हरियाणा व महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव 2019 बहुत दिलचस्प है यह जीत-हार

2019-11-01 0

महाराष्ट्र और हरियाणा में विधनसभा चुनाव के नतीजे आ चुके है। पिछली बार इन दोनों राज्यों में भाजपा ने बड़ी जीत हासिल की थी। लेकिन इस बार इन दोनों राज्यों में कुछ बदल गया है।

पांच साल पहले इसी वक्त भाजपा ने महाराष्ट्र और हरियाणा में एक रिकार्ड बनाया था। दोनों राज्यों में भाजपा ने न सिपर्फ गौरव के साथ बड़ी जीत हासिल की थी बल्कि पहली बार अपना मुख्यमंत्राी बनाया था। वह जीत केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार बनने के चार महीने बाद हुई थी। केंद्र में तो दोबारा नरेंद्र मोदी सरकार और बड़ी संख्या से जीतकर आ गई लेकिन इन दो राज्यों में क्या बदल गया? जीत तो इस बार भी हुई।

सरकार भी बनने जा रही है लेकिन बहुत कुछ बदला-बदला सा है। दरअसल, इस बार चेहरा बदल गया। पिछली बार राज्यों में भी चेहरा मोदी ही थे। इस बार देवेंद्र पफडणवीस और मनोहर लाल खट्टर चेहरा थे और जनता ने स्पष्ट कर दिया कि उन्हें उनके प्रदर्शन, उनकी विश्वसनीयता पर परखा जाएगा। दोनों पिफर से मुख्यमंत्राी बनने जा रहे हैं लेकिन शक्ति थोड़ी कम हो गई है। जो नतीजे आए हैं वह विपक्ष की निष्क्रियता के बावजूद हैं। अनुमान लगाया जा सकता है कि अगर विपक्ष स्थानीय मुद्दों के साथ आक्रामक होता और भाजपा में अभियान की कमान मोदी और अमित शाह जैसे सशक्त  लोगों पर केंद्रित न होती तो क्या होता।

अगर कांग्रेस की बात की जाए तो कहा जा सकता है कि राहुल गाँधी से कमान लेने के बाद सोनिया गाँधी ने समझदारी के पफैसले लेने की शुरआत की है। अगर राहुल की लीक पर ही हरियाणा में भूपेंद्र हुड्डा  को दूर रहा जाता तो कांग्रेस इस मुकाम पर नहीं पहुंचती कि उत्साह का संचार हो। महाराष्ट्र में अपेक्षा से कापफी नीचे प्रदर्शन की अलग-अलग दलीलें दी जा सकती हैं। कहा जा सकता है कि अलग-अलग लड़े होते तो ज्यादा अच्छा प्रदर्शन होता क्योंकि तब त्रिाकोणीय लड़ाई होती और भाजपा के पास आजमाने को ज्यादा सीटें होतीं। अब उस शिवसेना पर निर्भरता बढ़ गई है जिसने रुझान आने के साथ आंखें भी दिखानी शुरू कर दी हैं।

सरकार तो बन गई लेकिन वहां मंत्रिामंडल गठन में कितनी खिचतान होगी यह समझा जा सकता है। और हरियाणा..? अभी-अभी लोकसभा चुनाव में भाजपा का जो प्रदर्शन था उसके अनुसार भाजपा 80 सीटें जीतती। लेकिन नतीजा आया तो कांटे की टक्कर में पफंस गई। वह भी उस कांग्रेस से जो मन से चुनाव हार चुकी थी। आखिर क्या कारण था। प्रदेश नेतृत्व ने केंद्र को सच्चाई नहीं बताई थी? क्या खेमेबाजी पिफर हावी रही? या पिफर प्रदेश के प्रभावी जाट समुदाय के लिए यह संदेश कि भाजपा में उनके लिए पिफलहाल बड़ा स्थान नहीं है, यह भारी पड़ा। ये सभी कारण हो सकते हैं। और केंद्रीय नेतृत्व को इस सभी के जवाब ढूंढ़ने होंगे वरना आश्चर्य नहीं कि दूसरे राज्यों में भी इसका असर दिखे। खासकर दिल्ली में जहां अगले कुछ महीनों में ही चुनाव हैं। और उससे पहले झारखंड में जहां विपक्ष पिफलहाल बिखरा हुआ तो है लेकिन मौजूद है।

इन दोनों राज्यों के लिए भाजपा को रणनीति तय करनी होगी। भाजपा को एक बात और याद रखनी होगी कि विधनसभा चुनावों में स्थानीय मुद्दों की ज्यादा अहमियत होती है। अगर यह कहा जाए कि केंद्र सरकार के हाल में अनुच्छेद 370 हटाने जैसे पफैसले की चर्चा नहीं होती तो स्थिति और खराब हो सकती थी तो गलत नहीं होगा। अगर विपक्ष के नजरिए से देखा जाए तो उनके लिए पीठ थपथपाने की बात नहीं है क्योंकि भूमिका जनता की है विपक्ष तो खुद हैरत में है। विपक्ष की ओर से ऐसा कुछ नहीं किया गया इसके लिए उन्हें श्रेय दिया जाए।

जनता ने प्रदेश सत्ता के खिलापफ थोड़ी नाराजगी जताई। तस्वीर सापफ थी जब लगभग आठ पफीसदी कम मतदान हुए थे। भाजपा और विपक्ष दोनों के लिए जागने का वक्त है भाजपा को अतिविश्वास से बाहर आकर झांकना होगा और विपक्ष को जमीनी लड़ाई में मजबूती से डटने के लिए संगठन से लेकर नेतृत्व तक मजबूत करने होंगे।



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