ऐसे ही मोहनदास से महात्मा नहीं बन गये गांधाीजी, बहुत त्याग करने पड़े---

महात्मा गांधाी का जीवन भी कसौटी पर कसा गया है, जिसमें तर्क भी दिये गये हैं, लेकिन उनके अंतर्निहित भावों की गहराई का अध्ययन किया जाए तो स्वाभाविक रूप से तस्वीर दिखाई देती है, वह अनुकरणीय है, भारत के संस्कारों से परिपूर्ण है।
महात्मा गांधी का जीवन भी कसौटी पर कसा गया है, जिसमें
तर्क भी दिए गए हैं, लेकिन उनके अंतरनिहित भावों की गहराई का अध्ययन किया जाए तो
स्वाभाविक रूप से जो तसवीर दिखाई देती है, वह अनुकरणीय है, भारत के
संस्कारों से परिपूर्ण है।
भारत परंपराओं की भूमि रही है। इन परंपराओं को जीवन में आत्मसात करने
वाले व्यत्तिफ़त्वों की भी लम्बी श्रृंखला है। जिन्होंने इन परम्पराओं को अपने
जीवन में उतारा है, वे निश्चित रूप से महान भारत की संस्कृति को ही जीते दिखाई दिए हैं।
इसी कारण वर्तमान में उनके अनुसरणकर्ता भी भारी संख्या में दिखाई देते हैं। वे
निःसंदेह महान आत्मा के रूप में आज भी हमारा मार्गदर्शन करने में सक्षम हैं। इस
पूरी धारणा को आत्मसात करने वाले मोहनदास भारत के साथ इस प्रकार से एक रूप हो गए
थे कि वे मोहनदास से महात्मा बन गए। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम भी महात्मा
गांधी के जीवन से प्रेरणा प्राप्त करके भारत के संस्कारों के साथ तादात्म्य
स्थापित कर सकते हैं। हालांकि यह सही है कि हर व्यत्तिफ़ का जीवन एक कसौटी पर परखा जाता है, महात्मा गांधी का जीवन भी कसौटी पर कसा गया है, जिसमें
तर्क भी दिए गए हैं, लेकिन उनके अंतरनिहित भावों की गहराई का अध्ययन किया जाए तो
स्वाभाविक रूप से जो तसवीर दिखाई देती है, वह अनुकरणीय है, भारत के
संस्कारों से परिपूर्ण है।
हम जानते हैं कि महात्मा
गांधी का जीवन पूरी तरह से स्वदेशी के प्रति आग्रही रहा। जब हम स्वदेश की बात करते
हैं तो स्वाभाविक रूप से उसका प्रकट स्वरूप यही होता है कि अपना देश ही सब कुछ है।
उसके अलावा और कोई चिंतन की दिशा न तो होना चाहिए और न ही उसकी जरूरत ही है।
महात्मा गांधी स्वदेश की भावना को हर भारतवासी के अंदर देखना चाहते थे। उन्हें
विदेश से कोई लगाव नहीं था। वे कहते थे कि मैं एक ऐसे भारत का निर्माण करना चाहता
हूं, जिसमें छुआछूत न हो, साम्प्रदायिकता न हो। यहां तक कि मांस
मदिरा के लिए भी कोई स्थान न हो। इतना ही नहीं वे चाहते थे कि भारत में गौहत्या
पूर्णतः निषेध हो। सब ओर राम राज्य जैसा ही दृश्य दिखाई दे। वे वंदे मातरम के भी
सबसे बड़े हिमायती थे। ये सभी बातें वास्तव में भारत के विकास की
अवधारणा पर ही आधारित थे। इसलिए महात्मा गांधी का सम्पूर्ण जीवन
भारतीयता की प्रतिमूर्ति ही कहा जाए तो कोई अतिशयोत्तिफ़ नहीं कही जाएगी। सवाल यह
आता है कि क्या भारत में महात्मा गांधी के सपनों को स्वीकार किया जा रहा है?
निश्चित
रूप से इस बारे में यही कहा जा सकता है कि विगत सत्तर सालों में गांधी के विचारों
की जिस प्रकार से हत्या की गई है, उसके कारण हमारा देश बहुत पीछे ही गया।
आज जरूर ऐसा दिखाई दे रहा है कि देश फिर से गांधी के विचारों को आत्मसात करने की
दिशा में कदम बढ़ा रहा है।
एक बार गांधीजी मुम्बई मेल से तीसरी श्रेणी के डिब्बे मे यात्र कर
रहे थे। उनका ध्यान एक यात्री की ओर गया जो कि बार-बार खांस रहा था और साथ ही
ट्रेन के अंदर ही थूक रहा था। ये देख गांधी जी दो बार तो शांत बैठे रहे, पर
वह व्यत्तिफ़ जब तीसरी बार थूकने लगा तो उन्होंने अपने हाथ उसके मुख के नीचे रख दिये, जिससे सारा कफ उनके हाथों में गिर पड़ा। बापू ने फौरन उसे डिब्बे के
बाहर फेंककर हाथ धो डाले। ये देख वह यात्री बड़ा लज्जित हुआ और उसने गांधीजी से
क्षमा मांगी। तब उन्होंने उसे समझाते हुये कहा कि देखो भाई ये गाड़ी अपनी ही है।
यदि इसका दुरुपयोग हुआ तो हानि अपनी ही होगी। दूसरी बात ये कि गाड़ी के अंदर थूकने
से बीमारी फैलेगी सो अलग। इसलिये मैंने कफ को यहाँ गिरने नहीं दिया। गांधी जी
चाहते थे कि अपने देश को स्वच्छ बनाने के लिए हर व्यत्तिफ़ स्वयं प्रेरणा से पहल
करे, आज देश इस बारे में चिंतन भी कर रहा है और उनके सपने को साकार करता
हुआ भी दिखाई दे रहा है।
स्वच्छ भारत मिशन का जो
अभियान पांच वर्ष पूर्व प्रारंभ हुआ था, आज वह परवान चढ़ चुका है। उसके परिणाम
भी दिखने लगे हैं। देश में स्वच्छता भी दिखने लगी है। इससे यही कहा जा सकता है कि
भारत की जनता अब महात्मा गांधी के सपने को साकार करने की दिशा में आगे आ रही है।
इसके अलावा महात्मा गांधी मतांतरण के घोर विरोधी थे, वे कहते थे कि
कोई भी हिन्दू जब अपने धर्म को छोड़कर दूसरे धर्म को ग्रहण करने की दिशा में जाता
है, तो वह दूसरे धर्म को तो अपनाता ही है, साथ ही भारत का
दुश्मन भी बन जाता है। इसे सरल शब्दों में कहा जाए तो यही भाव प्रदर्शित करता है
कि हिन्दू ही भारत को बचा सकता है और हिन्दू ही भारत से सर्वाधिक प्रेम करता है।
वास्तव में आज हिन्दू की परिभाषा को संकुचित भाव के साथ प्रस्तुत करने की
परिपाटी-सी बनती जा रही है, जबकि हिन्दू या हिन्दुत्व के अर्थ में
कोई संकुचन न तो है और न ही भविष्य में कभी हो सकता है। जिस प्रकार हम ब्रिटेन के
नागरिकों को अंग्रेज, जापान के नागरिक को जापानी, चीन के नागरिक को चीनी और रूस के
नागरिक को रसियन कहते हैं, ठीक उसी प्रकार से भारत यानी
हिन्दुस्थान के नागरिक को हिन्दू कहते हैं। हिन्दू इस देश की नागरिकता है।
महात्मा गांधी वास्तव में भारत के मानबिन्दुओं की रक्षा की ही बात
करते थे। वे गौरक्षा को देश के सांस्कृतिक विकास का महत्वपूर्ण आधार ही मानते थे।
गाय को माता का दर्जा यूं ही नहीं मिला, इसके पीछे एक सांस्कृतिक दर्शन है।
भगवान ने भी अपने आपको गाय की सेवा के लिए समर्पित किया है, इसलिए भगवान
श्रीकृष्ण गोपाल कहलाए। वास्तव में गाय की रक्षा में ग्रामीण मजबूती का पूरा
अर्थशास्त्र छिपा हुआ है।
अहिंसा, धर्मनिरपेक्षता के साथ-साथ गांधीजी के जीवन में और भी ढेरों बातें हैं जिन्हें ग्रहण किया जा सकता है। वे अपने जीवन में जिन बातों को स्वीकार करते थे, वैसा ही देश की जनता से अपेक्षा भी करते थे। अब जरा विचार करें कि गांधी जी इन बातों को गहराई तक क्यों उतारना चाहते थे? क्या इसमें उनका कोई निहित स्वार्थ था? नहीं। वे भारत को ठोस धरातल प्रदान करना चाहते थे। इसलिए हमें गांधी जी के जीवन से प्रेरणा लेना चाहिए।