चीन-भारत क्या हम साथ-साथ चलने के लिए तैयार हैं?

भारत और चीन के रिश्तों में
आई हालिया स्थिरता ने मानो पूर्व के अशांत दौर की यादें मिटा दी है। देखा जाए,
तो
साल 2014 से 2017 के बीच हमने आपसी संबंधों में जो तनाव, कड़वाहट और
अविश्वास देखा था, वह दरअसल चीन की नीतियों और इरादों को लेकर बढ़ती अनिश्चितता का नतीजा
था। वह शीत-युद्ध के बाद के दौर का एक असामान्य टकराव था, जिसे 2018
में थाम लिया गया। पहले वुहान सम्मेलन की राह भी तभी साफ हो पाई, शुरू
हो रहे चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के भारत दौरे का भी यही संदेश है।
पिछले एक दशक से तीन ऐतिहासिक कारक भारत-चीन रिश्ते को आकार देने में
जुटे हैं। इनमें से कुछ कारक दोनों देशों को प्रतिस्पर्द्धा की ओर धकेल रहे हैं,
तो
कुछ उन्हें आपसी सहयोग और सहकार्य के लिए प्रेरित करते हैं। इन कारकों में पहला है,
बदलती
विश्व व्यवस्था और एशिया का उभार (खासकर 2008 की वैश्विक
मंदी के बाद)। दूसरा कारक यह सोच है कि अंतर्राष्ट्रीय और एशियाई मामलों को कुशलता
से संभाल पाने में पश्चिम सफल नहीं हो पा रहा, जिसके कारण भारत,
चीन
और अन्य उभरती ताकतों पर नई व्यवस्था बनाने का भरोसा बढ़ गया है। इस नई भूमिका में
वैश्विक स्थिरता को कायम रखने और नई शासकीय संस्थाओं व मानदंडों को मिलकर विकसित
करने के लिए आपसी सहयोग और समन्वय की दरकार है। तीसरा कारक है, दक्षिण
एशिया को लेकर चीन की 2013 और 2014 की नीतियां,
जिनमें
उसने अपने आस-पास और उप-महाद्वीप के अन्य देशों के साथ मजबूत रिश्ते बनाने की बात
कही। बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव और चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे की विधिवत घोषणा
इसी की कड़ी थी।
बेशक ये तीनों कारक 2017 तक भारत-चीन रिश्ते को नया रूप देते
रहे, मगर यह महाद्वीप पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रिया का बड़ा अखाड़ा भी बना
रहा, जिस कारण दोनों पक्षों ने प्रतिस्पर्द्धात्मक सोच और नीतियां अपनाईं।
इस दौरान किस कदर तनाव और अविश्वास पैदा हुआ, यह चीन के अपने
दक्षिण-पश्चिम इलाकों में संबंध-विस्तार करने के फैसले और उस पर भारत की
प्रतिक्रियाओं से समझा जा सकता है। डोका ला प्रकरण ने तो इस सवाल को कहीं गहरा बना
दिया था कि यदि अपने-अपने नियंत्रण वाले सीमावर्ती इलाकों में सामने वाले देश की
कोई हरकत होती है, तो दोनों देश किस तरह की प्रतिक्रिया देंगे?
सीमा विवाद और आपसी संघर्ष की आशंका ही वे बडे़ कारण थे कि दोनों
देशों के नेतृत्व ने इन जटिल ऐतिहासिक कारकों का गंभीर मूल्यांकन किया।
उभरती बहुध्रुवीय व्यवस्था और एशिया के पुनरोदय की व्यापक पृष्ठभूमि,
वैश्वीकरण
के भविष्य पर अनिश्चितता और दोनों देशों की राष्ट्रीय विकासात्मक प्राथमिकताओं
(अपने अवाम के लिए सामाजिक-विकासात्मक सुविधाएं हासिल करने और अर्थव्यवस्था में
आमूल-चूल बदलाव के लिए उन्हें लंबा रास्ता तय करना है) ने दोनों देशों के नेतृत्व
को इस निष्कर्ष पर पहुंचाया कि क्षेत्रीय तनाव का कम होना उनके हित में है।
अप्रैल, 2018 में वुहान में हुई ‘अनौपचारिक बैठक’
का उद्देश्य यही था, जिसमें दोनों पक्षों ने बिगड़ते आपसी रिश्तों को संभालने और संबंधों
की नई इबारत लिखने का प्रयास किया।
तेजी से बदलते अंतर्राष्ट्रीय परिवेश में अपने जटिल संबंधों को
दुरुस्त करने के लिए दोनों नेतृत्व ने तत्काल रूपरेखा भी बनाई। उल्लेखनीय है कि 1988 की
‘मॉडस विवेंदी’ (राजीव गांधी की सरकार के समय भारत-चीन संबंधों को दी गई नई दिशा)
यह समझते हुए तैयार की गई थी कि दशकों पुराने क्षेत्रीय विवाद के बावजूद दोनों
पक्ष आपसी रिश्तों को आगे बढ़ाते रहेंगे। मगर उसमें ऐसा कुछ नहीं था, जो
भू-राजनीतिक सामंजस्य को संभव बना सके या विवादित मसलों का उस गहराई और व्यापकता
में समाधान निकाल सके, जैसा हाल के वर्षों में द्विपक्षीय रिश्तों को परिभाषित करने में
किया गया है।
‘वुहान 1-0’ में कुछ ऐसे मानदंडों को स्पष्ट करने
का प्रयास किया गया था, जो दोनों देशों के नीति-निर्माताओं और नौकरशाहों के लिए दिशा-निर्देश
के रूप में काम कर सकता था। यह पांच आधार पर तैयार किया गया था।
पहला, स्वतंत्र विदेश नीति के साथ दो बड़ी शत्तिफ़यों के रूप में ‘भारत और
चीन का साथ-साथ उदय’ एक सच्चाई है। दूसरा, बदलती वैश्विक सत्ता में आपसी रिश्ते
को फिर से महत्व मिला है और यह ‘स्थिरता के लिए सकारात्मक कारक’ बन गया है। तीसरा,
दोनों
पक्ष ‘एक-दूसरे की संवेदनशीलता, चिंता और आकांक्षाओं का सम्मान’ करने
का महत्व जानते हैं। चौथा, दोनों नेतृत्व सीमा के तनाव को कम करने
के लिए ‘अपनी-अपनी सेना को दिशा-निर्देश’ देंगे और आखिरी, दोनों पक्ष
‘साझा हित के सभी मामलों पर अधिक से अधिक संवाद करेंगे’, जिसमें एक
वास्तविक ‘विकासात्मक साझेदारी’ भी शामिल है।
हालांकि ‘वुहान पहल’ की यह कहकर आलोचना की गई थी कि इसमें आपसी
मतभेदों को दूर करने का कोई ठोस खाका बनता नहीं दिख रहा। इसमें कुछ हद तक सच्चाई
भी थी। फिर भी, तथ्य यही है कि दोनों देशों ने आपसी प्रतिस्पर्द्धा और अविश्वास को
काफी कम किया। मुमकिन है कि अनिश्चित अंतर्राष्ट्रीय परिस्थिति ने दोनों को ऐसा
करने को प्रेरित किया हो। दावा यह भी किया गया है कि अमेरिका के साथ चीन की
रणनीतिक प्रतिस्पर्द्धा ने बीजिंग को नई दिल्ली से करीब किया है। बेशक यह सही है,
मगर
इन बहसों में इसकी बहुत ज्यादा चर्चा नहीं की जाती कि चीन के साथ सैन्य, आर्थिक
व कूटनीतिक तनाव कम करने का फायदा भारत को भी मिला है।
भविष्य की बात करें, तो भारत की चीन-नीति के तीन लक्ष्य होने चाहिए। पहला, एशिया में एक समावेशी सुरक्षा ढांचा का निर्माण करना, जो पारस्परिक आर्थिक निर्भरता को प्रभावित किए बिना बहुध्रुवीय व्यवस्था बनाने में मदद करे। दूसरा, निष्पक्ष और नियम-आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था बनाना, जो भारत और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के हितों को बेहतर ढंग से जाहिर कर सके और तीसरा, पड़ोस में भू-राजनीतिक स्थिरता और सतत् आर्थिक विकास सुनिश्चित करना। इन लक्ष्यों तक पहुंचने में चीन महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है, लिहाजा भारतीय नीति-निर्माताओं को ऐसी विदेश नीति बनानी चाहिए, जो इन तीनों लक्ष्यों को पूरा करने में मदद करे। बेमतलब की प्रतिस्पर्द्धा अन्य देशों की ही मदद करेगी।