गांव की यादें और शहरों में अजनबी

शहर की जिंदगी धीरे-धीरे ये सिखाती है कि किसी के भरोसे नहीं रहना है, जो भी करना है अपने बूते पर करना है। ये मूल्य गांव की जिंदगी के खिलाफ है। वहां एक प्रकार कार ‘बाध्यकारी-सहकार’ होता है क्योंकि एक के बिना दूसरे का काम नहीं चल सकता है।
समय आगे बढ़ता है और हम जैसे लोग अपने जीवन में हर वत्तफ़ इस विरोधाभास को सामने खड़ा पाते हैं। बल्कि, गांव जाकर अपने भाई-बंधुओं को यह बताने लगते हैं कि अपने भरोसे रहो, जो करो खुद करो, किसी की मदद न लो, अपने बल पर आगे बढ़ो। पर, वे नहीं समझते कि उन्हें ‘क्या’ समझाया जा रहा है। बल्कि ‘क्या’ से अधिक बड़ा ‘क्यों’ होता है, उन्हें ‘क्यों’ समझाया जा रहा है। समझाने की यह प्रक्रिया खुद के लिए किसी दिलासा से कम नहीं होती। तब लगता है कि हमने गांव के प्रति, अपनी धरती के प्रति और वहां रह रहे (छूट गए) लोगों के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन कर लिया है।
अपने गांव में आउटसाइडर
मेरे परिचित एक इंजीनियर साहब कुछ साल पहले रिटायर होने के बाद
स्थायी तौर पर गांव चले गए। उनके मन में वैसे ही ऊंचे आदर्श थे, जैसे
कि गांव से उजड़े हम जैसे ज्यादातर लोगों के मन में हैं या होते हैं। कुछ दिन गांव
में उन्हें खूब तवज्जो मिली, हर कोई सलाह-मशवरे के लिए उनके पास
जाता था। इंजीनियर साहब को अपनी विवेक-बुद्धि पर पूरा भरोसा था। लेकिन, वत्तफ़
ने जल्द ही उन्हें बता दिया कि अब वे ‘आउटसाइडर’ हैं। हुआ यह कि इंजीनियर साहब के
परिवार के एक व्यत्तिफ़ ने दूसरे की जमीन पर कब्जा कर लिया और जिसकी जमीन हड़पी उसी
पर मुकदमा भी करा दिया। पीड़ित आदमी सिर पटक कर रह गया, कहीं से कोई मदद
नहीं मिली। इस पूरी घटना से इंजीनियर साहब की न्याय-बुद्धि को झटका लगा, उन्होंने
अपने परिवार के लोगों को भला-बुरा कहा और पीड़ित की जमीन लौटाने पर जोर दिया। अगले
दिन परिवार के लोगों ने इंजीनियर साहब को कुनबे से बाहर कर दिया और ये भी समझा
दिया कि अब ज्यादा दिन गांव में रहोगे तो किसी दिन लौंडे-लफाड़े हाथ रंवा कर देंगे!
इंजीनियर दोबारा शहर में आ गए हैं और गांव में अपने हिस्से की जमीन को बेचने की
तैयारी में हैं! क्या ये ही था सपनों का गांव!
जवाब बेहद मुश्किल है। क्योंकि इंजीनियर साहब एक सपना लेकर गए थे,
गांव
में एक अच्छे स्कूल का, एक डिस्पेंसरी का और जवान होती पीढ़ी के लिए एक स्किल एंड काउंसलिंग
सेंटर का। इनमें से एक भी सपना पूरा नहीं हुआ क्योंकि गांव की जिंदगी उस 30-40
साल पहले के दौर में नहीं है, जब किसी एक पीढ़ी के कुछ उत्साही युवाओं
ने अपने सपनों के लिए गांव की धरती छोड़ी थी। इस उम्मीद के साथ छोड़ी थी कि एक दिन
फिर लौट कर आएंगे और इस धरती को सूद समेत उसका हक अदा करेंगे। लेकिन, कुछ
भी अदा नहीं होता क्योंकि आप जिस धरातल पर लौटना चाहते हैं, उस धरातल का
लेवल बदल चुका है। तब, सबसे बड़ी चुनौती यह होती है कि उस लेवल के साथ खुद को किस प्रकार
एडजस्ट करें। इस पूरी प्रक्रिया में ‘सत्य’ ऐसे विरोधाभास का सामना करना है,
जिसकी
कोई काट आमतौर पर हमारे सामने नहीं होती।
नये जमानेे से कदमताल की जटिलता
यह सच है कि गांव की नई पीढ़ी को कॅरियर और शैक्षिक परामर्श की जरूरत
है। उन्हें नहीं पता कि शहर में रहने वाले उनके जैसे युवा बहुत तेजी से आगे बढ़ रहे
हैं, उनसे प्रतिस्पर्धा के लिए यह जरूरी है कि गांव के युवाओं को
काउंसलिंग और गाइडेंस मिले। कोई उन्हें यह बता सके कि वे अगर बीए भी करना चाहते
हैं तो किन विषयों के साथ करें और किस कॉलेज या विश्वविद्यालय करें! जब वे बीटेक
के पीछे दौड़ रहे होते हैं तब उन्हें पता चलता है कि फैक्ट्रियों में तो
पॉलीटेक्निक डिप्लोमा वालों की मांग है और जब वे बार-बार इंटरमीडिएट की परीक्षा
में फेल होते हैं तो तब उन्हें शायद पता ही नहीं होता कि आईटीआई की किसी ट्रेड में
दाखिल होकर भविष्य में ठीक-ठाक नौकरी पा सकते थे। यह विरोधाभास सतत् रूप से गांव
की जिंदगी का हिस्सा बना रहता है।
अपवाद हर जगह हो सकते हैं कि लेकिन यह सच्चाई है कि गांव में अब भी
सबसे बड़ा कॅरियर या तो इंजीनियर बनना है या फिर डॉक्टरी की पढ़ाई करना है। जब तक
उन्हें नए जमाने की पढ़ाई के बारे में पता चलता है तब तक ‘नया जमाना’ और आगे जा
चुका होता है। यही आज के गांव का सच है और उस गांव में आप चारों तरफ एक परेशान
पीढ़ी को पाएंगे, यह पीढ़ी खेतों में खट रही है। उन खेतों में खट रही है जहां पूरे
परिवार को साल भर की सतत मेहनत के बावजूद न्यूनतम मजदूरी जितनी आय भी नहीं होती।
ये सब कुछ जानते हुए भी कोई व्यत्तिफ़ गांव के साथ अपने रिश्ते को किस प्रकार
पुनर्निधारित और पुनर्परिभाषित करेगा, यह काफी चुनौतीपूर्ण है। चुनौती इसलिए
भी बहुत बड़ी है क्योंकि शहर की जिंदगी का बाहरी पक्ष काफी प्रभावपूर्ण है और यह
पक्ष गांव की नई पीढ़ी को आकर्षित करता है।
जब भी गांव में जाता हूं तो नई पीढ़ी वो शॉर्टकट जानना चाहती है, जिस पर चलकर वह भी शहर की चमकीली दुनिया में खुद के लिए जगह पा सके। काश, ऐसा कोई शॉर्टकट होता और उस शॉर्टकट का मुझे भी पता होता