आर्थिक रूप से मजबूत भारत दुनिया के सबसे भूखे देशों की सूची में क्यों?
हंगर इंडेक्स में भारत के लगातार पिछड़ते चले जाने का मतलब है कि पोषाहार देने की सरकार की योजनाएं असफ़ल हो चुकी हैं और उनकी समीक्षा करने की जरूरत है।
सरकार विभिन्न प्रकार की सामाजिक योजनाएं चलाकर मीडिया के माध्यम से
देश के अंदर भले ही वाहवाही लूट ले, लेकिन, सामाजिक विकास
के मामले में जमीनी हकीकत दिन-प्रतिदिन खराब होती जा रही है। इस बात की पुष्टि इसी
माह जारी ग्लोबल हंगर (भुखमरी) इंडेक्स ने की है, जिसके अनुसार
भारत अपने पिछले साल की रैंकिंग की तुलना में इस साल और निचले पायदान पर खिसक गया
है।
पिछले साल (2018) 132 देशों के लिए जारी हंगर इंडेक्स में
भारत की पोजीशन 103वीं थी, जो कि इस साल (2019) 117 देशों के बीच 102वीं
है। भारत के लिए शर्मिंदगी की बात यह भी है कि उसकी स्थिति पड़ोसी देशों-
बांग्लादेश, नेपाल और पाकिस्तान से भी खराब है, जिनकी अर्थव्यवस्था
भारत से बहुत छोटी है और जिन्हें भारत की तुलना में पिछड़ा माना जाता है।
इस लेख में यह समझने की कोशिश की गयी है कि भारत के ग्लोबल हंगर
इंडेक्स (जीएचआइ) में पिछड़ने के क्या दुष्परिणाम होंगे और ऐसे कौन से कारण हैं,
जिनकी
वजह से भारत में भुखमरी की स्थिति सुधर नहीं रही है?
सबसे पहले ग्लोबल हंगर इंडेक्स और उसे मापने के तरीकों को समझते हैं।
ग्लोबल हंगर इंडेक्स की अवधारणा
ग्लोबल हंगर इंडेक्स एक अंतर्राष्ट्रीय मानक है, जो
वैश्विक, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर भुखमरी को व्यापक तरीके से मापता है।
इस इंडेक्स के माध्यम से भुखमरी का विभिन्न देशों, क्षेत्रें एवं
देश के अंदर राज्यों के बीच तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है, ताकि इससे
निपटने के लिए व्यापक नीति बनायी जा सके। ग्लोबल हंगर इंडेक्स चार तरीके के आंकड़ों
को इकट्टòा करके बनता है-
1- कुपोषण
कुपोषण का मापन इस प्रकार किया जाता है कि पूरी जनसंख्या का कितना
भाग भोजन के जरिए जरूरी मात्र में ऊर्जा (कैलोरी) नहीं हासिल कर पा रहा है।
2- बाल कुपोषण
बाल कुपोषण के तहत यह मापा जाता है कि पांच वर्ष तक की उम्र के बच्चे
क्या अपनी ऊंचाई की तुलना में जरूरी वजन रखते हैं।
3- बाल वृद्धि
बाल वृद्धि को भी पांच वर्ष तक के बच्चों में ही मापा जाता है,
जिसके
तहत यह देखा जाता है कि इस उम्र के कुल बच्चों में कितने बच्चे अपनी जरूरी औसत
ऊंचाई तक पहुंच पाए हैं।
4- शिशु मृत्यु दर
शिशु मृत्यु दर के तहत यह मापा जाता है कि पांच वर्ष के उम्र पूरी करने
से पहले कितने बच्चों की मृत्यु हो गयी।
ग्लोबल हंगर इंडेक्स बनाते समय उत्तफ़ चारों आंकड़े संयुक्त राष्ट्र
संघ और विभिन्न एजेंसियों- विश्व खाद्य और कृषि संगठन, विश्व स्वास्थ्य
संगठन (डब्लूएचओ), संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनीसेफ) और विश्व बैंक से लिए जाते हैं।
ग्लोबल हंगर इंडेक्स में पिछड़ने का दुष्परिणाम
ग्लोबल हंगर इंडेक्स के पहले पैरामीटर को देखा जाए तो यह बताता है कि
कुल जनसंख्या में कितने प्रतिशत लोग शरीर की जरूरत के हिसाब से जरूरी मात्र में
ऊर्जा भोजन के जरिए नहीं हासिल कर पा रहे हैं। ऐसे लोग जल्दी बीमार होंगे, जिससे
उनकी जल्दी मृत्यु होने की आशंका रहेगी। इसे जीवन प्रत्याशा (लाइफ एक्सपेक्टेंसी
एट बर्थ) में असमानता से समझा जा सकता है।
ग्लोबल हंगर इंडेक्स के बाकी के तीन पैमाने बच्चों से संबंधित है।
बच्चों से संबंधित आंकड़ा देश के भविष्य की तरफ इशारा करता है। किसी देश के बच्चों
का अगर स्वास्थ्य और उनकी ग्रोथ ठीक नहीं है तो इससे आसानी से पूर्वानुमान लगाया
जा सकता है कि वे बच्चे जब बड़े होंगे तो भी उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहेगा। चूंकि
बच्चों के खराब स्वास्थ्य का असर उनके मानसिक विकास पर भी पड़ता है, इसलिए
ऐसे आकड़ों से यह भी पता चलता है कि ये बच्चे भविष्य में भी शिक्षा के क्षेत्र में
भी बेहतर नहीं कर पाएंगे। उनका नौकरी और पेशे में कामयाब होना भी संदिग्ध रहेगा।
ग्लोबल हंगर इंडेक्स के आंकड़ों को भारत के परिपेक्ष्य में देखने पर
पता चलता है कि दक्षिण के राज्य बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं। वहीं, उत्तर
के राज्यों की स्थिति खराब रही है। इस इंडेक्स के तमाम आकड़ों के भारत की
जाति-व्यवस्था जोड़कर देखने की पहले भी तमाम कोशिश हुई हैं। अमूमन सभी तरह के
आंकड़ों में पोषण के मामले में अनुसूचित जाति, जनजाति, अन्य
पिछड़ा वर्ग आदि की स्थिति ज्यादा खराब रही है। भुखमरी का इन समुदायों पर क्या
व्यापक प्रभाव पड़ेगा, इसका सम्भावित अनुमान ऊपर लगाया जा चुका है। तमाम शोध से यह पहले ही
साबित को चुका है कि भारत में दलितों की जीवन प्रत्याशा कम है, यानी
वे बाकी समूहों के लोगों के मुकाबले पहले मर जाते हैं। यह इंडेक्स उसके कारणों की
तह में जाने में मदद करता है।
हंगर इंडेक्स में भारत पीछे क्यों?
ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत के पिछड़ने का एक सीधा कारण यह है कि
भारत सरकार इस समस्या से निपटने के लिए जो कार्यक्रम चला रही है, वह
ठीक ढंग से कार्य नहीं कर रहा है। इस दिशा में भारत सरकार पीडीएस, आईसीडीएस
और मिड-डे मील जैसे कार्यक्रम चला रही है। पीडीएस के ही अंदर अंत्योदय अन्न योजना
भी आती है। इसका टार्गेट गरीबों को सस्ती दर पर राशन उपलब्ध कराना रहा है। पीडीएस
में भ्रष्टाचार की शिकायतें आम रही हैं, इसलिए सरकार इसको डायरेक्ट कैश
ट्रांसफर से रिप्लेस कर रही है।
आईसीडीएस मुख्यतः बच्चों और गर्भवती महिलाओं के लिए है, जिसके
तहत उन्हें मिनिरल और विटामिन युत्तफ़ पोषण आहार दिया जाता है। उत्तर भारत में यह
योजना भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गयी है, जिसकी वजह से पोषाहार केवल कागजों पर
ही पहुंच रहा है। नौकरशाही और राजनेताओं की मिलीभगत का नतीजा ये है कि पोषाहार
पशुओं को खिलाने के लिए बेच देने तक की खबरें आती हैं।
स्कूल जाने वाले बच्चों में कुपोषण कम करने के लिए सरकार ने मिड-डे
मील योजना चालू की है जिसके तहत बच्चों को स्कूल में पका-पकाया भोजन दिए जाने का
प्रावधान है। यह योजना भी बस किसी तरीके से चल रही है। इसमें भी भ्रष्टाचार,
जातिवाद
आदि की शिकायतें आम हैं।
भारत की उत्तफ़ खाद्य सुरक्षा योजनाओं पर डॉ इविसा पेट्रिकोवा ने शोध
किया है। भारत की उत्तफ़ योजनाएं भ्रष्टाचार, जातिगत भेदभाव,
छुआछूत,
कुपोषण
और स्वच्छता को लेकर जागरूकता की कमी के कारण अपने उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर पा
रही हैं। इन योजनाओं को लागू करने में नौकरशाही पर अत्यधिक निर्भरता भी नुकसान
पहुंचा रही है। हंगर इंडेक्स में भारत के लगातार पिछड़ते चले जाने का मतलब है कि ये
योजनाएं असफल हो चुकी हैं और उनकी समीक्षा करने की जरूरत है।
इन सब कारणों के अलावा विश्व कृषि एवं खाद्य संगठन के अनुसार पर्यावरण में तेजी से हो रहा परिवर्तन भी वैश्विक भुखमरी को बढ़ा रहा है।