मनरेगा मजदूर न्यूनतम मजदूरी से कम पैसे में काम करने को मजबूर 

2019-11-01 0


ग्रामीण भारत की तस्वीर बदलने में सक्षम महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत मजदूरों को काफ़ी कम पैसे मिल रहे हैं

2005 में जब राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून पारित हुआ था तो लगा था यह योजना ग्रामीण भारत की तस्वीर बदल देगी। 2006 में यह योजना लागू हुई और लागू होने के कुछ ही समय के अंदर ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर इसने गहरी छाप छोड़ी।

बाद में इस योजना के आगे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का नाम जोड़ दिया गया। उसके बाद से आम बोलचाल की भाषा में इसे मनरेगा कहा जाता है। मनरेगा ने न सिर्फ आम लोगों को अपने गांवों और अपने इलाके में रोजगार दिया बल्कि इसने दूसरे कई क्षेत्रें में काम करने वाले श्रमिकों की मजदूरी में बढ़ोतरी और उनकी कामकाजी परिस्थितियों में सुधार में भी योगदान दिया।

मनरेगा की वजह से ग्रामीण भारत में बुनियादी ढांचे का भी विकास हुआ। इसके तहत सौ दिन का निश्चित रोजगार मिलने की वजह से गांवों में बहुत सारे उत्पादों की मांग बढ़ी और इससे पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था में मांग और आपूर्ति के पहिये को गतिमान बनाए रखने में मदद मिली।

लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि मनरेगा का प्रभाव धीरे-धीरे कम करने की दिशा में काम हो रहा है। केंद्र सरकार ने इस योजना के तहत मजदूरी की दर में काफी कम बढ़ोतरी की है। हर राज्य का औसत निकाला जाए तो यह बढ़ोतरी सिर्फ 2-6 फीसदी की है।

कुछ राज्य ऐसे भी हैं जहां मनरेगा की मजदूरी में सिर्फ एक रुपये की बढ़ोतरी की गई है। पंजाब और हिमाचल प्रदेश ऐसे राज्यों में शामिल हैं। जबकि मिजोरम में यह बढ़ोतरी 17 रुपये की है।

कुल मिलाकर छह राज्य ऐसे हैं जहां मनरेगा की मजदूरी में कोई बढ़ोतरी नहीं की गई है। इन राज्यों में गोवा, कर्नाटक, केरल और पश्चिम बंगाल शामिल हैं। इनके अलवा अंडमान द्वीपसमूह और लक्षद्वीप में भी मनरेगा की मजदूरी में कोई बढ़ोतरी नहीं की गई है।

इस वजह से आज स्थिति यह है कि देश के कुल 33 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में मनरेगा के तहत मजदूरी कर रहे श्रमिकों की मजदूरी कृषि क्षेत्र की न्यूनतम मजदूरी से भी कम के स्तर पर है। यह बात नरेगा संघर्ष मोर्चा के एक विश्लेषण में सामने आई है।

मोर्चा के विश्लेषण से पता चलता है कि कुछ राज्य ऐसे हैं जहां कृषि क्षेत्र की न्यूनतम मजदूरी और मनरेगा की मजदूरी में काफी फर्क है। गोवा में कृषि क्षेत्र की जो न्यूनतम मजदूरी है, उसके मुकाबले मनरेगा मजदूरों को सिर्फ 62 फीसदी मजदूरी ही मिल रही है।

60 से 70 फीसदी के दायरे में आने वाले राज्यों में गुजरात, बिहार और ओड़िशा शामिल हैं। दूसरे कई प्रमुख राज्यों में स्थिति थोड़ी ही ठीक है। सिर्फ छह राज्य ऐसे हैं जहां मनरेगा की मजदूरी कृषि क्षेत्र की न्यूनतम मजदूरी के 90 फीसदी से थोड़ा अधिक है।

इस अध्ययन से यह बात भी निकलकर सामने आई कि मनरेगा के तहत सिर्फ नगालैंड ही ऐसा एकमात्र राज्य है जहां मनरेगा के मजदूरों को कृषि क्षेत्र की न्यूनतम मजदूरी से अधिक पैसे मिल रहे हैं। नगालैंड में कृषि क्षेत्र की न्यूनतम मजदूरी 115 रुपये है। जबकि मनरेगा के मजदूरों को 192 रुपये की मजदूरी मिल रही है।

मनरेगा के तहत अभी सबसे अधिक मजदूरी गोवा में दी जा रही है। गोवा में मनरेगा के तहत काम करने वाले एक श्रमिक को एक दिन की मजदूरी 254 रुपये दी जा रही है। लेकिन गोवा में कृषि क्षेत्र की न्यूनतम मजदूरी 405 रुपये प्रति दिन है। मनरेगा के तहत सबसे कम मजदूरी बिहार में 176 रुपये प्रति दिन दी जा रही है।

एक तथ्य यह भी है कि लगातार मनरेगा के तहत मजदूरी बढ़ाने की मांग उठी है। कई समितियों ने भी यह सिफारिश की है कि मनरेगा की मजदूरी बढ़नी चाहिए। अनूप सतपथी समिति ने यह सिफारिश की थी कि मनरेगा की न्यूनतम मजदूरी 375 रुपये तय की जानी चाहिए। लेकिन अब तक इन सिफारिशों पर ध्यान नहीं दिया गया है।

पहले से ही मनरेगा के तहत काम करने वाले मजदूर भुगतान में देरी की समस्या का सामना कर रहे हैं। ऐसे में मजदूरी में अपेक्षित बढ़ोतरी नहीं करके सरकार ने एक तरह से संकेत दिया है कि मनरेगा मजदूरों के हकों और हितों को लेकर वह कितनी गंभीर है।

कहां तो मनरेगा पर संघर्ष करने वाले संगठन 600 रुपये प्रति दिन की मजदूरी मांग रहे हैं और कहां उन्हें कृषि क्षेत्र की न्यूनतम मजदूरी से भी कम पर काम करने को बाध्य होना पड़ रहा है। ऐसे में इस महत्वकांक्षी योजना का भविष्य क्या होगाइसे लेकर तरह-तरह के सवाल पैदा हो रहे हैं।



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