दिल्ली में ‘आप’ के लिए सत्ता वापसी कितनी आसान, कितनी कठिन

बीजेपी का मानना था कि लोकसभा चुनाव में एनडीए की सरकार तो बन गई,
लेकिन
चुनाव के इन नतीजों मे लोकसभा के साथ-साथ विधनसभा चुनावों के भी कुछ पहलू छिपे
हैं।
बीजेपी को उम्मीद थी कि देश की जनता ने अगर इसी तरह अपना भरोसा
बीजेपी पर बरकरार रखा तो दिल्ली विधनसभा चुनाव की तस्वीर भी कमलमय होगी।
मगर 2020 में चुनाव की घोषणा होने के बाद दिल्ली बीजेपी में न तो मई 2019
वाला वो उत्साह दिख रहा है और ना ही वो जोश।
छह महीने में ऐसा क्या हो गया कि दिल्ली में बीजेपी के हौसले पस्त
हैं? लेकिन इस सवाल के साथ एक और सवाल उठता है कि क्या अरविंद केजरीवाल की
आम आदमी पार्टी पिफर से 67 सीटें जीतने का जलवा दिखा पाएगी?
दिल्ली में ‘आप’
लोकसभा चुनाव में बीजेपी की सातों सीटों को आम आदमी पार्टी मापदंड
नहीं मानती क्योंकि 2014 में भी दिल्ली में बीजेपी ने सभी लोकसभा सीटें जीती थीं लेकिन 2015
में हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने 70 में से 67
सीटें जीत ली थीं।
उस समय बीजेपी सिपर्फ 3 सीटों पर सिमट गई थी और दस साल तक
दिल्ली में राज करने वाली कांग्रेस अपना खाता भी नहीं खोल पाई थी।
दिल्ली में पांच साल तक राज करने वाली अरविंद केजरीवाल की सरकार ने
ध्ीरे-ध्ीरे काम की रफ्रतार पकड़ी और काम करने का तरीका भी बदला। शुरुआती सालों में
अरविन्द केजरीवाल कापफी उग्र नजर आते थे। वह बीजेपी और प्रधानमंत्राी मोदी पर हर
बात को लेकर निशाना साध्ते थे।
करीब चार सालों तक उनकी सरकार चीपफ सेक्रेटरी और उपराज्यपाल से
नाराजगी, ध्रना, मारपीट और गाली-गलौज के लिए खबरों में बनी रही। अरविन्द केजरीवाल के
इसी रवैये की वजह से पिछला लोकसभा चुना मोदी बनाम केजरीवाल हो गया था और इसका खामियाजा आम आदमी पार्टी ने चुनाव में झेला। उसके सारे उम्मीदवारों की जमानत जब्त
हो गई थी। लेकिन ध्ीरे-ध्ीरे अरविन्द केजरीवाल ने अपने काम का तरीका बदला।
काम करने का दावा
यही वजह है कि पिछले एक साल से ‘आप’ की अरविन्द केजरीवाल सरकार ने
अपने काम का दावा ठोंकना शुरू किया। आम आदमी पार्टी ने सत्तर वादे किए थे। अब ‘आप’
उन्ही सत्तर कामों का रिपोर्ट कार्ड लेकर दिल्ली की जनता के पास पहुंच रही है।
दिल्ली के उपमुख्यमंत्राी मनीष सिसोदिया अपनी सरकार की सपफलता में
मोहल्ला क्लीनिक, अच्छी शिक्षा, सस्ती बिजली, हर मोहल्ले में
अच्छी गलियां और सड़कें बनवाने जैसी बातों को गिना रही है।
उनका कहना है कि दिल्ली में स्वास्थ्य, बिजली, पानी
और शिक्षा का स्तर बेहतर हुआ है जिससे आम आदमी को लाभ पहुंच रहा है और यही वजह है
कि अब दिल्ली की जनता अच्छा काम करने वाले अरविन्द केजरीवाल की सरकार को पिफर से
चुनेगी।
‘आप’ का दावा है कि वो इस बार नया रिकॉर्ड बनाएगी। हालांकि, नागरिकता
संशोध्न कानून जैसे मुद्दे पर अरविंद केजरीवाल की चुप्पी आम आदमी पार्टी के लिए
भारी पड़ सकती है।
‘आप’ की तरपफ से राज्यसभा सांसद संजय सिंह जेएनयू छात्राों पर हुए
हमले के बाद एम्स में घायलों से मिलकर उनका हाल-चाल ले चुके हैं। हालांकि, दिल्ली
के मुख्यमंत्राी अरविंद केजरीवाल इस घटना के तुरंत बाद वहां नहीं पहुंचे। शायद वह
किसी के भी पक्ष में खड़े होकर ध्रुवीकरण का हिस्सा नहीं बनना चाह रहे।
दिल्ली में कांग्रेस
वहीं दिल्ली में कांग्रेस वापसी के लिए पुरजोर कोशिश कर रही है। साल 2015 के
विधनसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी 54.3 पफीसदी, बीजेपी 32.3
पफीसदी और कांग्रेस पार्टी मात्रा 9.7 पफीसदी मत हासिल कर पाई थी। लेकिन पांच
साल बाद, इस बार कांग्रेस को उम्मीद है कि वो बेहतर प्रदर्शन करेगी।
कांग्रेस की उम्मीद का एक कारण है कि झारखंड विधनसभा के नतीजे
कांग्रेस को कापफी उत्सहित कर रहे हैं। कांग्रेस की सहयोगी राजद ने दिल्ली में
चुनाव लड़ने की घोषणा कर बिहार-झारखंड के पूर्वांचली वोटरों में सेंध्मारी करने का
इरादा जाहिर किया। कांग्रेस को उम्मीद है कि यहीं पूर्वांचली वोट उसके सत्ता के
रास्ते को सापफ करेंगे।
हालांकि कांग्रेस ये भी जानती है कि उसका पुराना वोट बैंक आज
केजरीवाल सरकार का वोट बैंक है। अब कांग्रेस उसको पिफर से हासिल करने की कोशिश में
है और लोकलुभावन वादे भी कर रही है।
कांग्रेस के वादे
दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष सुभाष चोपड़ा ने ऐलान किया
कि राजधनी में कांग्रेस पार्टी की सरकार आने पर सभी बुजुर्गों, विध्वाओं
व दिव्यांगों की पेंशन राशि को बढ़ाकर 5000 रुपये प्रतिमाह किया जाएगा।
चूंकि नागरिकता संशोध्न कानून पर आम आदमी पार्टी की खास प्रतिक्रिया
नहीं आई, इसलिए कांग्रेस इस बात को भी भुनाना चाहती है। कांग्रेस उम्मीद कर
रही है कि मुस्लिम बहुल क्षेत्राों में वो अच्छा प्रदर्शन करेगी।
हालांकि, कांग्रेस में गुटबाजी कापफी है। इसके अलावा कांग्रेस के पास नए
चेहरों में कोई चमकता चेहरा नहीं है। इस चुनाव में कांग्रेस को अपने ताकतवर नेता
जैसे शीला दीक्षित या सज्जन कुमार की कमी खलेगी।
15 साल तक दिल्ली में राज करने वाली शीला दीक्षित ने भले ही चुनाव में
हार का सामना किया लेकिन लोगों को उनके चेहरे पर भरोसा था। लेकिन उनकी मृत्यु के
बाद उस जगह को भरने वाला कोई नहीं है।
दिल्ली में बीजेपी
वहीं दिल्ली में बीजेपी भी अपने नेता की तलाश में है। दिल्ली के
प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी जिन पूर्वांचली वोटरों पर कब्जा करने की कोशिश में हैं,
उन
पर आम आदमी पार्टी और कांग्रेस की नजर है।
बीजेपी कच्ची कॉलोनियों को नियमित करने के सहारे भी दिल्ली के लोगों
का दिल जीतना चाहती है। साथ ही बीजेपी नागरिकता संशोध्न कानून, राम
मंदिर और राष्ट्रवाद के मुद्दे को भी लेकर भी मैदान में है।
दिल्ली में शहरी मतदाताओं के होने के चलते बीजेपी को उम्मीद है कि
उसका राष्ट्रवाद का मुद्दा कापफी प्रभावी साबित हो सकता है। सिखों को लुभाने के
लिए बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी ने दिल्ली विधनसभा चुनाव से ठीक पहले
प्रधानमंत्राी नरेंद्र मोदी को पत्रा लिऽकर गुरु गोविंद सिंह के वीर पुत्राों की याद
में बाल दिवस मनाने की परंपरा शुरू करवाने का अनुरोध् किया है।
बीजेपी दिल्ली की सत्ता से पिछले 21 साल से दूर है
और पार्टी इस बार अपने सियासी वनवास को खत्म करने के लिए एड़ी-चोटी की जोर लगा रही
है।
बीजेपी केंद्र सरकार के काम और प्रधनमंत्राी नरेंद्र मोदी के चेहरे
को भुनाने की कवायद में है क्योंकि दिल्ली में छह महीने पहले ही लोकसभा चुनाव की
जंग केजरीवाल बनाम मोदी की हुई थी, जिसमें आप को कापफी नुकसान हुआ था।
दिल्ली की सत्ता पर काबिज आम आदमी पार्टी जहां अपने कामकाज के सहारे
सत्ता में वापसी की उम्मीद लगाए हुए है, वहीं कांग्रेस और बीजेपी अपने वोट बैंक
को वापस पाने के जुगाड़ में लगी है।
छात्राों का आंदोलन
नागरिकता संशोध्न कानून के बाद देश में दिल्ली विधनसभा का पहला चुनाव
है। इस कानून का विरोध् हो रहा है और उसमें दिल्ली के तीन केंद्रीय
विश्वविद्यालयों- जेएनयू, डीयू, और जामिया में
कैंपस में विरोध् की आग भड़की है।
जामिया और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्राों को हिंसा का भी सामना करना पड़ा। लेकिन ये मुद्दा दिल्ली के चुनावों में छाएगा या नहीं, ये समय बताएगा।