मंदिर मसला तो हल हो गया लेकिन खराब अर्थव्यवस्था का हल मोदी जी को ढूंढ़ना ही होगा

2019-12-01 0


भारत की अर्थव्यवस्था अपने ठहराव की जकड़ को तोड़कर आगे नहीं बढ़ती तो मोदी का कद छोटा हो सकता है। इस गिरावट को थामने के लिए उन्हें बडे उपाय सोचने होंगे या फिर वे भावनाएं भड़काने के जोखिम की ओर मुड़ सकते हैं।

प्रधनमंत्राी नरेंद्र मोदी ने अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट के पफैसले के बाद जो संक्षिप्त और मधुर भाषण दिया उसमें उनका कोई घोर विरोधी भी शायद ही कोई खोट निकाल पाए। उस भाषण के तीन स्वर थे। एक तो यह कि सुप्रीम कोर्ट ने बेहद लंबे समय से अटके एक विभाजनकारी मसले का निपटारा कर दिया है और अब समय है आगे बढ़ने का, अतीत के ‘भय, कड़वाहट और नकारात्मकता’ को भूल जाने का।

दूसरा स्वर यह है कि 9 नवंबर की तारीख खास महत्व रखती है क्योंकि इस दिन शीतयु( के दौर में दुनिया को बांटने वाली बर्लिन की दीवार को गिराए जाने की ;30वींद्ध वर्षगांठ भी मनाई गई। बर्लिन की दीवार का उदाहरण उन्होंने अयोध्या के प्रसंग में नहीं बल्कि करतारपुर साहिब गलियारे के उद्घाटन के प्रसंग में ही दिया और यह कहा कि इसके लिए भारत और पाकिस्तान, दोनों ने अपने झगड़े भूलकर मिलकर काम किया।

और तीसरा स्वर मोदी के इस बयान से उभरा कि सुप्रीम कोर्ट ने राम मंदिर बनाने का आदेश दे दिया है इसलिए अब सभी नागरिकों का दायित्व है कि वे राष्ट्र निर्माण के काम में खुद को समर्पित कर दें। उन्होंने ‘विविध्ता में एकता’ का बार-बार जिक्र किया और अंत में ईद-उल-मिलाद की बधई दी।

यह सब तो ठीक है। अब हम उनके बयान के राजनीतिक आशय की बात करेंगे। उन्होंने जो यह कहा कि ‘मंदिर तो हो गया, अब राष्ट्र निर्माण का समय है’, वह उनकी सरकार और उनकी पार्टी की राजनीति में अगले कदमों का संकेत देता है। और कुछ अहम सवालों को भी उभारता है।

बेहद उग्र हिंदू राष्ट्रवाद के साथ जनकल्याणवाद के मेल से उन्होंने 2019 के चुनाव में वोट समेट लिये। अनुच्छेद 370 और राम मंदिर का एजेंडा पूरा हो जाने के बाद कुछ कदम समान आचार संहिता की ओर भी बढ़ा लिये गए हैं ;तीन तलाक पर रोक लगाकरद्ध, तो अब उस एजेंडा में बाकी क्या बचा है? दूसरी बार सत्ता में आने के छह महीने से भी कम समय में मोदी सरकार और भाजपा ने लगभग दशकों पुराने अपने राष्ट्र्वादी एजेंडा का हर वह काम कर डाला है जिसका वादा वह हिंदुओं से करती रही है। अब सवाल यह है कि आगे वे क्या करेंगे?

मोदी ‘अच्छे दिन’, न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन, विकास और रोजगार देने के वादे करके 2014 में सत्ता में आए थे। इनमें से ज्यादातर वादा पूरा नहीं हुआ है। बल्कि पिछले तीन साल में अर्थव्यवस्था और रोजगार की स्थिति बदतर हुई है। 2019 में हिंदू राष्ट्रवाद और गरीबों के खातों में करोड़ों रुपये डालकर उन्होंने इतने वोटरों को अपनी आर्थिक बदहाली भूल जाने के लिए बहला लिया कि दूसरी बार जनादेश हासिल कर सकें। अब आगे वे क्या करेंगे?

हालात को मुकम्मल बनाने के लिए उनकी सरकार को कश्मीर में प्रतिबंधें में छूट देकर वहां स्थिति सामान्य बनाने, आगे चलकर पाकिस्तान के साथ तनाव कम करने, और ऐसा कुछ करने की जरूरत है कि लोग किसी और विदेशी शत्राु के खिलाफ उग्र न हों। संभवतः चीनी आयातों के खिलापफ एक तरह का आर्थिक राष्ट्रवाद काम का हो सकता है। लेकिन इसे बालाकोट में बमबारी करने, सर्जिकल स्ट्राइक करने जैसी आक्रामकता तक न पहुंचने देना होगा।

मोदी ने अपना राजनीतिक कद ऊंचा करने के लिए अपने विदेश दौरों और वार्ताओं का शानदार इस्तेमाल किया है। यही नहीं, उन्होंने अपने वोटरों में यह विश्वास भी पैदा किया है कि दूसरे देशों के नेता उन्हें उन तमाम भारतीय नेताओं के मुकाबले कापफी ऊंचा मानते हैं, जिनके नाम उन्हें याद हों। अब, मोदी इतने होशियार तो हैं ही कि उन्हें यह इल्म हो कि यह सब ज्यादा दिन नहीं टिकेगा अगर भारत की अर्थव्यवस्था का गतिरोध्, जो अब असाध्य जैसा बनता जा रहा हैखत्म नहीं होता।

इसलिए, 9 नवंबर 2019 हमारी घरेलू राजनीति के लिए भी एक अहम तारीख है। क्योंकि अब मतदाता मोदी से यह अपेक्षा करेंगे कि वे उनके आर्थिक उद्धार पर ध्यान देंगे, ‘अच्छे दिन’ लाने का अपना पुराना वादा याद करें।

अगर इस गिरावट को रोकने के बड़े उपाय और बड़ा नजरिया आपके पास नहीं होगा, तो आप भावनात्मक उभार को ही हवा देने के दूसरे तरीके खोजने में जुट जाएंगे- किसी और ध्र्मस्थल, एनआरसी आदि को, या पिफर पाकिस्तान तो दरवाजे पर बैठा ही है। लेकिन महाराष्ट्र और हरियाणा से भी जो निराशा हाथ लगी है वह यही दिखाती है कि मतदाता उसी पुराने हिंदू राष्ट्र्वादी पफार्मूले से ऊब चुके हैं। इन दोनों राज्यों में भाजपा का प्रदर्शन उम्मीद से कम रहा, हालांकि वहां मतदान अनुच्छेद 370 पर एक्शन के मात्रा 11 सप्ताह के भीतर हुए थे।

अब आप आशावादी होकर मान सकते हैं कि मोदी और उनकी पार्टी अर्थव्यवस्था पर ध्यान केंद्रित करेगी। लेकिन, अगले ही महीने झारखंड में और फिर जल्दी ही दिल्ली में चुनाव होने वाले हैं, यानी यह सिलसिला जारी रहेगा। और आप तो जानते ही हैं कि यह ऐसा राजनीतिक नेतृत्व है, जो पंचायत चुनाव को भी हल्के में नहीं लेता। 



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