार की पूरी दुनिया में डिमांड है।’

क्या होता है मोटा अनाज?

भारत में 60 के दशक के पहले तक मोटे अनाज की खेती की परंपरा था। कहा जाता है कि हमारे पूर्वज हजारों वर्षों से मोटे अनाज का उत्पादन कर रहे हैं। भारतीय हिंदू परंपरा में यजुर्वेद में मोटे अनाज का जिक्र मिलता है। 50 साल पहले तक मध्य और दक्षिण भारत के साथ पहाड़ी इलाकों में मोटे अनाज की खूब पैदावार होती थी। एक अनुमान के मुताबिक देश में कुल खाद्यान्न उत्पादन में मोटे अनाज की हिस्सेदारी 40 फीसदी थी।

मोटे अनाज के तौर पर ज्वार, बाजरा, रागी (मडुआ), जौ, कोदो, सामा, बाजरा, सांवा, लघु धान्य या कुटकी, कांगनी और चीना जैसे अनाज शामिल हैं।

मोटा अनाज

क्यों कहते हैं इसे मोटा अनाज

मोटा अनाज इसलिए कहा जाता है क्योंकि इनके उत्पादन में ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती। ये अनाज कम पानी और कम उपजाऊ भूमि में भी उग जाते हैं। धान और गेहूं की तुलना में मोटे अनाज के उत्पादन में पानी की खपत बहुत कम होती है। इसकी खेती में यूरिया और दूसरे रसायनों की जरूरत भी नहीं पड़ती। इसलिए ये पर्यावरण के लिए भी बेहतर है।

ज्वार, बाजरा और रागी की खेती में धान के मुकाबले 30 फीसदी कम पानी की जरूरत होती है। एक किलो धान के उत्पादन में करीब 4 हजार लीटर पानी की खपत होती है, जबकि मोटे अनाजों के उत्पादन नाममात्र के पानी की खपत होती है। मोटे अनाज खराब मिट्टी में भी उग जाते हैं। ये अनाज जल्दी खराब भी नहीं होते। 10 से 12 साल बाद भी ये खाने लायक होते हैं। मोटे बारिश जलवायु परिवर्तन को भी सह जाती हैं। ये ज्यादा या कम बारिश से प्रभावित नहीं होती।

सेहत के लिए कितना फायदेमंद है मोटा अनाज

ज्वार, बाजरा और रागी जैसे मोटे अनाज में पौष्टिकता की भरमार होती है। रागी भारतीय मूल का उच्च पोषण वाला मोटा अनाज है। इसमें कैल्शियम की भरपूर मात्र होती है। प्रति 100 ग्राम रागी में 344 मिलीग्राम कैल्शियम होता है।

रागी को डायबिटीज के रोगियों के लिए फायदेमंद होता है। उसी तरह से बाजरा में प्रोटीन की प्रचुर मात्र होती है। प्रति 100 ग्राम बाजरे में 11-6 ग्राम प्रोटीन, 67-5 ग्राम कार्बाेहाइड्रेट, 8 मिलीग्राम लौह तत्व और 132 मिलीग्राम कैरोटीन होता है। कैरोटीन हमारी आंखों को सुरक्षा प्रदान करता है।

ज्वार दुनिया में उगाया जाने वाला सबसे 5वां

महत्वपूर्ण अनाज है। ये आधे अरब लोगों का मुख्य आहार है। आज ज्वार का ज्यादातर उपयोग शराब उद्योग, डबल रोटी के उत्पादन के लिए हो रहा है। बेबी फूड बनाने में भी ज्वार का इस्तेमाल होता है। बढ़ती आबादी के लिए खाद्यान्न की जरूरतों को पूरा करने में ज्वार अहम भूमिका निभा सकता है।

मोटा अनाज की खेती पर सरकार दे रही है जोर

केंद्र सरकार मोटे अनाज की खेती पर जोर दे रही है क्योंकि बढ़ती आबादी के लिए पोषणयुत्तफ़ भोजन उपलब्ध करवाने में यही अनाज सक्षम हो सकते हैं। मोटे अनाज पोषण का सबसे बेहतरीन जरिया हैं। सरकार इसके पोषक गुणों को देखते हुए इसे मिड-डे मील स्कीम और सार्वजनिक वितरण प्रणाली में भी शामिल करने की सोच रही है।

केंद्र सरकार ने मोटा अनाज की खेती के लिए प्रेरित करने के लिए साल 2018 को मोटा अनाज वर्ष के रूप में मनाया था। उस वत्तफ़ कृषि मंत्री रहे राधा मोहन सिंह ने संयुत्तफ़ राष्ट्र संघ खाद्य एवं कृषि संगठन को पत्र लिखकर 2019 को मोटा अनाज वर्ष के रूप में मनाने की अपील की थी।

छत्तीसगढ़ और ओडिशा के कुछ इलाकों में मोटा अनाज की खेती बढ़ी है। दक्षिण भारत में भी मोटा अनाज का चलन बढ़ा है। आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और ओडिशा में रोज के खान-पान में मोटा अनाज को शामिल किया जा रहा है।



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