नागरिकता कानून से ध्यान हटाकर मोदी सरकार को अर्थव्यवस्था पर ध्यान देना चाहिए

2020-02-01 0

असली सवाल यह है कि सरकार उन आर्थिक सुधारों को लागू करने पर कितनी राजनीतिक पूंजी लगाना चाहती है, जो सुधार किसी-न-किसी तबके के बीच आलोकप्रिय हो सकते हैं?

बजट का समय आते ही करों की दरों और राजस्व, टैक्स रेवेन्यूद्ध को लेकर चर्चाएं आश्चर्यजनक रूप से बढ़ जाती हैं, हालांकि केंद्रीय बजट में इनका हिस्सा केवल 60 पफीसदी ही है। मनमोहन सिंह की सरकार के आखिरी बजट में यह हिस्सा करीब 52 पफीसदी था। बाकी 40 पफीसदी यानी करीब 11 खरब में करों से इतर मदों ;घाटे को पूरा करने के लिए लिये गए उधर समेतद्ध के जरिए होने वाली आमदनी नॉन टैक्स रेवेन्यूद्ध शामिल है। लेकिन नॉन टैक्स रेवेन्यू कैसे बढ़ाई जाए या खर्चों में बचत करके उधर की मात्राा को घटाने पर ध्यान नहीं दिया जाता। आश्चर्यजनक बात यह है कि टैक्स रेवेन्यू की वृद्धि दर सकल घरेलू उत्पाद।,जीडीपीद्ध की वृद्धि दर से ऊंची है, पिफर भी नॉन टैक्स रेवेन्यू उम्मीद से कम रहा है।

अगर टैक्स रेवेन्यू अच्छा रहा है तो इसके लिए 2014-16 में तेल के मामले में निकली लॉटरी का शुक्रिया अदा कीजिए। उस समय तेल की कीमतों में भारी गिरावट का पफायदा उठाते हुए अरुण जेटली ने टैक्स रेवेन्यू को बढ़ाया, हालांकि इसका कुछ हिस्सा उपभोक्ता  को भी देना पड़ा। व्यक्तिगत टैक्स और जीएसटी के मामले पर भी कुछ करना बाकी रह गया है। लेकिन आज जबकि इन मसलों को लेकर हवा में तमाम तरह की बातें पफैली हुई हैं, नॉन टैक्स रेवेन्यू पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा है जिसमें टेलिकॉम जैसे सेक्टरों से विनिवेश से आमद में बार-बार कमी और राजस्व का कुप्रबंध्न हो रहा है।

राजस्व की भूखी सरकार अपनी ही कंपनियों का सहारा ले रही है, उन्हें लाभांश भुगतान बढ़ाने या उसकी खातिर उधर लेने के लिए कह रही है। इस साल नॉर्थ ब्लॉक के लंबे हाथ रिजर्व बैंक से सरप्लस बटोरने के लिए मुंबई तक पहुंच गए।

इसका दूसरा पहलू यह कहानी है कि पैसा कहां जाता है। सरकारी बैंकों के बैलेंस शीट को दुरुस्त करने के लिए खरबों रुपये इस्तेमाल किए जा रहे हैं, जबकि हाइवे और रेलवे में लगाए गए खरबों से वह लाभ नहीं मिल रहा है जो मिलना चाहिए था। रेलवे तेज रफ्तार और ज्यादा क्षमता वाला   कॉरीडोर बनाने के अंतिम चरण में है लेकिन उसे निश्चित पता नहीं है कि इस कॉरीडोर के लिए किस तरह की ट्रैपिफक आएगी, जबकि मौजूदा रेल ट्रैपिफक में कंटेनर का आंशिक उपयोग ही हो रहा है और कॉरीडोरों में नए केंद्र अभी सक्रिय नहीं हुए हैं।

इस बीच, डाक विभाग को चलाए रखने के लिए अलग से 20,000 करोड़ रुपये लगाए जा रहे हैं, ताकि वेतन और पेंशन के बिल इसकी आमदनी से बड़े हैं। उध्र, हमेशा घाटे में रहने वाली एअर इंडिया और बीएसएनएल का घाटा तो हजारों करोड़ रुपये में है ही। पोस्टल नेटवर्क का बैंक में बदलने की केवल बातें ही हो रही हैं। अगर सरकार संबंध्ति कंपनियों और मंत्राालयों से बेहतर कामकाज की मांग करे तो बजट के नॉन टैक्स हिस्से को ताकत मिलेगी और निकम्मी कंपनियों को समर्थन देने के लिए कम खर्च करना पड़ेगा।

विडंबना यह है कि सरकार सोचती है कि इन कंपनियों को देने के लिए उसके पास ढेर सारा पैसा है, जबकि सच यह है कि एक दशक पहले के मुकाबले आज वह पैसे के लिए ज्यादा मोहताज है। क्या खाद्य भंडार की व्यवस्था को और कार्यकुशल बनाई जा सकती है? क्या केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्से में से बिजली जेनरेटरों को भुगतान बढ़ाया जा सकता है? क्या निजी बंदरगाहों को व्यापार करने देकर यह देखा जा सकता है कि वे कम लागत में और समय पर काम कर सकते हैं, क्योंकि सरकारी बंदरगाह इनमें से दोनों काम नहीं कर पारहे हैं? क्या कीमतों के निर्धरण में राजनीतिक दखल खत्म किया जा सकता है ताकि सब्सिडी बिल में कटौती की जा सके?

संक्षेप में, सरकारी पैसे को आगे बढ़ाने के कई रास्ते हैं। सरकार ने नागरिकता कानून के संशोधन में जो जिद दिखाई है वैसी जिद वह दूसरे कामों में दिखाती तो क्या होता? असली सवाल यह है कि सरकार उन आर्थिक सुधरों को लागू करने पर कितनी राजनीतिक पूंजी लगाना चाहती है, जो सुधार किसी-न-किसी तबके के बीच अलोकप्रिय हो सकते हैं? एअर इंडिया को अगर बेचा नहीं जाता तो क्या उसे बंद किया जाएगा? आखिर, कई निजी विमान कंपनियों को बंद किया जा चुका है, तो एअर इंडिया को क्यों नहीं? इस तरह के फैसले करने के लिए सरकार को अर्थव्यवस्था को सबसे ऊपर प्राथमिकता देनी होगी, जो फिलहाल नहीं दी जा रही है।



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