कांग्रेस और राहुल को इतना इतराने की जरूरत नहीं है

2018-07-01 0

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और उनके प्रवक्ता उप-चुनाव के नतीजे आने के बाद जितने खुश दिख रहे हैं उतना खुश होने की वजह उनक पास शायद नहीं है। विपक्षी एकता का फार्मूला कामयाब है। ये बात गोरखपुर-फूलपुर के संसदीय उप-चुनाव में ही साबित हो गई थी। कैराना में भी वही बात एक बार फिर दिखाई दी लेकिन मुद्दे की बात ये हे कि इन सभी जगहों पर कांग्रेस यूनियर सहयोगी की भूमिका में थी। 

इन उप-चुनावों में कांग्रेस को कर्नाटक, मेघालय और पंजाब में कुछ सफलताएं मिली हैं लेकिन वो ऐसी नहीं है कि कांग्रेस उन्हें ठोस उपलब्धि या भविष्य का संकेत मान सके।  सांसदों की संख्या के हिसाब से सबसे बड़ी और राष्ट्रव्यापी विपक्षी पार्टी होने के बावजूद बीजेपी विरोधी गठबंधन के विर्विवाद नेतृत्व का कांग्रेस का दावा अभी तक पुख्ता नहीं है। तीन राज्यों-राजस्थान, मध्य प्रदेश, और छत्तीसगढ़ में इसी साल होने वाले विधानसभा चुनाव उसकी अगली बड़ी परीक्षा होंगे और मोदी-शाह के लिए भी। 

कांग्रेस सिर्फ इस बात से खुश हो सकती है कि विपक्ष एकजुट होकर मोदी-शाह को हरा सकता है लेकिन बीजेपी की हार से कांग्रेस को क्या मिलेगा, इस सवाल का जवाब अभी साफ नहीं है। देश की जनता ने इतना ही आश्वासन दिया है कि सब कुछ उतना एकतरफा नहीं है जितना कुछ एक समय पहले लग रहा था। कर्नाटक में जेडी (एस ) से दुगनी से अधिक सीटें जीतने के बावजूद कांग्रेस ने सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी को रोकने के लिए कुमारस्वामी को सीएम बनवाया। लेकिन हालात यह हैं कि मंत्रालयों के बंटवारे पर दस से अधिक दिनों तक खींचतान चलती रही और वो आगे भी पूरी तरह खत्म नहीं होने वाली।

कहां जूनियर और कहां सीनियर पार्टनर होगी कांग्रेस?

अब तक विपक्षी एकता दो चीजों पर टिकी है... बीजेपी का डर और कांग्रेस की उदारता। जब तक मोदी-शाह का डर बना रहेगा और कांग्रेस उदारता दिखाती रहेगी ये सब मामूली खींचतान के साथ चलता रहेगा।  राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़, तीनों राज्यों में बीजेपी सत्ता में है और उसका सीधा मुकाबला कांग्रेस से है, वहां कांग्रेस जूनियर पार्टनर वहां नहीं होंगे जिनके कंधे पर चढ़कर वो बीजेपी को हराने की शेखी बघार सकें।  अगर कांग्रेस ये राज्य बीजेपी से छीन पाती है तो उसके पास खुश होने के ठोस कारण होंगे। लेकिन इन राज्यों में उसे सब कुछ अपने दम पर करना होगा। गुजरात में कांग्रेस का अल्पेश ठाकोर, हार्दिक पटेल और जिग्नेश मेवानी के कार्यकर्ताओं का बहुत बड़ा सहारा मिला था लेकिन इन तीन राज्यों में ऐसा कोई सहारा नहीं मिलने वाला। 

 जमीनी स्तर पर कांग्रेस की संगठन क्षमता और उसके कार्यकर्ताओं की प्रतिबद्धता अब तक संदेह के घेरे में रही है। एक-एक वोटर का हिसाब रखने वाली, हर बूथ पर बीसियों कार्यकर्ता खड़े करने वाली, पूरी तरह प्रशिक्षित और प्रतिबद्ध पन्ना प्रमुखों को उतारने वाली बीजेपी से उसे भिड़ना होगा। तब पता चलेगा कि किसमें कितना दम है। 

जब बात सीटों के बंटवारे की आएगी तो कांग्रेस से उम्मीद होगी कि वो मध्य प्रदेश में यूपी से लगी सीटों पर सपा-बसपा के लिए और छत्तीसगढ़ में गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के लिए सीटें छोड़ने में उदारता दिखाएगी।

कांग्रेस को 2019 में मुश्किल सवालों का सामना उन राज्यों में भी करना होगा जहां बीजेप के खिलाफ दूसरी पार्टियां भी मौजूद हैं, मिसाल के तौर पर पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र। इन राज्यों में ममता बनर्जी और शरद पवार जैसे नेताओं के साथ होने वाले सीट शेयरिंग समझौतों में भी कांग्रेस से उदारता दिखाने की उम्मीद की जाएगी।

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इम्तिहान और भी हैं

कई दिलचस्प स्थितियां उभरेंगी जिनसे बीजेपी विरोधी गठबंधन को निबटना होगा। मिसाल के तौर पर केरल में क्या होगा? वहां वामपंथियों और कांग्रसियों का सीधा मुकाबला है और बीजेपी रास्ते बनाने की कोशिश में जुटी है या फिर पश्चिम बंगाल जहां वामपंथी, तृणमूल, कांग्रेस और बीजेपी चारों मुकाबले में हैं। ऐसी चर्चाएं चल रही हैं कि बीजेपी को हराने के लिए राज्य में अलग फार्मूला तय किया जाएगा ताकि हर राज्य में सबसे मजबूत क्षेत्रीय पार्टी या कांग्रेस गठबंधन को नेतृत्व दे सके और उसी हिसाब से सीटों का बंटवारा हो। 

अभी इस सियासी सीरियल के कई एपिसोड बाकी हैं। राहुल प्रधानमंत्री पद के विपक्ष के दावेदार नहीं बन सके हैं और ऐसा होने के लिए उन्हें कई और टेस्ट पास करने होंगे। यह केवल उदारता दिखाने भर से संभव नहीं होगा।

क्या है कांग्रेस की कहानी?

बीजेपी के लिए यह कहना बहुत आसान होगा सभी ‘हिन्दू विरोधी दल एकजुट हो गए हैं। सभी भ्रष्ट और जातिवादी पार्टियां एक हो गई हैं। बीजेपी अपने तरीके से ये सब साबित करके ही 2014 में सत्ता में आई थी। 

बीजेपी के पास अब जनता को सुनाने के लिए एक कहानी है, कितने लोग उस पर विश्वास करें वो अलग बात है। इस कहानी के नायक गरीब परिवार से आने वाले नरेन्द्र दामोदरदास मोदी हैं जिन्होंने रात-दिन एक करके नेहरू-गांधी परिवार की वजह से बर्वाद हो गए देश को उबार लिया है। देश को उसका खोया हुआ गौरव मिल गया है। भारत एक महान् हिन्दू राष्ट्र और विश्व गुरु बनने की ओर अग्रसर है। भारत में पाकिस्तान (पढ़े मुसलमान) की हिमायत करने वाले लोगों के लिए कोई जगह नहीं है। वंशवाद और भ्रष्टाचार खत्म हो गया है। इतिहास की गलतियां सुधारी जा रही हैं। 2022 तक न्यू इंडिया बना लिया जाएगा। 

इसके बरअक्स विपक्ष न तो बीजेपी के सबसे मजबूत कार्ड हिन्दुत्व की कोई काट खोज पाई है और न ही अपनी कोई नई कहानी बुन पाई है। वो अभी मोदी के खिलाफ गोलबंद हुए तरह-तरह के लोगों के झुंड की तरह दिख रही है। मोदी जब अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव की तर्ज पर कैम्पेन करेंगे, जब उनको सुपरहीरो बनाने वाली एजेंसियां बढ़ेंगी, जब सबसे अमीर पार्टी अपने खजाने खोलेगी तब नजारा उप-चुनावों जैसा नहीं होगा।

विपक्ष को और राष्ट्रव्यापी पार्टी कांग्रेस को एक पॉजिटिव एजेंडा के साथ मैदान में उतरना होगा। बीजेपी समर्थक पूछते हैं कि ‘मोदी नहीं तो कौन’ इसका जवाब विपक्षी गठबंधन के पास नहीं है, कर्नाटक में कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह की साझा तस्वीर पर लोग यही चुटकी ले रहे थे कि पीएम पद के नौ दावेदार एक साथ दिख रहे हैं। 

‘‘मोदी नहीं तो कौन’’ अपने-आप में एक बड़ा सवाल है, लेकिन उससे ज्यादा बड़ा सवाल है-‘‘हिन्दुत्व नहीं तो क्या’’ इसका जवाब कांग्रेस या विपक्ष के पास फिलहाल नहीं है, वे खुश होने से पहले बड़े मुद्दों और सवालों के जवाब लेकर जनता के सामने जाएं।

राहुल गांधी ने मोदी के पीछे-पीछे मंदिर में माथा टेकने के अलावा ऐसा अब तक कुछ नहीं किया है। जिससे लगे कि उनके पास मोदी-शाह से निबटने का कोई नुस्खा है। कांग्रेस की उम्मीदें अपनी नीतियों और अभियान की कामयाबी पर नहीं बल्कि बीजेपी की नाकामियों पर टिकी हैं।.

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