कहां चली गईं भारत की कामकाजी महिलाएं?

2019-11-01 0

गांव में संयुक्त  परिवारों की कामकाजी महिला अपने बच्चों की जिम्मेदारी घर की दूसरी महिलाओं को सौंप कर काम पर निकल सकती है। लेकिन शहर में रहने वाली महिलाओं के पास यह अवसर नहीं होता है

कई महिलाओं ने अपनी मां के आदर और प्रेम की वजह से, परिवार की जिम्मेदारियों की वजह से कैरियर त्याग, घर- गृहस्थी को अपनाया होगा। ऐसी कईं माताओं से जब आप बात करेंगे तो उनका यह भी कहना होगा कि उन्हें अवसर खोने का कोई खेद या दुख नहीं है, और नौकरी छोड़कर घर पर रहने का फैसला उनका खुद का है। लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि महिलाओं के इस चयन के पीछे भी हमारे समाज की अर्थव्यवस्था और कई सच्चाइयां छुपी हैं।

जैसे- औरतों के लिए उपयुत्तफ़ रोजगार का अभाव, मातृत्व लाभ की कमी, प्राइवेट डे-केयर सेवाओं पर अविश्वास, शिशु पालन में घर से सहयोग न मिलना, या कार्यस्थल पर असुरक्षित महसूस करना। यह भी संभव है कि काम करने की अभिलाषा रखने वाली औरतों को घर-ससुराल से काम करने की इजाजत नहीं मिलती।

महिलाओं की भागीदारी 1994 से लगातार घट रही है

हालांकि पिछले कुछ वर्षों में औरतों ने उच्च शिक्षा प्राप्त कर महिला वर्ग से संबंधित रूढ़िवादी मान्यताओं को चुनौती दी है, महिलाओं की श्रम बल में भागीदारी 1994 से घटी है। औरतों की सामान्य गतिविधियों की स्थिति के आंकड़े जोड़कर राष्ट्रीय सांख्यिकीय कार्यालय ने महिला श्रम बल में भागीदारी के अनुमान जारी किये हैं (आकृति-1), जिस में उन महिलाओं को शामिल किया गया है जो या तो कार्यरत थीं या जो (काम और पारिश्रमिक की मौजूदा स्थितियों में) सक्रिय रूप से काम तलाश रही थीं।

कामकाजी महिलाएं समाजशास्त्रियों के लिए बनीं पहेली

समाज का अध्ययन करने वालों की यह सोच थी कि जैसे औरतें शिक्षा हासिल करेंगी, वैसे ही वे स्वतंत्र निर्णय लेते हुए घर से निकलेंगी और साथ ही फैक्टरी की जमीन औरतों को काम पे देखने के लिए परिपक्व होगी। परन्तु भारत के आंकड़ें एक पहेली बन, समाजशास्त्रियों को सता रहे हैं। यहां महिलाओं की भागीदारी का ट्रेंड इस धारणा के विपरीत, घटा है।

पड़ोसी देशों में भी भारत का अनुभव अलग रहा है- जनसांख्यकीय और स्वास्थ्य सर्वेक्षण (डी। एच। एस।) से ये मालूम पड़ता है कि जहां बांग्लादेश में 25-39 उम्र की लगभग 40» औरतें 2014 में कार्यरत थीं, वहीं पश्चिम बंगाल में इस आयु वर्ग की 28-6» महिलाएं 2015 में कार्यरत थीं। देश की आधी आबादी में से अधिकतर औरतों को स्वेच्छित काम न मिलना समाज में लिंग आधारित असमानता की अलामत है। ऐसी परिस्थिति में ‘सबका विकास’ होना असंभव है।

जिन्हें दूसरे डेटा स्रोत से यह सत्यापित किया जा सकता है कि शिक्षा की निचली सीढ़ी पर खड़ी महिलाएं घरेलू आय की पूर्ति हेतु काम तलाशतीं हैं। शिक्षा प्राप्ति अनुसार 25-39 आयु वर्ग की महिलाओं की कार्य बल में भागीदारी भी यही कहानी बतलाते हैं, निरक्षर औरतें ही सबसे अधिक कार्यरत नजर आती हैं। ग्रामीण क्षेत्रें में मनरेगा ने भी औरतों को कार्य बल में लाने की भूमिका निभाई है क्योंकि 2015-16 महिलाओं की मनरेगा में भागीदारी 55% रही।

वहीं कॉलेज स्नातक होने पर ही औरतों को नौकरी के आकर्षक अवसर मिल पाते हैं। और 10-11 वर्ष (माध्यमिक शिक्षा) पढ़ाई पूरी करने वाली महिलाओं की कार्य बल में भागीदारी अन्य शिक्षा-समूहों के मुकाबले सब से कम नजर आती है।

सवाल ये उठता है कि माध्यमिक शिक्षा प्राप्त करने पर औरतों को उपयुत्तफ़ रोजगार क्यों नहीं मिल रहा है? फ्रलेचर, पांडे और मूर (2017) राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण (एन-एस-एस-) 68वां दौर, 2011-12 का प्रयोग कर यह दावा करते हैं कि कई महिलाओं को उपलब्ध काम की शर्तें मंजूर नहीं हैं। 73% सर्वेक्षण में शामिल होने वाली, 15-70 आयु की महिलाओं (जो स्कूल में नामांकित नहीं थी) का कहना था कि वे अंशकालिक काम करना पसंद करती, लेकिन केवल 17% महिलाएं ही इस तरह का काम करती पाईं गईं। क्लासेन और पिएटर्स (2015) अपने शोध में इस बात पर जोर देते हैं कि शहरी महिलाओं का इच्छानुसार नौकरी मिलना कठिन हो गया है।

महिलाओं के लिए चुनिंदा क्षेत्र

श्रम बाजार में डिमांड और सप्लाई के असंतुलन का एक कारण यह भी हो सकता है कि औरतें अर्थव्यवस्था के कुछ क्षेत्रें में रहना पसंद करती हैं, जैसे- शिक्षा, गारमेंट्स सैक्टर, मनरेगा और घरेलू सेवाएं। यहां के नियोजन के निबंधन को परिवार जन महिलाओं के अनुकूल समझते हैं, और अन्य महिलाओं की हाजरी में माहौल भी सुरक्षित जान पड़ सकता है। सरकार को इन क्षेत्रें में रोजगार तो मुहैया करना ही होगा, साथ ही यह विचार भी करना होगा कि अन्य क्षेत्रें को महिलाओं के अनुकूल कैसे बनाया जा सकता है।

अफरीदी, डिंकलमन और महाजन (2016) के शोध में ये पाया गया कि 1987-2009 के बीच जब ग्रामीण औरतों की श्रम बल में भागीदारी घटी, तब घरेलू काम को प्राथमिक गतिविधि बताने वाली विवाहित महिलाओं की दर भी बढ़ी। इस दौर में अधिक महिलाए ‘स्कूल में दाखिल भी हुईं, ऐसा ज्ञात होता है कि ‘विवाह के बाजार’ में पढ़ी-लिखी दुल्हन की मांग बढ़ी होगी। निश्चित रूप से एक शिक्षित मां अपने बच्चों की प्रगति पर बेहतर निगरानी रख सकती है, और यही बच्चे पढ़ कर, विकासशील अर्थव्यवस्था का लाभ उठाते हुए परिवार का सहारा बनेंगे । किन्तु इन आंकड़ों से यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि औरतें स्वयं घरेलू काम का चयन कर रही हैं, घर-परिवार का दबाव औरतों के निर्णयों को प्रभावित करता है।

परिवार की प्रतिष्ठा मतलब महिलाएं

भारतीय समाज में परिवार की प्रतिष्ठा, घर में महिलाओं, बच्चियों और औरतों पर है। हमें यह बचपन से ही बताया जाता है कि अच्छे घर की लड़कियां घर की मान-मर्यादाओं का पालन करती हैं। हम सारिणी-1 में माध्यमिक स्तर तक पढ़ी महिलाओं का फिर आ“वान करते हैं, जिनके परिवार की आर्थिक स्थिति निरक्षर और पांचवीं कक्षा तक पढ़ीं औरतों के परिवार से बेहतर है (आकृति-2)। यह एक कारण हो सकता है कि जब पति की आय घर चलाने के लिए पर्याप्त होती है, ये औरतें लक्ष्मण रेखा नहीं लांघती हैं।

यह प्रमेय आज भी प्रासंगिक हो तो सकता है लेकिन इस तर्क से गुत्थी पूरी तरह से नहीं सुलझती। यह स्पष्ट नहीं है कि उच्च स्तरीय शिक्षा प्राप्त करने वाली, उच्च आय वर्ग और उच्च जाति की महिलाएं अपने घरों की प्रतिष्ठा को चोट पहुंचाते हुए रसोई से कैसे निकल रही हैं, जब माध्यमिक शिक्षा प्राप्त कर कई बहनें प्रतिष्ठा के लिए सबकुछ कुर्बान कर रही हैं।

विवाहित औरत से सास, ससुर, पति और समाज एक सवाल पूछता हैः तुम काम करने निकलोगी, तो घर और बच्चे कौन संभालेगा? ग्रेजुएट महिलाओं के पास शायद इस सवाल का जवाब है, वे इतना कमाने योग्य हो सकती हैं कि किसी अन्य महिला को घरेलू सहायिका के रूप में नियुत्तफ़ करें। लेकिन यदि मैट्रिक पास कर किसी महिला की अनुमानित आय घरेलू सहायिका के वेतन के लिए पर्याप्त न हो, तो वह न चाहते हुए भी घर और रसोई संभालेगी।

गौरतलब है कि प्रत्येक शिक्षा वर्ग की ग्रामीण महिलाओं की कार्य बल में भागीदारी शहरी महिलाओं के बनिस्पत ज्यादा है। यह कहना ठीक होगा कि गांव में संयुत्तफ़ परिवारों की कामकाजी महिला अपने बच्चों की जिम्मेदारी घर की अन्य महिलाओं को सौंप सकती है। यह विकल्प एकल परिवारों की शहरी महिलाओं के पास अक्सर नहीं होता, और यदि उनकी क्वालीफिकेशन पर लाभप्रद रोजगार दुर्लभ हो, या कार्य-स्थल पर डे-केयर जैसी सुविधाएं उपलब्ध न हो, तो घर का काम ही उचित विकल्प होगा। अंत में, शहर की मेहनतकश महिलाएं, जो प्राथमिक शिक्षा के आगे नहीं बढ़ पाई, घर की मौलिक आवश्यकताओं के लिए कार्यरत रहीं।

हालांकि मातृत्व लाभ (संशोधन) अधिनयम ने 50 से अधिक कर्मचारी रखने वाले संस्थानों के लिए क्रेश सुविधा अनिवार्य की है, इस अधिनियम के दायरे में केवल औपचारिक क्षेत्र में काम करने वाली महिलाएं आती हैं, जो महिला कार्य बल में 5-9% की हिस्सेदारी रखती हैं। जिन औरतों के लिए रोजगार की संभावनाएं अनौपचारिक क्षेत्र में ही चमक सकती हैं, उनके लिए सरकारी मातृत्व सेवाएं और घर के सदस्यों का सहयोग, वह कड़ी बन सकती जो रसोई और फैक्ट्री के बीच एक दुरुस्त पुल बांध दे। साथ ही विभिन्न क्षेत्रें में लिंग पर आधारित आरक्षण से औरतें अर्थव्यवस्था के ‘मर्दाना कक्ष’ में भी प्रवेश कर सकती हैं। इससे औरतों को रोजगार के अवसर तो मिलेंगे ही, अपरंपरागत कार्य स्थलों पर जब औरतें पाई जाएंगी तो ‘जनाना रोजगार’ की परिभाषा भी बदलेगी।



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